June 27, 2022

मध्वदं / विज्ञानात्मा

अपनी आत्मा के स्वरूप का आविष्कार

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आध्यात्मिक आत्मानुसन्धान के अभ्यास में एक बड़ी कठिनाई यह है कि यद्यपि न तो कोई भी अपने अस्तित्व से अनभिज्ञ हो सकता है, न होता ही है, क्योंकि हर कोई ही अपनी स्वाभाविक अन्तःप्रेरणा से भी अपने अस्तित्व से अनायास अवगत ही होता है, और स्वयं के होने के सत्य को सदा ही घोषित भी करता ही है, किन्तु स्वरूप की दृष्टि से यह अपना अस्तित्व, 'स्वयं' क्या है इसे जान पाना, कह पाना या अनुभव कर पाना तो अत्यन्त ही कठिन है। 

इसलिए विज्ञानात्मा, जिसे 'मध्वदं' कहा जा रहा है, को स्पष्टता से समझने पर आत्मानुसन्धान का कार्य सफलतापूर्वक संपन्न हो सकता है।

पहले कठोपनिषद् उपनिषद् के अध्याय २, वल्ली प्रथम का यह मंत्र :

य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात्।।

ईशानं भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते।। एतद्वै तत्।।५।।

पूज्यपाद भगवान् आचार्य शङ्कर ने इस उपनिषद् पर अपने भाष्य में इसका अर्थ "कर्मफलभुज", जीव किया है। 

यः कश्चित् इमं मध्वदं = कर्मफलभुजं = जीवं प्राणादि-कलापस्य धारयितारं आत्मानं वेद = विजानाति, अन्तिकात् = अन्तिके = समीपे ईशानम् = ईशितारं भूतभव्यस्य = कालत्रयस्य ततः -तत् -विज्ञानात् ऊर्ध्वं आत्मानं न विजुगुप्सते = न गोपायितुम् इच्छति अभय-प्राप्तत्वात्।

शिव अथर्वशीर्ष  मंत्र ६ में रुद्र द्वारा भोगायमान दशा में सृष्टि का सृजन करने के बाद संहरण कर सो जाने के बाद पुनः जाग जाने के अनन्तर सृष्टि का सृजन किए जाने का वर्णन है, और  "... ... अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम् । एतद्धि परमं तपः आपो ज्योति रसोऽमृतं भूर्भुवः स्वरों नम इति।।६।।

इस प्रकार तप से ही सृष्टि का सृजन, पालन पोषण और संहरण होता है। 

मध्वदं का अन्वय होगा मधु-अदं, जो :

"अद्" धातु सेवन करने के अर्थ में मधु अर्थात् जो इस सृष्टि का परमोत्कृष्ट फल है, उसका उपभोग करनेवाले जीव का द्योतक है। यही विज्ञानात्मा है इसे भी आचार्य द्वारा स्पष्ट किया ही गया है।

इसकी पुष्टि इन सुप्रसिद्ध मंत्रों से भी होती है :

द्वा सुवर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।६।।

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।।

जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः।।७।।

(श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय ४)

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य इमं मध्वदं वेद आत्मानम् जीवम्-अन्तिकात्। ईशानं भूतभव्यस्य न ततः विजुगुप्सते।। एतत् वै तत्।।

जो इस सुख-दुःख-रूपी कर्मफल का भोग करनेवाले जीवात्मा को ही विज्ञानात्मा के रूप में अपने भीतर विद्यमान, भूत और भव्य परमात्मा की तरह जानता है, वह फिर भी से रहित होकर राग-द्वेष से रहित होकर, शोक से भी रहित हो जाता है। 

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June 25, 2022

महान विभु विज्ञानात्मा

कठोपनिषद्, अध्याय २,

वल्ली १,

विज्ञानात्मा का महत्व

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स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति।। 

महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।।४।।

स्वप्नान्तं जागरितान्तं च उभौ येन अनुपश्यति। महान्तं विभुं-आत्मानं मत्वा धीरः न शोचति।।

जिस महान विभु विज्ञानात्मा के माध्यम से स्वप्न और जागृत दशा में मनुष्य अलग अलग समय पर भिन्न भिन्न पदार्थों को देखता है, उसे अपने भीतर विद्यमान जान लेने पर धीर अर्थात् विवेकशील मनुष्य फिर कभी शोक नहीं करता।

क्योंकि समस्त दृश्य पदार्थों की अनित्यता की पृष्ठभूमि में वह इस विज्ञानात्मा को ही आधारभूत नित्यता की तरह जानता है। 

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June 24, 2022

।। एतद्वै तत् ।।

तत् पद का वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ

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कठोपनिषद्  - अध्याय २, वल्ली १,

येन रूपं रसं गन्धं शब्दान्स्पर्शांश्च मैथुनान्।। 

एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते। एतद्वै तत्।।३।।

येन रूपं रसं गन्धं शब्दान् स्पर्शान् च मैथुनान्। एतेन एव विजानाति किं अत्र परिशिष्यते।।

यह आत्मा विज्ञानमय होने से जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति की दशाओं में भी इसका विज्ञान अर्थात् जानना मात्र अखंडित ही रहता है। इसी विज्ञान-कला के माध्यम से आत्मा इन तीनों ही दशाओं में विविध और भिन्न भिन्न इन्द्रियानुभवों को जानता है। इन्द्रियों के अर्थात् ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव, और अनुभव का ज्ञान, इस विज्ञानात्मा को ही होता है, न कि अहंकार, मन, बुद्धि, या चित्त को, फिर स्थूल कर्मेन्द्रियों को होना तो असंभव ही है। रूप (दृष्टि), रस (जिह्वा), गन्ध (नासा), शब्द (ध्वनि / कान), स्पर्श (त्वचा), मैथुन (प्रजनन) आदि के संवेदनों को इसी विज्ञानात्मा के माध्यम से जाना जाता है। इस विज्ञानात्मा के न होने पर क्या शेष रह जाता है? तात्पर्य यह कि यही आत्मा का सर्वज्ञता का लक्षण है, जो नित्य, शाश्वत और सनातन है। 

यही (एतत् वै) तत् (वह) है। (जिसके बारे में नचिकेता जानना चाहता था।)

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June 23, 2022

पाषाणकाल / Stone-Age.

क्या समय पीछे लौटता है? 

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मानवता : प्रगति, उन्नति और विकास

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हम कितनी जल्दी शब्दों से प्रभावित हो जाते हैं! 

