साँस्कृतिक शून्य के समय में,
(In the Times of Cultural Vacuum).
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यह पोस्ट दिनांक 02 जून 2022 को लिखे पोस्ट :
साँस्कृतिक परिक्षरण / परिरक्षण
के क्रम में लिखा जा रहा है। अतः निवेदन है कि उस पोस्ट का अवलोकन, और उस परिप्रेक्ष्य में यहाँ व्यक्त विचारों को देखना शायद सहायक होगा।
समाज का सामूहिक चरित्र इस परिरक्षण / परिक्षरण का प्रत्यक्ष उदाहरण है। 'समाज' कहते ही कल्पना में मनुष्यों का कोई न कोई समूह आ खड़ा होता है जिसका एक साँस्कृतिक चेहरा भी किसी हद तक दिखाई देता है। इस चेहरे को न तो किसी धर्म-विशेष के मूल्यों, आचरण, भाषा, आदर्शों, आजीविका, रहन-सहन, मनोरंजन के तौर तरीकों के आधार पर पहचाना जा सकता है, और न इसका कोई स्थायी रूप हो सकता है। क्योंकि साँस्कृतिक विविधताएँ ही इसका मूल चरित्र है। युद्ध और परंपरा इन विविध संस्कृतियों के दो अनिवार्य और प्रमुख तत्व हैं। और अगर एक ही शब्द में कहें तो इसे 'इतिहास' कहा जा सकता है। किसी भी परंपरा का कोई इतिहास होता है, किन्तु पूरे मनुष्य समाज का ऐसा कोई इतिहास तय करना शायद और लगभग असंभव सा एक कार्य है। कितनी ही परंपराएँ बनती, बदलती और समाप्त होती रहती हैं, और किसी छोटे या अपेक्षतया बड़े ऐतिहासिक काल-खण्ड के सन्दर्भ में हम किसी समूह-विशेष की जीवन-शैली, संस्कृति आदि को 'सभ्यता' कहते हैं। सभ्यता और संस्कृति इस प्रकार से समानार्थी तत्व हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से ही, ऐसी सभी विभिन्न संस्कृतियाँ-सभ्यताएँ किन्हीं भिन्न भिन्न सुनिश्चित और सुस्थापित मूल्यों और आदर्शों से प्रेरित और विकसित हुईं थी। यह था उस-उस समाज, समूह, सभ्यता, संस्कृति आदि का अपना अपना आधारभूत तत्व। इसे राष्ट्रीय या लोक-संस्कृति भी कहा जा सकता है, और इस दृष्टि से पूरी पृथ्वी पर किसी भी समय अनेक और भिन्न भिन्न समूहों की अपनी अपनी ऐसी कोई विशिष्ट संस्कृति रही है।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, युद्ध और परंपरा इन विविध संस्कृतियों के दो अनिवार्य और प्रमुख तत्व हैं।
वर्तमान समय में, जबकि बौद्धिक और भौतिक उपभोग-केन्द्रित विकास को ही सर्वाधिक महत्व दिया जाता है, जहाँ जानकारी या (information) को ही सबसे अधिक विश्वसनीय माना जाता है, बौद्धिक संपदा के अधिकार की अवधारणा I.P.R या (Intellectual Property Rights) की अवधारणा बहुत शक्तिशाली, महत्वपूर्ण है, इस तथ्य की जाने-अनजाने ही उपेक्षा कर दी जाती है कि बुद्धि किसी भी आदर्श, मूल्य, नीति आदि से बंधी नहीं होती। इस बौद्धिक और भौतिक उपभोग-केन्द्रित में वैज्ञानिकता की भी सर्वाधिक प्रभावशाली भूमिका है यह तो मानना ही होगा। इस वर्तमान बुद्धि, वैज्ञानिकता तथा उपभोग-केन्द्रित वैश्विक सभ्यता / संस्कृति में जो चौथा तत्व प्रमुख रूप से उभर आया है, वह है असीम, अंतहीन, मनोरंजन जो हमारी साझा वैश्विक सभ्यता और संस्कृति बन चुका है। इसमें अवश्य ही मानवतावाद के स्वर भी मुखर हैं किन्तु मानवतावाद भी एक शब्द ही तो है, बुद्धि, वैज्ञानिकता, तथा उपभोग और मनोरंजन जैसा प्रत्यक्ष यथार्थ तो नहीं! और जैसा कि पहले कहा जा चुका है, युद्ध और परंपरा तो विविध सभ्यताओं और संस्कृतियों के दो अनिवार्य और प्रमुख तत्व होते हैं, जिसे पुनः एक शब्द में कहा जाए, तो राजनीति भी कह सकते हैं, हमारे समय के सामूहिक चरित्र की प्रमुख और एकमात्र प्रेरणा है। राजनीति मनुष्यमात्र में विद्यमान, उसकी बुद्धि में अन्तर्निहित वह अन्तर्द्वन्द और दुविधा है जो समूह के चरित्र में प्रकट होते ही उस साँस्कृतिक शून्य का रूप ले लेती है, जो हमारे आज के समय की सबसे बड़ी और प्रकट, प्रत्यक्ष पहचान है।
मनुष्यमात्र में विद्यमान इस जन्मजात तत्व को श्रीमद्भगवद्गीता के इस श्लोक में इस प्रकार से व्यक्त किया गया है :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत।।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।
(अध्याय ७)
युद्ध और परंपरा इसी तत्व का विस्तार और विकास है। यही हमारा साँस्कृतिक शून्य है।
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