साँस्कृतिक परिरक्षण
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Terminology :
परिक्षरण : Decay, Degeneration, Deterioration, Destruction,
(क्षरण, क्षय, ह्रास, क्षति, नाश),
परिरक्षण : Protection, Safety, Security.
(सुरक्षा, संरक्षण, अभिवृद्धि),
सदाचार (Morality),
नैतिकता (Ethics)
धर्म (Conscience)
परंपरा / पंथ / पूजा-पद्धति (Religion)
शून्य : (Vacuum)
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एक विकराल और भयावह सांस्कृतिक शून्य का संकट, हमारे इस समय का प्रकट और विकट यथार्थ है। और आश्चर्य किन्तु सत्य यह भी है कि हमें इसका आभास तक नहीं है। हमारे समय का ही क्यों? क्योंकि हमारी यह दुनिया जैसे जैसे छोटी होती जा रही है, वैसे वैसे धर्म / Conscience, नैतिकता / Ethics और सदाचार / Morality जैसे शब्दों का महत्व खोता चला जा रहा है। और अध्यात्म / Spirituality नामक वस्तु और अधिक दुर्लभ, दुरूह, निरर्थक, अप्रासंगिक और अनावश्यक प्रतीत होने लगी है।
आधुनिक प्रगतिशीलता का एकमात्र प्रमाण है : सफलता। और जिस किसी भी प्रकार से आप सफल हो जाते हैं, (या होते हुए जान पड़ते हैं) उसी से आप और आपका जीवन धन्य हो जाता है! सफल होने के इस पराक्रम एवं उद्यम में सदाचार, नैतिकता, और धर्म की भूमिका महत्वहीन हो जाती है, और उन्हें भी इसी सफलता की कसौटी पर कसा और तय किया जाता है।
हमारी तथाकथित इस संस्कृति की पहचान का क्या युक्तिसंगत कोई आधार है भी? 'साझा-संस्कृति' के बारे में भी हम प्रायः ही कहते-सुनते हैं, और शायद एक सामाजिक यथार्थ और आदर्श के रूप में भी इसे देखा-समझा और सामने रखा भी जा सकता है, ऐसा हमें लगता है। किन्तु प्रश्न यह है कि यह साझा-संस्कृति जिन घटकों / अवयवों आदि से मिलकर बन सकती है, ऐसे कोई समान तत्व क्या हमारे पास हैं भी या नहीं? संगीत, खेल, कला, उत्सव, आदि क्षेत्रों के रूप में तो संस्कृति की पहचान शायद की जा सकती है, किन्तु ये सभी क्षेत्र किसी न किसी समुदाय के सन्दर्भ में ही महत्वपूर्ण होते हैं। ऐसा ही एक तत्व और हो सकता है, और उसे राजनीति कह सकते हैं। जैसे कि राजनीति की एक अपनी संस्कृति होती है, वैसे ही संस्कृति की भी अपनी एक राजनीति होती है। जैसे राजनीति एक संस्कृति होती है, वैसे ही राजनीति की भी एक संस्कृति हो सकती है। जैसे दलित राजनीति, धार्मिक भेदभाव, संप्रदायवाद और वर्ग-भेद तथा जाति के भेद के आधार पर मनुष्यों के बीच फूट डालने की राजनीति, जिसके लक्ष्य और वाच्य, लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ भिन्न भिन्न होते हैं, और निहितार्थ तो इससे भी ज्यादा गहन, गूढ और छद्म होते हैं। बड़े बड़े बुद्धिजीवी इस अवसर का लाभ अपने अपने विशिष्ट ध्येयों, उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करते हैं, और कभी उनके गुप्त इरादों (objectives) का अनुमान तक नहीं लगाया जा सकता।
इस सब के बीच यह तो स्पष्ट ही है कि आज की परिस्थितियों में न तो सदाचार (Ethics), न नैतिकता (Morality), और न ही धर्म (Conscience) के समुदायगत रूप अर्थात् परंपरा या (Religion) के लिए हमारे पास कोई ऐसी सर्वसम्मत कसौटी है, जिसे व्यवहार में लाया जा सके। व्यवहार में यदि कुछ है, तो वह है राज्य के विधान (Law of the State / Land) के द्वारा तय किया गया आधार, और उसकी व्याख्या का तरीका, जो समय समय पर बदलता रहता है।
किसी इस्लामी राष्ट्र में जैसे वह विधान ((Law), इस्लाम के ग्रन्थों से तय होता है, उसी तरह इसरायल में यहूदी ग्रन्थों से, साम्यवादी देशों में किसी अन्य आधार से। भारत जैसे हमारे इस धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में, जहाँ धर्म और रिलीजन को समानार्थी माना गया है, धर्म (Conscience) को न तो कहीं परिभाषित किया गया है, न सदाचार (Ethics) को, और न ही इसी प्रकार से नैतिकता (Morality) को, यह तय करना और भी कठिन है। फिर भी इन्हें भौतिकवादी विज्ञान और मानवीयता के आधार पर किसी हद तक तो अवश्य ही तय किया ही जा सकता है। किन्तु धर्म, सदाचार और नैतिकता के किसी सुनिश्चित मापदंड के अभाव में यह भी बहुत कठिन जान पड़ता है।
इस प्रकार संस्कृति के लिए, जो कि मूलतः धर्म, सदाचार और नैतिकता की नींव पर ही खडी़ होती है, ऐसा कोई आधार ही कहाँ रह जाता है? इसे ही सांस्कृतिक शून्य कहा जा सकता है। हमारे पास संस्कृति के लिए कोई आधारभूत दर्शन है ही कहाँ?
जो तथाकथित साँस्कृतिक सामाजिक आधार है भी, वह केवल उन भौतिक शक्तियों से ही प्रेरित और निर्देशित होता है, जिन्हें कि हमारी आज की तथाकथित साझा संस्कृति (composite culture) ने पैदा किया है।
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