विवेकवान और अविवेकी का वर्णन करने के उपरांत यमराज नचिकेता से उनकी गति के बारे में कहते हैं :
विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान्नरः।।
सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्।।९।।
विज्ञान-सारथिः यः तु मनःप्रग्रहवान् नरः।।
सो अध्वनः पारं आप्नोति तत् विष्णोः परमं पदम्।।
जिस मनुष्य का बुद्धिरूपी सारथी, मन-रूपी वल्गा से (इन्द्रियों रूपी अश्वों को नियंत्रण में रखता हुआ) युक्त होता है, वह संसार (और जन्म-मृत्यु) से पार हो जाता है, और उस मार्ग को पा लेता है, जिससे भगवान् विष्णु के परम पद की प्राप्ति कर लेता है।
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः।।१०।।
इन्द्रियेभ्यः पराः हि अर्थाः अर्थेभ्यः च परं मनः। मनसः तु परा बुद्धिः बुद्धेः आत्मा परं महान्।।
इन्द्रियों से भी विलक्षण और सूक्ष्म उनके विषय हैं, जो कि पञ्च महाभूत, सूक्ष्म भूत, तन्मात्र, और प्राण आदि हैं। उन भिन्न भिन्न सूक्ष्म विषयों से भी विलक्षण और उच्चतर, महान होता है - मन, क्योंकि समस्त विषय जड होते हैं, जबकि मन उनकी तुलना में चेतन होता है। और चूँकि मन को भी बुद्धि से ही जाना जाता है, अतः बुद्धि तो मन से भी विलक्षण और महान है। और बुद्धि के स्वामी (आत्मा) के ही चेतन-प्रकाश से आलोकित होने पर ही बुद्धि का सारा कार्य हो सकता है, अतः आत्मा तो बुद्धि से भी अधिक बलवान् और महान है। तात्पर्य यह कि बुद्धि 'मेरी है', कहनेवाला उसका स्वामी, आत्मा उससे भी बढ़कर महान है।
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः।।
पुरुषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः।।११।।
महतः परं अव्यक्तं अव्यक्तात् पुरुषः परम्। पुरुषात् न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः।।
महत् के प्रसंग विशेष के अनुसार अनेक भिन्न भिन्न अर्थ होते हैं, जैसे कि प्रकृति, बुद्धि, लोक, अव्यक्त, काल, -आदि।
आत्मा तो सर्वाधिक महान है, किन्तु आत्मा को पुनः 'अहंकार' या 'अहं' के रूप में भी जाना जा सकता है। 'अहं' रूपी आत्मा ही नित्य, शाश्वत, चिरंतन और सनातन है, जबकि अहंकार रूपी आत्मा अनित्य, किन्तु व्यावहारिक सत्य। अहंकार रूपी तत्व को ही भूत कहा जाता है, जो पुनः जड या चेतन, चर या अचर होता है। व्यावहारिक रूप से प्रतीयमान जगत् को व्यक्त कहा जाता है, जो सतत परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तन के आधार पर काल को भी परिवर्तनशील मान लिया जाता है और काल के साथ साथ व्यक्त भी। काल का अस्तित्व काल्पनिक ही है, न कि किसी इन्द्रिय-बुद्धि ग्राह्य भौतिक वस्तु जैसा ठोस। निष्कर्ष और अनुमान पर आधारित इस काल को परिवर्तन के सन्दर्भ में चल तथा अपरिवर्तन के सन्दर्भ में अचल की तरह जाना जाता है। इस प्रकार काल, वर्तमान के अर्थ में नित्य है, किन्तु अतीत और भविष्य के सन्दर्भ में अनित्य।
इसी आधार पर :
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।२८।।
(गीता, अध्याय २)
में काल को और काल के सन्दर्भ में भूत-समष्टि को भी व्यक्त तथा अव्यक्त कहा जाता है।
काल को महत् भी कहा जाता है, जैसा कि गीता के अध्याय ४ में कहा गया है :
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।
अतः महत् से भी महान अव्यक्त और अव्यक्त से भी महान है पुरुष अर्थात् 'चेतन'। प्रकृति और अव्यक्त, महत् होते हुए भी जड हैं जिनका प्रमाण वे स्वयं नहीं, बल्कि 'चेतन' पुरुष ही है, जबकि यह चेतन / पुरुष स्वयं ही स्वयं का प्रमाण है। इस चेतन पुरुष से महान और या अन्य कुछ नहीं है। इसे ही आत्मा, अहं, ब्रह्म आदि कहा जाता है।
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