उपरोक्त प्रश्न पूछे जाते ही, थोड़ा सा भी बुद्धिमान व्यक्ति तुरंत ही कहने लगेगा :

"क्या समय कभी पीछे लौट भी सकता है? यह तो असंभव है, समय तो हमेशा आगे ही आगे जाता है, मतलब, भविष्य की दिशा में ही। समय भला पीछे कैसे लौट सकता है?"

और, यह भविष्य क्या है? जिसे भविष्य कहा जाता है, क्या वह सदा अज्ञात ही नहीं हुआ करता है? क्या भविष्य कल्पना में ही नहीं हुआ करता? भविष्य के रूप में जिसकी कल्पना की जाती है, वह अनुभवगम्य भविष्य होता है या बस केवल एक विचार, -अर्थात् भविष्य का विचार होता है?

सवाल यह भी है : किसका भविष्य?

आप किसी खगोलीय पिंड का या ज़मीन पर पड़ी किसी चट्टान का भविष्य जानने, तय करने या बदलने का भी दावा कर सकते हैं, कि आप उसके संबंध में क्या करने जा रहे हैं। और इस दृष्टि से यह भी मान लिया जा सकता है, कि तमाम भौतिक वस्तुओं का भविष्य जान पाना (और उसे बदल पाना) संभव है। क्योंकि आपका विचार भी सतत बदलता रहता है।

किन्तु हमारे अपने या हम जैसे किसी और मनुष्य के भविष्य के बारे में क्या ऐसा कोई दावा किया भी जा सकता है? जैसा कि कहा गया, भविष्य हमेशा अज्ञात ही रहता है, चाहे हम कल्पना में उसे कितना भी खींच तान कर वर्तमान में लाने का यत्न क्यों न करें। और मनुष्य या व्यक्ति विशेष से हमारा क्या मतलब हो सकता है? किसी भी दृष्टि से किसी भविष्य का अनुमान लगाना इसलिए भी असंभव है, क्योंकि भविष्य का अनुमान कितने ही सन्दर्भों में किया जा सकता है। भविष्य को पुनः बचपन, शिक्षा, जवानी, शिक्षा, बुढ़ापा, स्वास्थ्य, मृत्यु जैसी प्रत्यक्ष घटनाओं, या प्रेम, विवाह, सन्तान, संबंध, समाज, परिवार, भाषा, संस्कृति, सफलताओं या विफलताओं, चिन्ताओं, संभावनाओं, खुशियों, दुःखों, उद्विग्नताओं, आशाओं-आशंकाओं जैसी काल्पनिक या अमूर्त घटनाओं की तरह भी तो सोचा जा सकता है।

जहाँ तक सुविधाओं और असुविधाओं का प्रश्न है, तथाकथित भौतिक समृद्धि और संपत्ति आदि साधनों को प्राप्त कर लेने को ही विकास माना जाता है। अर्थात आपके स्वामित्व, क्षमताओं और उपभोग करने की शक्ति में वृद्धि होने को ही उन्नति और संपन्नता समझा जाता है।

दूसरी ओर, किसी रोमांचक दुनिया के अनुभवों को प्राप्त करने को भी इसी तरह उन्नति का द्योतक समझा जाता है। और केवल भौतिक ही नहीं, किसी तथाकथित या वास्तविक, काल्पनिक या आध्यात्मिक अनुभूति से तो हम इसी प्रकार और भी अधिक अभिभूत हो उठते हैं!

युद्ध के सामूहिक महाविनाश के भयानक अस्त्रों शस्त्रों आदि के निर्माण और प्रदर्शन में भी एक अनिर्वचनीय जोश हममें पैदा हो जाया करता है। और प्रायः सभी देश किन्हीं न किन्हीं शत्रुओं से अपने अस्तित्व, स्वतंत्रता, सार्वभौम सत्ता, की रक्षा का तर्क देकर इस दिशा में डटे रहते हैं। उनका आग्रह होता है कि यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी संस्कृति, सभ्यता, अस्मिता पर संकट खड़ा हो जाएगा।

क्या यह मनुष्य की सामूहिक / वैश्विक मूर्खता ही नहीं है?

यही तर्क औद्योगिक, यांत्रिक, तकनीकी, आर्थिक और खेलों, कला-कौशल आदि तथा मनोरंजन के अनगिनत प्रकारों के नए नए आविष्कारों के क्षेत्र में प्रीति या उन्नति के पक्ष में भी दिया जा सकता है। मनुष्य के स्वास्थ्य, नीरोगता की चिन्ताओं, अमर होने की महत्वाकांक्षाओं के औचित्य को भी सिद्ध करने के लिए दिया जा सकता है। किन्तु मृत्यु को पराजित कर भी दिया जाए तो भी मनुष्य अवश्य ही कभी न कभी इस सब के प्रयोजन और सार्थकता पर प्रश्न करेगा ही। लंबे समय तक जीते रहने और सुखों का अमर्यादित उपभोग करते रहना वैसे भी संभव ही नहीं है, और यदि संभव हो भी तो भी क्या इससे मनुष्य और अधिक संवेदनशील होगा, या उसमें पाशविकता ही और  भी बढ़ेगी? क्या इससे हम अधिक सभ्य संवेदनशील, प्रेमपूर्ण, उत्कृष्ट और सुसंस्कृत हो सकेंगे, क्या इससे हममें विद्यमान भय, घृणा, क्रोध, लोभ, आदि की भावनाएँ, और ऐसे पाशविक संवेग समाप्त हो जाएँगे?

क्या यही विकास, उन्नति या प्रगति का मापदंड है? 

जब तक हममें सहज स्वतःस्फूर्त प्रेम, निश्छलता, स्वाभाविक शान्ति नहीं जागृत होते हैं, और हम पशुओं जैसा, या उनसे भी अधिक निकृष्ट जीवन जी रहे होते हैं, तो क्या हम पाषाणकाल में ही नहीं जी रहे होते हैं! यह तथ्य भी पुनः व्यक्ति, समूह या समाज या संपूर्ण मानव जाति के सन्दर्भ में भिन्न भिन्न प्रकार से देखा जा सकता है। 

ऐसे पाषाण-युग के समय में जीते हुए क्या हम समय में पीछे की ओर ही नहीं लौट रहे होते हैं?

क्या इसे ही समय का पीछे लौटना नहीं कहा जा सकता? 

