विधवा-विवाह
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सुबह 8:00 बजे आकाशवाणी से हिन्दी समाचारों में आजकल भारत की आजादी के 75 वर्ष पूरे होने, आजादी का महोत्सव मनाए जाने, और स्वाधीनता-सेनानियों के बारे में बतलाया जा रहा है।
आज महादेव गोविन्द रानाडे तथा शरच्चन्द्र चट्टोपाध्याय के बारे में सुना। गोपालकृष्ण गोखले का भी उल्लेख किया गया जो कि श्री रानाडे से प्रभावित थे। श्री गोखले ही शायद महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु भी थे।
विधवा-विवाह और इस प्रकार नारी-उत्थान के कार्यों के समर्थन में इन महानुभावों का जो प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान रहा उस बारे में भी ज्ञात हुआ।
एक प्रश्न मन में उठा कि क्या वैदिक / आर्य धर्म, और परंपरा में विधवा के विवाह का निषेध है?
स्वामी दयानन्द सरस्वती के मतानुसार 'देवर' शब्द 'दूसरे पति' का पर्याय है, और किसी कारणवश पति की मृत्यु हो जाए, तो स्त्री अपने देवर से विवाह कर सकती है । यहाँ तक कि विवाह किए बिना भी, वंश को बनाए रखने के लिए 'नियोग' के माध्यम से देवर से संतान प्राप्त कर सकती है।
महाभारत की कथा में पाण्डवों-कौरवों के वंश का विस्तार इसी माध्यम से हुआ था। तात्पर्य यह कि वैदिक और आर्य धर्म तथा परंपरा में विवाह का विधान, प्रयोजन और औचित्य वर्ण / वंश की शुद्धता को ध्यान में रखकर किया गया है न कि कामोपभोग के उद्देश्य से । गीता में तो यहाँ तक भी कहा गया है कि धर्म से अविरुद्ध, अर्थात् धर्म के अनुकूल काम-व्यवहार भी ईश्वर का ही कार्य है :
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।।
धर्माविरुद्धेषु भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।११।।
(अध्याय ७)
यह तो स्पष्ट ही है कि प्रजा की सृष्टि के कार्य में काम का महत्व अपरिहार्यतः आवश्यक है।
और वाल्मीकि रामायण के सन्दर्भ में देखें, तो एक ओर, वानर-राज बालि के वध के बाद उसकी पत्नी तारा सुग्रीव की पत्नी हो गई, वहीं भगवान् श्रीराम द्वारा राक्षस-जातीय ब्राह्मण, रावण का वध किए जाने के बाद, रावण की पत्नी मंदोदरी यद्यपि सती हो जाना या मृत्यु को पाना चाहती थी, तो भी उसे ऐसा न करने के लिए ही प्रेरित किया गया। द्रौपदी यद्यपि अर्जुन की ही पत्नी थी, न कि पाँचों भाइयों की, किन्तु पर्यायतः उसे पाँचों भाइयों की पत्नी की तरह समझा जाने लगा। इन्द्र ने अहल्या का शीलभङ्ग किया, और इसलिए उसे पति गौतम के द्वारा शाप दिया गया।
फिर भी इन पाँच स्त्रियों के प्रातःस्मरण किए जाने को शुभ माना जाता है।
अहल्या द्रौपदी तारा कुन्ती मन्दोदरी तथा ।
पञ्चकन्याः स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम् ।।
की उक्ति से भी यही प्रमाणित होता है कि पति की मृत्यु हो जाने पर किसी स्त्री के लिए पति की चिता में उसके शव के साथ स्वयं भी जलकर मर जाना न तो वेद-सम्मत है, न धर्म-सम्मत है। और सामाजिक रूप से दबाव डालकर किसी भी स्त्री को इसके लिए बाध्य करना तो निश्चय ही घोर अधर्म है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वाल्मीकि रामायण में, रावण की मृत्यु हो जाने पर मन्दोदरी किस प्रकार शोक से ग्रस्त होकर और उसके शव से लिपटकर उसे "आर्यपुत्र" कहकर संबोधित करती है। तात्पर्य यह कि रावण "आर्य" और राक्षस-जातीय ब्राह्मण भी था। जो लोग रावण को द्रविड़ मानते हैं उन्हें भी यह तो मानना ही होगा कि रावण द्रविड़ भी था और आर्य भी, -न कि अनार्य, क्योंकि "आर्य" शब्द कुलीन, सभ्य, वंश, चरित्र के अर्थ में "श्रेष्ठ" (noble) का द्योतक है, -न कि किसी जाति-विशेष का।
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यहाँ एक जिज्ञासा यह भी है कि वैदिक / आर्य धर्म से अन्य, दूसरी विभिन्न परंपराओं में 'विवाह' के विधान का आधार क्या है, और इसे किस प्रकार से परिभाषित किया जाता है।
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