सूक्ष्मदर्शी जिज्ञासु और तत्ववेत्ता
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मेरे अन्य ब्लॉग prashastasamagra में पिछले दो दिनों में मैंने "चतुःश्लोकी भागवतम्" पोस्ट किया।
अत्यन्त संक्षिप्त "चतुःश्लोकी भागवतम्" स्तोत्र में श्रीभगवान् द्वारा ब्रह्माजी को आत्मा अर्थात् परमात्मा के तत्व का, एवं उस तत्त्व के साक्षात्कार का, अर्थात् आत्मानुसन्धान करने का क्या तरीका है, -इसका उपदेश दिया गया है। आत्मानुसन्धान की प्रक्रिया वैसे तो दुरूह जान पड़ती है, किन्तु जो मनुष्य ज्ञान-अज्ञान से ऊपर उठकर विवेक अर्थात् विज्ञान का आश्रय लेता है, उसे अनायास ही वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है, क्योंकि वैराग्य नित्य-अनित्य के अभ्यास का स्वाभाविक परिणाम ही है। ऐसे ही विवेक और उससे फलित वैराग्य से युक्त किसी जिज्ञासु को ही "अन्वय-व्यतिरेक" के अभ्यास का निर्देश दिया जाता है, और आत्मा या परमात्मा यद्यपि दुर्दर्श है, फिर भी इस उपाय से पात्र के लिए अवश्य ही प्राप्य है। पात्र वह है, जिसने इससे पूर्व नित्य-अनित्य का चिन्तन दीर्घकाल तक एकाग्र चित्त से किया होता है।
आत्मा चूँकि अपने आप से भिन्न वस्तु नहीं है, और 'स्व' अर्थात् अहंकार अपना व्यक्तिगत और स्वतंत्र अस्तित्व होने की कल्पना मात्र, इसीलिए आत्म-साक्षात्कार बहुत कठिन प्रतीत होता है। यह कल्पना भी चूँकि बुद्धि (विज्ञानमय-कोष) में ही उठती है, इसलिए इस कल्पना का लय होते ही प्रत्येक मनुष्य को अपनी आत्मा का परोक्ष अनुभव हो जाता है, जो कि उसकी स्मृति में संचित होकर व्यक्तिगत 'स्व' का रूप ले लेता है। लय और विनाश, यही दोनों इस अहंकार के मिटने के प्रकार हैं, लय में अहंकार से निवृत्ति अस्थायी रूप से होती है, जबकि विनाश में अहंकार की मृत्यु ही हो जाती है :
चित्तवायवश्चित्क्रियायुता।।
शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका।।१२।।
लयविनाशने उभयरोधने।।
लयगतं पुनर्भवति नो मृतम्।।१३।।
(श्रीरमण महर्षि कृत उपदेश-सार)
यमराज कहते हैं :
एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।।
दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।१२।।
एषः सर्वेषु भूतेषु गूढः आत्मा न प्रकाशते। दृश्यते तु-अग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।
यह गूढ आत्मा किसी को भी प्रत्यक्षतः तो नहीं दिखलाई देती, किन्तु यदि शुद्ध और सूक्ष्म बुद्धि से इसे जानने का यत्न किया जाए, तो सूक्ष्मदृष्टि से युक्त मनुष्यों द्वारा इसे अवश्य देख लिया जाता है।
इसे और भी स्पष्ट करते हुए वे नचिकेता से कहते हैं :
यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि।।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि।।१३।।
यच्छेत् वाङ्-मनसी प्राज्ञः तत् यच्छेत् ज्ञानः आत्मनि।
ज्ञानं आत्मनि महति नियच्छेत् तत् यच्छेत् शान्त आत्मनि।।
(यहाँ मनसि का 'मनसी' प्रयोग छान्दस् है -- मनसीतिच्छान्दसं दैर्घ्यम् ... शाङ्करभाष्य)
प्राज्ञ अर्थात् आत्मा के जिज्ञासु को चाहिए, कि सबसे पहले वह वाणी का लय मन में करे, मन का लय ज्ञान में अर्थात् बुद्धिरूपी आत्मा में करे, फिर बुद्धिरूपी आत्मा का भी लय महत् आत्मा अर्थात् 'चित्' / चेतना / चैतन्य में और इसके अनन्तर उस 'चित्' का भी लय शान्त-आत्मा अर्थात् 'सत्' में करे।
यह प्रक्रिया अवश्य ही बहुत कठिन है किन्तु यही वह तरीका है जिसका उपदेश यमराज द्वारा उनके सर्वाधिक सुयोग्य और प्रिय शिष्य को दिया गया है।
आगे वे उसका उत्साह-वर्धन करते हुए उससे कहते हैं :
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया ...
दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।१४।।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया । दुर्गं पथः तत् कवयः वदन्ति।।
हे नचिकेता! उठो, जागो! श्रेष्ठ पुरुषों के उद्बोधन से शिक्षा ग्रहण करो! (आत्मानुसन्धान का) यह पथ तलवार की धार पर चलने जैसा असि-धार व्रत की तरह ही अत्यन्त ही कठिन है। तत्वदर्शी ऐसा कहते हैं।
दुरत्यया :
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।१४।।
(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ७)
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