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June 21, 2022

मृत्यु और अमरता

कामनाओं का जाल

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पराचः कामाननुयन्ति बाला-

स्ते मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम्।।

अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा

ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते।।२।।

पराचः कामान् अनुनयन्ति बालाः ते मृत्योः यन्ति विततस्य पाशम्। अथ धीराः अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवं अध्रुवेषु इह न प्रार्थयन्ते।। 

अध्याय १, वल्ली ३ में यमराज और नचिकेता का संवाद संपन्न हो गया था। इसका संकेत अंतिम मंत्र में "तदानन्त्याय कल्पते" की द्विरुक्ति से इस प्रकार से दिया गया है :

य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद्ब्रह्मसंसदि ।।

प्रयतः श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते।।

तदानन्त्याय कल्पत इति।।१७।।

अब मृत्यु के पाश से मुक्त होकर अमृत-तत्व की प्राप्ति करने के इच्छुक ब्रह्मजिज्ञासुओं और सांसारिक कामनाओं की लालसा से ग्रस्त अल्पबुद्धि मनुष्यों के भेद को स्पष्ट करते हुए यह कहा जाता है कि कामनाओं से लालायित ऐसे अपरिपक्व बुद्धिवाले मनुष्य तो मृत्यु के सर्वत्र फैले हुए जाल में फँस जाते हैं इसलिए  मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, किन्तु परिपक्व बुद्धियुक्त, विवेकवान् धीर उस नित्य अमृत-तत्त्व को अनित्य और नाशवान पदार्थों में पाने की इच्छा न करते हुए अमृत-स्वरूप परमात्मा के तत्त्व को ही प्राप्त करते हैं, क्योंकि वे तो पहले ही से उस अमृतत्वस्य को स्वरूपतः जान चुके होते हैं।

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June 20, 2022

अमृतत्वमिच्छन्

कठोपनिषद्

अध्याय २

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प्रथमा वल्ली 

कठोपनिषद् में दो अध्याय हैं, 

प्रत्येक अध्याय में ३ वल्ली हैं।

पहला अध्याय रोचक है और दूसरे अध्याय के लिए भूमिका का कार्य भी करता है। इस कथा को पौराणिक, प्रतीकात्मक अथवा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी समझा जा सकता है, और उपनिषद् के रूप में इसे आध्यात्मिक शिक्षा के रूप में भी ग्रहण किया जा सकता है। यमराज स्वयं यमलोक के अधिष्ठाता देवता हैं, और वे ही देवता की तरह मृत्यु तथा जीवन के विधाता भी हैं। 

पातञ्जल योग-सूत्र में वर्णित पाँच सार्वभौम महाव्रत सम्मिलित रूप से यम कहे जाते हैं और योग के अनुष्ठान के आठ अङ्गों में यम को प्रथम स्थान प्राप्त है। आशय यह कि यम का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। पुनः यम के इन पाँच महाव्रतों को क्रमशः अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह की तरह से भी जाना जाता है। इनमें से प्रत्येक ही अत्यन्त कठिन है और जैसा गीता अध्याय ७ में कहा गया है  :

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

समस्त भूत जन्म ही से इच्छा-द्वेष रूपी द्वन्द्व-बुद्धि से मोहित हो अत्यन्त मूढता से युक्त होते हैं। क्योंकि इच्छा और द्वेष दोनों ही सुख प्राप्त करने की लालसा तथा दुःख प्राप्त होने के भय की आशंका से ही उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से प्राणिमात्र का ध्यान सदैव बाह्य जगत् से बँधा रहता है। बाह्य जगत् को ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से जाननेवाला स्वयं "मैं", जगत् को और ज्ञानेन्द्रियों को भी जानता है। जगत् एक या अनेक, या एक और अनेक से भी विलक्षण और अज्ञात है, जबकि ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं, जो पाँच प्रकारों से जगत् का संवेदन करती हैं। नेत्र देखने का कार्य करते हैं, कान सुनने का, जिह्वा स्वाद चखने का, त्वचा स्पर्श का और नासा गंध ग्रहण करने का। ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जगत् के बारे में अलग अलग निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं। जगत् की किसी एक भी वस्तु के बारे में यही होता है, तो पूरे जगत् की सच्चाई के बारे में क्या कहा जा सकता है!

किन्तु इन्द्रियों के विषयों को मन ही जानता है। मन को बुद्धि, और बुद्धि को बुद्धि का स्वामी अर्थात् "मैं", जो अपने आपको बुद्धि का स्वामी, "मैं" कहता है। क्या यह जाननेवाला बुद्धि से भी पहले से विद्यमान नहीं होता?

एक बार काल और बुद्धि के बीच विवाद हुआ। 

बुद्धि ने कहा : "तुम मेरी सन्तान हो।"

काल ने कहा : "नहीं! तुम मेरी सन्तान हो!"

दोनों भगवान् शिव के पास न्याय के लिए जा पहुँचे।

भगवान् शिव तो काल और बुद्धि से परे, नित्य, सनातन, शाश्वत और अनादि और अनन्त हैं। 

उन्होंने कहा :

"तुम दोनों मेरी ही कल्पना हो। जब मैं जागता हूँ, तो तुम दोनों एक ही साथ व्यक्त हो उठते हो, और जब मैं समाधिस्थ होता हूँ, तो मुझमें ही तुम दोनों का विलय हो जाता है।"

इस प्रकार बुद्धि और काल का अपने आपके स्वयं-भू होने का भ्रम दूर हो गया ।

ऐसा ही एक भ्रम मनुष्य में भी अपने आपके विषय में होता है, - इसे ही अहंकार कहा जाता है। इसके व्यक्त होते ही यह शरीर, मन, बुद्धि, चित्त आदि के रूप में भी व्यक्त रूप ग्रहण करता है। और तब जगत् से अपनी भिन्नता की कल्पना कर स्वयं को "मैं" कहता है।

पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभू-

स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्।।

कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष-

दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।१।।

पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूः तस्मात् पराङ् पश्यति न अन्तर्-आत्मन्। कश्चित् धीरः प्रत्यगात्मानं ऐक्षत् आवृत्त-चक्षुः अमृतत्वं इच्छन्।।

