कामनाओं का जाल
--
पराचः कामाननुयन्ति बाला-
स्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम्।।
अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा
ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते।।२।।
पराचः कामान् अनुनयन्ति बालाः ते मृत्योः यन्ति विततस्य पाशम्। अथ धीराः अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवं अध्रुवेषु इह न प्रार्थयन्ते।।
अध्याय १, वल्ली ३ में यमराज और नचिकेता का संवाद संपन्न हो गया था। इसका संकेत अंतिम मंत्र में "तदानन्त्याय कल्पते" की द्विरुक्ति से इस प्रकार से दिया गया है :
य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद्ब्रह्मसंसदि ।।
प्रयतः श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते।।
तदानन्त्याय कल्पत इति।।१७।।
अब मृत्यु के पाश से मुक्त होकर अमृत-तत्व की प्राप्ति करने के इच्छुक ब्रह्मजिज्ञासुओं और सांसारिक कामनाओं की लालसा से ग्रस्त अल्पबुद्धि मनुष्यों के भेद को स्पष्ट करते हुए यह कहा जाता है कि कामनाओं से लालायित ऐसे अपरिपक्व बुद्धिवाले मनुष्य तो मृत्यु के सर्वत्र फैले हुए जाल में फँस जाते हैं इसलिए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, किन्तु परिपक्व बुद्धियुक्त, विवेकवान् धीर उस नित्य अमृत-तत्त्व को अनित्य और नाशवान पदार्थों में पाने की इच्छा न करते हुए अमृत-स्वरूप परमात्मा के तत्त्व को ही प्राप्त करते हैं, क्योंकि वे तो पहले ही से उस अमृतत्वस्य को स्वरूपतः जान चुके होते हैं।
***
No comments:
Post a Comment