कविता / 14-01-2022
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न कुछ किया जा सकता है, न कोई कर सकता है,
जो हुआ, होगा, या हो सकता है, ख़याल ही तो है,
न कुछ भी होता है, न कोई कभी भी कुछ करता है,
हाँ तो ये सवाल है कि क्या ख़याल नहीं उठता है!
हाँ ख़यालों का तो दरिया है, तूफान है, बवंडर है,
ख़याल ही तो है पानी, हवा भी, वही समन्दर है!
जो सोचो अगर तो सभी कुछ ख़याल ही तो है,
बदलता जा रहा है लगातार, हमेशा ही ये मंजर है!
क्या ये 'हमेशा', ये 'कभी कभी', 'अभी' या 'अक्सर',
क्या ये भी अलग, कुछ और है, अगर ख़याल न हो,
सवाल यह है कि क्या है, जब कोई ख़याल न हो!
जब किसी वक्त, किसी पल, साँझ डूबता है सूरज,
या किसी सुबह, भोर के होते ही फैलती है लाली,
उस समय जबकि हम नींद से जागे हुए ही होते हैं,
जब अपनी खिड़की से देखते हैं, आसमान की ओर,
जब न सोये हुए, और न खोये हुए से हम होते हैं,
क्या उस पल, समय भी वह, ठहरा हुआ नहीं होता!
ये भी हम बाद में ही ख़याल आने से ही तो कहते हैं,
उस घड़ी तो अपने होने, न-होने का ख़याल भी नहीं होता!
तो वक्त भी क्या सिर्फ वहम ही नहीं है, ख़याल ही एक,
और उस बेख़याली का भी क्या, अपना वजूद नहीं होता!
वो बेख़याली भी क्या कभी कुछ करती है, या बस होती है,
जिसे महसूस करनेवाला भी, उससे अलग कोई नहीं होता!
और उस बेख़याली को क्या याद भी रखा जा सकता है,
याद रखना, करना, या आना भी तो ख़याल ही तो है!
कैसे याद रखे, कौन रखे, यह भी तो ख़याल ही तो है,
न कुछ किया जा सकता है, न कोई भी कर सकता है,
जो हुआ है, होगा, या हो सकता है, ख़याल ही तो है!
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