इस प्रकार व्यक्ति-विशेष में उत्पन्न होनेवाले इस स्वयंभू अहंकार में स्वयं के स्वतंत्र होने का भ्रम उत्पन्न हो जाता है, जो पुनः मन, चित्त एवं बुद्धि का अवलंबन लेकर किसी सतत अस्तित्व-मान वस्तु की तरह प्रतीत होता है। आश्चर्य और विडम्बना यह है कि यह अपने आपको भी अपना ही स्वामी मान लेता है और स्वयं को "मैं-मेरा" की तरह से दो में विभाजित कर लेता है। जैसे कभी तो यह शरीर को "मैं" कहता है, तो कभी  शरीर को "मेरा शरीर" भी कहता है। ऐसा ही व्यवहार यह मन, बुद्धि, चित्त तथा प्राणों साथ भी करता है। अहंकार ही इन्द्रियों को बहिर्मुख कर ध्यान को इतस्ततः बिखेर देता है। 

किन्तु कोई धैर्यवान पुरुष ही अपने इस ध्यान को बाह्य जगत् से लौटकर अपने अन्य में स्थित प्रत्यगात्मा पर लगाकर उसे जानने की इच्छा करता है, जो कि मृत्यु से रहित अमरता रूपी सत्य है। 

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इसे ही सद्दर्शनम् में कुछ इस प्रकार से कहा गया है :

धिये प्रकाशं परमो वितीर्य

स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः।।

धियं परावर्त्य धियोऽन्तरेऽत्र

संयोजनान्नैश्वरदृष्टिरन्या।।

परमात्मा बुद्धि में प्रकाशित होता हुआ भी, और बुद्धि को प्रेरित करता हुआ भी स्वयं बुद्धि के लिए अप्रकट ही रहता है। इसलिए बाह्य विषयों में संलग्न बुद्धि को उन उन विषयों से हटाकर पुनः पुनः अपने ही अन्तर्हृदय में विद्यमान परमात्मा पर लाना ही ईश्वर के दर्शन का उपाय है। 

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June 19, 2022

ज्ञात की परिसीमा

उम्र के पड़ाव

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चिड़िया का घोंसला 

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23 फरवरी 2022, रात्रि से 3 मार्च 2022 की सुबह तक बाहर था। अचानक ही जाना पड़ा। पता नहीं था कि लौटना भी होगा या नहीं। फिर लौट आया। पता नहीं, कब तक यहाँ और यहाँ के बाद कहाँ रहना है! 

23 फरवरी से कुछ समय पहले बालकनी में कार्डबोर्ड का एक पुराना बॉक्स सीलिंग फैन के लिए लगाए गए हुक में टांग दिया था। जब लौटकर आया, तो जैसी कि उम्मीद थी, गौरैया के एक कपल ने उसमें घोंसला बना लिया था। दो तीन बच्चे उसमें थे। दोनों पैरेन्ट्स (अभिभावक) दिन भर उनके लिए चारा खोजकर लाते रहते थे । दो तीन हफ़्तों में उनके पंख आ गये और वे सब बारी बारी से घोंसला छोड़कर चले गये। 

मैंने सावधानी से उस घोंसले को उतारकर देखा, उसमें अंडे या बच्चे नहीं थे।  फिर मैंने उसे कूड़ेदानी में फेंक दिया ।

इस घर का भू-तल मकान-मालिक के पास है। बाहर बरामदे में से मेरे तल पर आती सीढ़ियों के नीचे बहुत सा पुराना या कभी कभी काम में आनेवाला छोटा-बड़ा सामान रखा जाता है। वहीं एक वॉशिंग मशीन है जिस पर रखे पुराने जूतों में से एक में एक ऐसी ही चिड़िया ने तिनके जमा कर अंडे दे दिए थे। बीच बीच में कोई न कोई वहाँ से आता जाता भी था। पिछले हफ़्ते उनमें से दो चूज़े निकल आए। मैं वहाँ जाता तो चिड़िया उड़कर कहीं चली जाती थी। जब मैंने उन चूज़ों का स्नैप लेना चाहा तो देखा कि उनकी आँखें अभी, खुली भी नहीं थीं और किसी भी आहट पर वे अपनी चोंच खोल देते थे। चारे की उम्मीद और प्रतीक्षा में। दो-चार दिन पहले जब मैं उधर से गुजरा, तो वे शान्तिपूर्वक मुझे देखते रहे। आज कल में वे भी उड़ जाएँगे। 

वे भविष्य का अनुमान नहीं करते। कर भी नहीं सकते। असुरक्षा की कल्पना या सुरक्षा का विचार भी तात्कालिक ही होता होगा। 

मैं एक विचारशील मनुष्य जिसे उनसे अपने आपके श्रेष्ठ और शक्तिशाली होने का भ्रम है, भविष्य की चिन्ता और कल्पना की व्यर्थता को नहीं देख पाता। मैं यह भी नहीं देख पाता, कि मेरा क्या भविष्य है, यद्यपि कुछ बातों को जानता हूँ जिन्हें मैं अटल सत्य की तरह स्वीकार करता हूँ। और फिर भी कुछ निश्चित तौर पर नहीं कह सकता। मुझे नहीं पता कि मुझसे अधिक बुद्धिमान वे हैं, या मैं उनसे अधिक, मुझसे अधिक सुखी वे हैं, या मैं उनसे अधिक। मेरा सारा जीवन ज्ञात की परिसीमा, ज्ञात के दायरे में  केन्द्रित है। मुझे उनसे ईर्ष्या होने लगती है, और अपने आपकी असहायता पर तरस आने लगता है।

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June 17, 2022

अनाद्यन्तं महतः परं ध्रुवम्।।

तदनन्त्याय कल्पते इति।। 

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यमराज नचिकेता से कहते हैं कि तुम्हारा यह जो अभीष्ट वर है, अर्थात् इस जिज्ञासा का समाधान कि मृत्यु हो जाने के अनन्तर मनुष्य किस गति को प्राप्त होता है, उस प्रश्न के उत्तर को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि तुम :

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।१४।।

उठ खड़े होओ, जागो और इस वरदान (उपदेश) के माध्यम से उस तत्व का दर्शन करो जो कि मृत्यु के परे का सत्य है। 

अवश्य ही यह पथ तलवार की तीक्ष्ण धार की तरह जैसा दुष्कर और कठोर है, जिस पर चल सकना अत्यन्त ही कठिन है, तत्व-दर्शी कवि कहते हैं। उस तत्व का वर्णन करना भी लगभग इसी तरह कठिन है, किन्तु यमराज यह दायित्व उठाते हुए नचिकेता से कहते हैं :

अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं

तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत्।।

अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं

निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते।।१५।।

अशब्दं अस्पर्शं अरूपं अव्ययं तथा अ-रसं नित्यं अगन्धवत् च यत्। अनादि अनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तत् मृत्यु-मुखात् प्रमुच्यते।। 

वह तत्व, जिसका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता, जिसे स्पर्श से भी नहीं जाना जा सकता, और जिसके रूप आकृति आदि को नेत्रों से नहीं देखा जा सकता, जो अविनाशी है, तथा इसी प्रकार सर्वथा विरस (रसवर्जं) है जो नित्य अर्थात् जिसका अस्तित्व सदा है, जो इसी प्रकार गन्धरहित है -- संक्षेप में,  जो इन्द्रियगम्य नहीं है, जो आदि और अन्त से रहित है, उस महान् परम श्रेयस्कर को जानकर, उसका वरण कर, मनुष्य मृत्यु-मुख में जाने से बच जाता है। 

रसवर्जं --

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।। 

रसोऽपि रसवर्जं तं परं दृष्ट्वा निवर्तते।।५९।।

(गीता, अध्याय २)

अरसं --

साधु चरित सुभ चरित कपासू।।

निरस बिसद गुनमय फल जासू।।

इस प्रकार यमराज नचिकेता के लिए उस तत्त्व का वर्णन करते हैं, जिसके लिए उसकी तीव्र उत्कंठा है। 

ग्रन्थ-प्रशंसा

इस ग्रन्थ का महत्व बतलाते हुए उपनिषद् में अगले दो श्लोकों में कहा जाता है :

नाचिकेतमुपाख्यानं मृत्युप्रोक्तं सनातनम्।। 

उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते।।१६।।

नाचिकेतं उपाख्यानं मृत्यु-प्रोक्तं सनातनम्। उक्त्वा श्रुत्वा च मेधावी ब्रह्मलोके महीयते।। 

यमराज के द्वारा नचिकेता से कहे गए इस उपदेशरूपी सनातन  आख्यान को कहने और सुननेवाला मेधावी मुमुक्षु ब्रह्मलोक को प्राप्त कर महिमान्वित होता है। 

य इमं परमं गुह्यं श्रावयेद् ब्रह्मसंसदि।।

प्रयतः श्राद्धकाले वा तदानन्त्याय कल्पते।।

तदानन्त्याय कल्पत इति।।१७।।

य इमं परमं गुह्यं श्रावयेत् ब्रह्मसंसदि। प्रयतः श्राद्धकाले वा तत् अनन्त्याय कल्पते।। तत् अनन्त्याय कल्पते।। 

जो मनुष्य इस परम गुह्य शास्त्र का ब्रह्मजिज्ञासुओं या ब्रह्मविदों की सभा में, अथवा श्राद्ध आदि के अनुष्ठान के काल में वाचन करता है, वह उस ब्रह्म और उसके लोक को प्राप्त होता है।।

"तत् अनन्त्याय कल्पते" का दो बार प्रयोग प्रकरण की समाप्ति का सूचक है।। 

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June 13, 2022

विवेकधर्म / Conscience.

साँस्कृतिक शून्य के समय में,

(In the Times of Cultural Vacuum).

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यह पोस्ट दिनांक 02 जून 2022 को लिखे पोस्ट :

साँस्कृतिक परिक्षरण / परिरक्षण

के क्रम में लिखा जा रहा है। अतः निवेदन है कि उस पोस्ट का अवलोकन, और उस परिप्रेक्ष्य में यहाँ व्यक्त विचारों को देखना शायद सहायक होगा।

समाज का सामूहिक चरित्र इस परिरक्षण / परिक्षरण का प्रत्यक्ष उदाहरण है। 'समाज' कहते ही कल्पना में मनुष्यों का कोई न कोई समूह आ खड़ा होता है जिसका एक साँस्कृतिक चेहरा भी किसी हद तक दिखाई देता है। इस चेहरे को न तो किसी धर्म-विशेष के मूल्यों,  आचरण, भाषा, आदर्शों, आजीविका, रहन-सहन, मनोरंजन के तौर तरीकों के आधार पर पहचाना जा सकता है, और न इसका कोई स्थायी रूप हो सकता है। क्योंकि साँस्कृतिक विविधताएँ ही इसका मूल चरित्र है। युद्ध और परंपरा इन विविध संस्कृतियों के दो अनिवार्य और प्रमुख तत्व हैं। और अगर एक ही शब्द में कहें तो इसे 'इतिहास' कहा जा सकता है। किसी भी परंपरा का कोई इतिहास होता है, किन्तु पूरे मनुष्य समाज का ऐसा कोई इतिहास तय करना शायद और लगभग असंभव सा एक कार्य है। कितनी ही परंपराएँ बनती, बदलती और समाप्त होती रहती हैं, और किसी छोटे या अपेक्षतया बड़े ऐतिहासिक काल-खण्ड के सन्दर्भ में हम किसी समूह-विशेष की जीवन-शैली, संस्कृति आदि को 'सभ्यता' कहते हैं। सभ्यता और संस्कृति इस प्रकार से समानार्थी तत्व हैं।

ऐतिहासिक दृष्टि से ही, ऐसी सभी विभिन्न संस्कृतियाँ-सभ्यताएँ किन्हीं भिन्न भिन्न सुनिश्चित और सुस्थापित मूल्यों और आदर्शों से प्रेरित और विकसित हुईं थी। यह था उस-उस समाज, समूह,  सभ्यता, संस्कृति आदि का अपना अपना आधारभूत तत्व। इसे राष्ट्रीय या लोक-संस्कृति भी कहा जा सकता है, और इस दृष्टि से पूरी पृथ्वी पर किसी भी समय अनेक और भिन्न भिन्न समूहों की अपनी अपनी ऐसी कोई विशिष्ट संस्कृति रही है। 

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, युद्ध और परंपरा इन विविध संस्कृतियों के दो अनिवार्य और प्रमुख तत्व हैं। 

