स्त्री धर्म क्या है?
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वैदिक सनातन धर्म में धर्म शब्द प्रकृति और स्वभाव का द्योतक है। स्त्री स्वयं ही प्रकृति की सन्निकट अभिव्यक्ति है और स्त्री का स्वभाव अर्थात् धर्म है, सहज अस्तित्व से प्रेरित होकर समष्टि के सामंजस्य में रहते हुए अपना जीवन जीना। उसे कुछ करने और जीने के लिए किसी अन्य प्रेरणा, उद्देश्य, लक्ष्य आदि को खोजने की आवश्यकता ही नहीं होती। किन्तु बाहरी परिस्थितियाँ और सामाजिक दबाव उसके अपने इस स्वाभाविक जीवन को जीने के उसके रास्ते पर बाधाएँ अवश्य ही खड़ी कर देते हैं और तब वह उन बाधाओं से अवरुद्ध, प्रभावित या कुंठित भी हो सकती है, या हो भी जाती है!
'जश्न' शब्द मूलतः फ़ारसी 'जशन' का ही अपभ्रंश है और 'जशन' -यह शब्द भी मूलतः संस्कृत शब्द यजन / यज्ञ का अपभ्रंश है।उसके तात्पर्य से भी यही प्रतीत होता है।
यज्ञ का अर्थ है यजन, उल्लास, उत्सव, और जश्न / जशन का भी यही अर्थ है।
ब, ह, स, ज, म, अ, आदि वर्ण अरबी भाषा के उपसर्ग हैं, उनका अपना अपना स्वतंत्र अस्तित्व और प्रयोजन भी है ही।
जमा शब्द संस्कृत भाषा के उपसर्गों 'स' / सम् / सन् / सं आदि से व्युत्पन्न है। 'मजमा', 'मजमून', 'जामा', 'जुमा' आदि शब्दों के बारे में भी ऐसा ही प्रतीत होता है।
ह और स के संयोग से बना शब्द संस्कृत भाषा में हस् तथा सह् धातुओं का जनक समझा जा सकता है, जबकि अरबी-फा़रसी में ब से जुड़कर यह बहस हो जाता है। इसी प्रकार से अहसास / एहसास और महसूस भी हमें प्राप्त होते हैं।
अब हम बात करें जश्ने-अहसास की तो स्त्री के संबंध में यही कहा जा सकता है, कि स्त्री अनायास ही अपने स्वाभाविक धर्म से परिचालित होती है और जैसे किसी लता या बेल को सहारे की आवश्यकता होती है, उसी तरह से स्त्री को भी किसी सहारे व आश्रय, संरक्षण की आवश्यकता होती है। स्त्री का स्वाभाविक कार्य है संतान को जन्म देना, और इसलिए भी आक्रामकता स्त्री का धर्म नहीं है। आक्रामकता पुरुष में अवश्य ही अन्तर्निहित ही होती है, और यही वह शक्ति है, जिससे वह स्त्री और संतान की रक्षा भी करता है। संतान की उत्पत्ति इस प्रकार मनुष्य-मात्र का स्वाभाविक प्राकृतिक धर्म ही है, और काम, कामना, या संतान की उत्पत्ति की चाह, उसी धर्म का विकसित रूप है। किन्तु इस क्रम में भोग की बुद्धि इस काम-भावना को दूषित कर देती है, और काम-कृत्य संतान की उत्पत्ति और प्रजा की वृद्धि का साधन न रहकर बल की अभिव्यक्ति और बलप्रयोग होकर रह जाता है।
विवाह वह वैदिक विधान है जो मनुष्य को अपने धर्म के अनुसार अपनी वंशवृद्धि करने की शिक्षा देता है। गीता के अध्याय ७ के अनुसार :
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।११।।
इस श्लोक से भी यही निष्कर्ष प्राप्त होता है कि विवाह का यह विधान इसीलिए स्थापित किया गया है ताकि सामाजिक सौहार्द को बनाए रखकर सभी अपने अपने श्रेयस् की प्राप्ति कर सकें।
पुरुष ही नहीं, नारी या स्त्री को भी इस प्रकार से अपनी जीवन-शैली का चुनाव करने का अधिकार प्रकृति से ही प्राप्त है।
इसीलिए वैदिक परंपरा (न कि धर्म) में, 'घटस्फोट' (divorce, तलाक का समानार्थी मराठी शब्द) के लिए कोई संकेत, व्यवस्था या शब्द तक नहीं है। पता नहीं, हिन्दू विवाह कानून (Hindu Marriage Act) में इस बारे में क्या कहा गया है!
वैदिक सामाजिक व्यवस्था और वैदिक सामाजिक वर्णाश्रम धर्म के बीच यद्यपि पारस्परिक सामंजस्य है, किन्तु वैदिक धर्म किसी भी मनुष्य स्त्री, पुरुष या समुदाय पर इस धर्म का पालन करने के लिए कोई आग्रह नहीं करता। इस संबंध में यदि हम आज तक के वैज्ञानिक विकास के सन्दर्भ में भी देखें तो भी यही स्पष्ट होता है कि वंश की पहचान पिता से ही हो सकती है न कि माता से। क्योंकि गुण-सूत्रों (genes / chromosomes) के सन्दर्भ में विचार करें, तो भी यही प्रतीत होता है कि शिशु का स्त्री या पुरुष होना x-x और x-y गुणसूत्रों से ही तय होता है। चूँकि y गुणसूत्र / क्रोमोसोम या जीन, पिता से ही प्राप्त होता है, इसलिए पुत्र ही वंश के निर्धारण का तर्कसंगत आधार हो सकता है। किन्तु यदि इस तथ्य की ही अवहेलना कर दी जाए, तो समस्त वंश-श्रंखला अस्त-व्यस्त हो जाती है।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि समाज के सन्दर्भ में स्त्री-पुरुष के अधिकारों की समानता संभव ही नहीं है। स्त्री या पुरुष, कोई भी हो, हर किसी को अपनी मर्यादा के द्वारा ही अनुशासित होना होगा। यदि इस मर्यादा का पालन नहीं किया जाता है तो समाज और परिवार का विघटन अवश्यंभावी है।
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