January 19, 2022

भारत की विदेश-नीति

श्रीलंका 

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तमाम प्रयासों के बाद अफ़गानिस्तान में तालिबान की सरकार बन ही गई । विश्व राजनीति में यूरोप हो, अमरीका या अरब देश, यहाँ तक कि कम्यूनिस्ट और चीन सभी भारत विरोधी दृष्टिकोण पर सहमत हैं। शायद इसरायल भी । भारत फिर भी तय नहीं कर पा रहा कि इसरायल-फ़िलस्तीन मामले में क्या किया जाना चाहिए ।

पाकिस्तान और चीन, यहाँ तक कि मालदीव, भूटान और नेपाल जैसे राष्ट्र भी भारत को ब्लैकमेल करते रहे हैं। चीन इस अवसर का नाजायज़ फायदा उठाने में पीछे नहीं है।

भारत अफ़गानिस्तान के लिए मानवीय सहायता के नाम पर गेहूँ भेज सकता है, तो श्रीलंका की सहायता के लिए क्यों नहीं आगे आता? वहाँ की अर्थव्यवस्था बरबादी की कगार पर है, ऐसे में क्या यह नहीं हो सकता कि भारत उसका पड़ोसी होने के नाते पहल करे और उसे इतनी मदद दे कि वह चीन के प्रभाव से हमेशा के लिए मुक्त होकर अपने पैरों पर खड़ा हो सके। शायद भविष्य में श्रीलंका का विलय भी भारतीय संघ में किया जा सकता है। इससे उसके सार्वभौम स्वतंत्र होने के स्वरूप पर वैसे ही कोई आँच तक नहीं आती, जैसे 1947 में जो राजे-रजवाडे भारतीय संघ में शामिल हुए थे, उनकी स्वतंत्रता पर आँच नहीं आई। यह चीन के जैसा विस्तारवाद तो कदापि नहीं है। श्रीलंका के भारत में विलय से तमिष़ ईलम् के प्रश्न के समाधान का रास्ता भी निकल आएगा। 

यह इसलिए भी अत्यन्त ज़रूरी है, ताकि नेपाल तथा भूटान जैसे राष्ट्र भी कहीं चीन के चंगुल में न आ जाएँ।

पता नहीं कि भारत सरकार की इस पूरे मामले में क्या दृष्टि और क्या भूमिका है!

तिब्बत और बांग्लादेश तो हम गँवा चुके हैं। तिब्बत और नेपाल, भूटान और श्रीलंका भी सांस्कृतिक, धार्मिक व भाषाई पृष्ठभूमि की दृष्टि से चीन की तुलना में, भारत के ही अधिक निकट और समान भी हैं, और यदि हम सोते ही रहे तो इससे हमारी जो क्षति होगी, वह ऐसी एक अपूरणीय क्षति होगी, जो कि भारत के लिए एक बहुत गहरा आघात ही सिद्ध होगा। 

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