वर्तमान समय में, जबकि बौद्धिक और भौतिक उपभोग-केन्द्रित विकास को ही सर्वाधिक महत्व दिया जाता है, जहाँ जानकारी या (information) को ही सबसे अधिक विश्वसनीय माना जाता है, बौद्धिक संपदा के अधिकार की अवधारणा I.P.R या (Intellectual Property Rights) की अवधारणा बहुत शक्तिशाली, महत्वपूर्ण है, इस तथ्य की जाने-अनजाने ही उपेक्षा कर दी जाती है कि बुद्धि किसी भी आदर्श, मूल्य, नीति आदि से बंधी नहीं होती। इस बौद्धिक और भौतिक उपभोग-केन्द्रित में वैज्ञानिकता की भी सर्वाधिक प्रभावशाली भूमिका है यह तो मानना ही होगा। इस वर्तमान बुद्धि, वैज्ञानिकता तथा उपभोग-केन्द्रित वैश्विक सभ्यता / संस्कृति में जो चौथा तत्व प्रमुख रूप से उभर आया है, वह है असीम, अंतहीन, मनोरंजन जो हमारी साझा वैश्विक सभ्यता और संस्कृति बन चुका है। इसमें अवश्य ही मानवतावाद के स्वर भी मुखर हैं किन्तु मानवतावाद भी एक शब्द ही तो है, बुद्धि, वैज्ञानिकता, तथा उपभोग और मनोरंजन जैसा प्रत्यक्ष यथार्थ तो नहीं! और जैसा कि पहले कहा जा चुका है, युद्ध और परंपरा तो विविध सभ्यताओं और संस्कृतियों के दो अनिवार्य और प्रमुख तत्व होते हैं, जिसे पुनः एक शब्द में कहा जाए, तो राजनीति भी कह सकते हैं, हमारे समय के सामूहिक चरित्र की प्रमुख और एकमात्र प्रेरणा है। राजनीति मनुष्यमात्र में विद्यमान, उसकी बुद्धि में अन्तर्निहित वह अन्तर्द्वन्द और दुविधा है जो समूह के चरित्र में प्रकट होते ही उस साँस्कृतिक शून्य का रूप ले लेती है, जो हमारे आज के समय की सबसे बड़ी और प्रकट, प्रत्यक्ष पहचान है।

मनुष्यमात्र में विद्यमान इस जन्मजात तत्व को श्रीमद्भगवद्गीता के इस श्लोक में इस प्रकार से व्यक्त किया गया है :

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत।। 

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

(अध्याय ७)

युद्ध और परंपरा इसी तत्व का विस्तार और विकास है। यही हमारा साँस्कृतिक शून्य है। 

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June 07, 2022

आत्मानुसन्धान

सूक्ष्मदर्शी जिज्ञासु और तत्ववेत्ता

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मेरे अन्य ब्लॉग prashastasamagra में पिछले दो दिनों में मैंने "चतुःश्लोकी भागवतम्" पोस्ट किया।

अत्यन्त संक्षिप्त "चतुःश्लोकी भागवतम्"  स्तोत्र में श्रीभगवान् द्वारा ब्रह्माजी को आत्मा अर्थात् परमात्मा के तत्व का, एवं उस तत्त्व के साक्षात्कार का, अर्थात् आत्मानुसन्धान करने का क्या तरीका है, -इसका उपदेश दिया गया है। आत्मानुसन्धान की प्रक्रिया वैसे तो दुरूह जान पड़ती है, किन्तु जो मनुष्य ज्ञान-अज्ञान से ऊपर उठकर विवेक अर्थात् विज्ञान का आश्रय लेता है, उसे अनायास ही वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है, क्योंकि वैराग्य नित्य-अनित्य के अभ्यास का स्वाभाविक परिणाम ही है। ऐसे ही विवेक और उससे फलित वैराग्य से युक्त किसी जिज्ञासु को ही "अन्वय-व्यतिरेक" के अभ्यास का निर्देश दिया जाता है, और आत्मा या परमात्मा यद्यपि दुर्दर्श है, फिर भी इस उपाय से पात्र के लिए अवश्य ही प्राप्य है। पात्र वह है, जिसने इससे पूर्व नित्य-अनित्य का चिन्तन दीर्घकाल तक एकाग्र चित्त से किया होता है।

आत्मा चूँकि अपने आप से भिन्न वस्तु नहीं है, और 'स्व' अर्थात् अहंकार अपना व्यक्तिगत और स्वतंत्र अस्तित्व होने की कल्पना मात्र, इसीलिए आत्म-साक्षात्कार बहुत कठिन प्रतीत होता है। यह कल्पना भी चूँकि बुद्धि (विज्ञानमय-कोष) में ही उठती है, इसलिए इस कल्पना का लय होते ही प्रत्येक मनुष्य को अपनी आत्मा का परोक्ष अनुभव हो जाता है, जो कि उसकी स्मृति में संचित होकर व्यक्तिगत 'स्व' का रूप ले लेता है। लय और विनाश, यही दोनों इस अहंकार के मिटने के प्रकार हैं, लय में अहंकार से निवृत्ति अस्थायी रूप से होती है, जबकि विनाश में अहंकार की मृत्यु ही हो जाती है :

चित्तवायवश्चित्क्रियायुता।।

शाखयोर्द्वयी शक्तिमूलका।।१२।।

लयविनाशने उभयरोधने।।

लयगतं पुनर्भवति नो मृतम्।।१३।।

(श्रीरमण महर्षि कृत उपदेश-सार)

यमराज कहते हैं :

एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते।। 

दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।१२।।

एषः सर्वेषु भूतेषु गूढः आत्मा न प्रकाशते। दृश्यते तु-अग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः।।

यह गूढ आत्मा किसी को भी प्रत्यक्षतः तो नहीं दिखलाई देती, किन्तु यदि शुद्ध और सूक्ष्म बुद्धि से इसे जानने का यत्न किया जाए, तो सूक्ष्मदृष्टि से युक्त मनुष्यों द्वारा इसे अवश्य देख लिया जाता है।

इसे और भी स्पष्ट करते हुए वे नचिकेता से कहते हैं :

यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि।। 

ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि।।१३।।

यच्छेत् वाङ्-मनसी प्राज्ञः तत् यच्छेत् ज्ञानः आत्मनि। 

ज्ञानं आत्मनि महति नियच्छेत् तत् यच्छेत् शान्त आत्मनि।। 

(यहाँ मनसि का 'मनसी' प्रयोग छान्दस् है -- मनसीतिच्छान्दसं दैर्घ्यम् ... शाङ्करभाष्य)

प्राज्ञ अर्थात् आत्मा के जिज्ञासु को चाहिए, कि सबसे पहले वह वाणी का लय मन में करे, मन का लय ज्ञान में अर्थात् बुद्धिरूपी आत्मा में करे, फिर बुद्धिरूपी आत्मा का भी लय महत् आत्मा अर्थात् 'चित्' / चेतना / चैतन्य में और इसके अनन्तर उस 'चित्' का भी लय शान्त-आत्मा अर्थात् 'सत्' में करे।

यह प्रक्रिया अवश्य ही बहुत कठिन है किन्तु यही वह तरीका है जिसका उपदेश यमराज द्वारा उनके सर्वाधिक सुयोग्य और प्रिय शिष्य को दिया गया है। 

आगे वे उसका उत्साह-वर्धन करते हुए उससे कहते हैं :

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।।

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया ...

दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।१४।।

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया । दुर्गं पथः तत् कवयः वदन्ति।। 

हे नचिकेता! उठो, जागो! श्रेष्ठ पुरुषों के उद्बोधन से शिक्षा ग्रहण करो! (आत्मानुसन्धान का) यह पथ तलवार की धार पर चलने जैसा असि-धार व्रत की तरह ही अत्यन्त ही कठिन है। तत्वदर्शी ऐसा कहते हैं।

दुरत्यया :

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।। 

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।१४।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ७)

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June 06, 2022

ऐसे ही!

कविता / 06-06-2022

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ऐसे ही गुजर जाएँगे, हम भी किसी दिन,

जिस तरह से गुजर गए हैं लोग अनगिन! 

हमने किसको याद रखा, किसने हमको,

कौन किसको याद कर पाएगा हर दिन!

ऐसे ही गुजर जायेगा कारवाँ-ए-वक्त भी, 

बजेगी सन्नाटे की, खामोशी की धुन!

क्या पता, उसको सुनेगा भी या नहीं कोई,  

हम न सुन पाए सही, काश, सुन पाता, कोई!

सदा ही बजती रही है, जो क्षण क्षण में,

सदा ही है प्रतिध्वनित भी, कण कण में!

है निरंतर व्याप्त यद्यपि हृदय मन में,

पर क्यूँ अदृश्य लुप्त है जैसे जीवन में!

क्या उसे फिर खोज-सुन पाएँगे कभी! 

क्या यहाँ फिर लौट पाएँगे हम कभी?

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June 05, 2022

विवेक का फल

विवेकवान और अविवेकी का वर्णन करने के उपरांत यमराज नचिकेता से उनकी गति के बारे में कहते हैं :

विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान्नरः।।

सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्।।९।।

विज्ञान-सारथिः यः तु मनःप्रग्रहवान् नरः।। 

सो अध्वनः पारं आप्नोति तत् विष्णोः परमं पदम्।।  

जिस मनुष्य का बुद्धिरूपी सारथी, मन-रूपी वल्गा से (इन्द्रियों रूपी अश्वों को नियंत्रण में रखता हुआ) युक्त होता है, वह संसार (और जन्म-मृत्यु) से पार हो जाता है, और उस मार्ग को पा लेता है, जिससे भगवान् विष्णु के परम पद की प्राप्ति कर लेता है।

इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।।

मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः।।१०।।

इन्द्रियेभ्यः पराः हि अर्थाः अर्थेभ्यः च परं मनः।  मनसः तु परा बुद्धिः बुद्धेः आत्मा परं महान्।।

इन्द्रियों से भी विलक्षण और सूक्ष्म उनके विषय हैं, जो कि पञ्च महाभूत, सूक्ष्म भूत, तन्मात्र, और प्राण आदि हैं। उन भिन्न भिन्न सूक्ष्म विषयों से भी विलक्षण और उच्चतर, महान होता है - मन, क्योंकि समस्त विषय जड होते हैं, जबकि मन उनकी तुलना में चेतन होता है। और चूँकि मन को भी बुद्धि से ही जाना जाता है, अतः बुद्धि तो मन से भी विलक्षण और महान है। और बुद्धि के स्वामी (आत्मा) के ही चेतन-प्रकाश से आलोकित होने पर ही बुद्धि का सारा कार्य हो सकता है, अतः आत्मा तो बुद्धि से भी अधिक बलवान् और महान है। तात्पर्य यह कि बुद्धि 'मेरी है', कहनेवाला उसका स्वामी, आत्मा उससे भी बढ़कर महान है।

महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः।।

पुरुषान्न परं किञ्चित्सा काष्ठा सा परा गतिः।।११।।

महतः परं अव्यक्तं अव्यक्तात् पुरुषः परम्। पुरुषात् न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः।।  

महत् के प्रसंग विशेष के अनुसार अनेक भिन्न भिन्न अर्थ होते हैं, जैसे कि प्रकृति, बुद्धि, लोक, अव्यक्त, काल, -आदि।

आत्मा तो सर्वाधिक महान है, किन्तु आत्मा को पुनः 'अहंकार' या 'अहं' के रूप में भी जाना जा सकता है। 'अहं' रूपी आत्मा ही नित्य, शाश्वत, चिरंतन और सनातन है, जबकि अहंकार रूपी आत्मा अनित्य, किन्तु व्यावहारिक सत्य। अहंकार रूपी तत्व को ही भूत कहा जाता है, जो पुनः जड या चेतन, चर या अचर होता है। व्यावहारिक रूप से प्रतीयमान जगत् को व्यक्त कहा जाता है, जो सतत परिवर्तित होता रहता है। परिवर्तन के आधार पर काल को भी परिवर्तनशील मान लिया जाता है और काल के साथ साथ व्यक्त भी। काल का अस्तित्व काल्पनिक ही है, न कि किसी इन्द्रिय-बुद्धि ग्राह्य भौतिक वस्तु जैसा ठोस। निष्कर्ष और अनुमान पर आधारित इस काल को परिवर्तन के सन्दर्भ में चल तथा अपरिवर्तन के सन्दर्भ में अचल की तरह जाना जाता है। इस प्रकार काल, वर्तमान के अर्थ में नित्य है, किन्तु अतीत और भविष्य के सन्दर्भ में अनित्य।

इसी आधार पर :

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।। 

अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।२८।।

(गीता, अध्याय २)

में काल को और काल के सन्दर्भ में भूत-समष्टि को भी व्यक्त तथा अव्यक्त कहा जाता है।

काल को महत् भी कहा जाता है, जैसा कि गीता के अध्याय ४ में कहा गया है :

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।। 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।२।।

अतः महत् से भी महान अव्यक्त और अव्यक्त से भी महान है पुरुष अर्थात् 'चेतन'। प्रकृति और अव्यक्त, महत् होते हुए भी जड हैं जिनका प्रमाण वे स्वयं नहीं, बल्कि 'चेतन' पुरुष ही है, जबकि यह चेतन / पुरुष स्वयं ही स्वयं का प्रमाण है। इस चेतन पुरुष से महान और या अन्य कुछ नहीं है। इसे ही आत्मा, अहं, ब्रह्म आदि कहा जाता है। 

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June 02, 2022

सांस्कृतिक परिक्षरण

साँस्कृतिक परिरक्षण

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Terminology :

परिक्षरण : Decay, Degeneration, Deterioration, Destruction, 

(क्षरण, क्षय, ह्रास, क्षति, नाश), 

परिरक्षण : Protection, Safety, Security.

(सुरक्षा, संरक्षण, अभिवृद्धि),

सदाचार (Morality),

नैतिकता (Ethics)

धर्म (Conscience)

परंपरा / पंथ / पूजा-पद्धति (Religion)

शून्य  : (Vacuum)

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एक विकराल और भयावह सांस्कृतिक शून्य का संकट, हमारे इस समय का प्रकट और विकट यथार्थ है। और आश्चर्य किन्तु सत्य यह भी है कि हमें इसका आभास तक नहीं है। हमारे समय का ही क्यों? क्योंकि हमारी यह दुनिया जैसे जैसे छोटी होती जा रही है, वैसे वैसे धर्म / Conscience, नैतिकता / Ethics और सदाचार / Morality जैसे शब्दों का महत्व खोता चला जा रहा है। और अध्यात्म / Spirituality नामक वस्तु और अधिक दुर्लभ, दुरूह,  निरर्थक, अप्रासंगिक और अनावश्यक प्रतीत होने लगी है।

आधुनिक प्रगतिशीलता का एकमात्र प्रमाण है : सफलता। और जिस किसी भी प्रकार से आप सफल हो जाते हैं, (या होते हुए जान पड़ते हैं) उसी से आप और आपका जीवन धन्य हो जाता है! सफल होने के इस पराक्रम एवं उद्यम में सदाचार, नैतिकता, और धर्म की भूमिका महत्वहीन हो जाती है, और उन्हें भी इसी सफलता की कसौटी पर कसा और तय किया जाता है। 

हमारी तथाकथित इस संस्कृति की पहचान का क्या युक्तिसंगत कोई आधार है भी? 'साझा-संस्कृति' के बारे में भी हम प्रायः ही कहते-सुनते हैं, और शायद एक सामाजिक यथार्थ और आदर्श के रूप में भी इसे देखा-समझा और सामने रखा भी जा सकता है, ऐसा हमें लगता है। किन्तु प्रश्न यह है कि यह साझा-संस्कृति जिन घटकों / अवयवों आदि से मिलकर बन सकती है, ऐसे कोई समान तत्व क्या हमारे पास हैं भी या नहीं? संगीत, खेल, कला, उत्सव, आदि क्षेत्रों के रूप में तो संस्कृति की पहचान शायद की जा सकती है, किन्तु ये सभी क्षेत्र किसी न किसी समुदाय के सन्दर्भ में ही महत्वपूर्ण होते हैं। ऐसा ही एक तत्व और हो सकता है, और उसे राजनीति कह सकते हैं। जैसे कि  राजनीति की एक अपनी संस्कृति होती है, वैसे ही संस्कृति की भी अपनी एक राजनीति होती है। जैसे राजनीति एक संस्कृति होती है, वैसे ही राजनीति की भी एक संस्कृति हो सकती है। जैसे दलित राजनीति, धार्मिक भेदभाव, संप्रदायवाद और वर्ग-भेद तथा जाति के भेद के आधार पर मनुष्यों के बीच फूट डालने की राजनीति, जिसके लक्ष्य और वाच्य, लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ भिन्न भिन्न होते हैं, और निहितार्थ तो इससे भी ज्यादा गहन, गूढ और छद्म होते हैं। बड़े बड़े बुद्धिजीवी इस अवसर का लाभ अपने अपने विशिष्ट ध्येयों, उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करते हैं, और कभी उनके गुप्त इरादों  (objectives) का अनुमान तक नहीं लगाया जा सकता।

इस सब के बीच यह तो स्पष्ट ही है कि आज की परिस्थितियों में न तो सदाचार (Ethics), न नैतिकता (Morality), और न ही धर्म (Conscience) के समुदायगत रूप अर्थात् परंपरा या (Religion) के लिए हमारे पास कोई ऐसी सर्वसम्मत कसौटी है, जिसे व्यवहार में लाया जा सके। व्यवहार में यदि कुछ है, तो वह है राज्य के विधान (Law of the State / Land) के द्वारा तय किया गया आधार, और उसकी व्याख्या का तरीका, जो समय समय पर बदलता रहता है। 

किसी इस्लामी राष्ट्र में जैसे वह विधान ((Law), इस्लाम के ग्रन्थों से तय होता है, उसी तरह इसरायल में यहूदी ग्रन्थों से, साम्यवादी देशों में किसी अन्य आधार से। भारत जैसे हमारे इस धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र में, जहाँ धर्म और रिलीजन को समानार्थी माना गया है, धर्म (Conscience) को न तो कहीं परिभाषित किया गया है, न सदाचार (Ethics) को, और न ही इसी प्रकार से नैतिकता  (Morality) को, यह तय करना और भी कठिन है। फिर भी इन्हें भौतिकवादी विज्ञान और मानवीयता के आधार पर किसी हद तक तो अवश्य ही तय किया ही जा सकता है। किन्तु धर्म, सदाचार और नैतिकता के किसी सुनिश्चित मापदंड के अभाव में यह भी बहुत कठिन जान पड़ता है। 

इस प्रकार संस्कृति के लिए, जो कि मूलतः धर्म, सदाचार और नैतिकता की नींव पर ही खडी़ होती है, ऐसा कोई आधार ही कहाँ रह जाता है? इसे ही सांस्कृतिक शून्य कहा जा सकता है। हमारे पास संस्कृति के लिए कोई आधारभूत दर्शन है ही कहाँ?

जो तथाकथित साँस्कृतिक सामाजिक आधार है भी, वह केवल उन भौतिक शक्तियों से ही प्रेरित और निर्देशित होता है, जिन्हें कि हमारी आज की तथाकथित साझा संस्कृति (composite  culture) ने पैदा किया है।

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June 01, 2022

जीने की आपाधापी में!

 कविता : 01-06-2022

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