'लिहाफ', ... और 'खोल दो'!
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अगर मेरी याददाश्त ठीक है, तो क़रीब 45-46 साल पहले मैंने इस्मत चुग़ताई की कहानी 'लिहाफ़', और सआदत हसन मन्टो की कहानी 'खोल दो' को हिन्दी कहानियों की पत्रिका 'सारिका' में पढ़ा था, वर्ष 1979 के आसपास कमलेश्वर जी ने 'कथावार्ता' पत्रिका शुरू की थी। लगभग उसी समय संजीव नामक किसी नये कथाकार की भी कोई रचना पढ़ी थी, जिसे "प्रथम पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। मैंने उन्हें एक विस्तृत पत्र भी लिखा था, जिसका उससे भी बहुत अधिक विस्तृत जवाब उनसे मुझे मिला भी था।
'लिहाफ़' नामक कहानी संभवतः स्त्री-समलैंगिकता के बारे में है, जबकि 'खोल दो' कहानी, भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय किसी लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार की घटना के बारे में है।
चौंकानेवाली स्थितियों, प्रसंगों, घटनाओं को अपनी कहानी के लिए आधार की तरह इस्तेमाल कर साहित्य-सृजन करनेवाले ये तथाकथित प्रगतिशील, साहित्यकार उन घटनाओं के शिकार लोगों या समाज की कौन सी मदद करना चाहते हैं!
यह चलन वैसे तो पश्चिम से ही आया है और वामपंथी उग्रवादी, जो क्रान्ति के नाम पर कच्ची उम्र के किशोर, नवयुवा पाठकों के लिए पता नहीं क्या संदेश देने का प्रयास करते हैं!
क्या यह वस्तुतः साहित्य है भी?
याद आता है श्रीलाल शुक्ल का 'राग- दरबारी'!
जब मैं कक्षा नौ में पढ़ रहा था तो मेरे विद्यालय की लायब्रेरी से यह पुस्तक पिताजी ले आए थे। मेरे पिताजी ही उस विद्यालय के प्राचार्य थे, शायद इसलिए भी उन्हें यह किताब आसानी से मिल गई थी।
मेरे घर में न किसी को इसकी फिक्र थी, न फुरसत, कि मैं क्या पढ़ता हूँ, मैंने क्या पढ़ना, क्या नहीं पढ़ना चाहिए। पिताजी तो स्कूल के कार्य में ही व्यस्त भी रहते थे। इसलिए आर्य-समाज के सत्यार्थ-प्रकाश और गीता-प्रेस, गोरखपुर के कल्याण जैसे ग्रन्थों के साथ-साथ मुझे हिन्दी साहित्य की रचनाएं पढ़ने का मौका भी अनायास मिलता रहता था। टाइम्स ऑफ इंडिया की सारिका, धर्मयुग के साथ मुझे कादम्बिनी, सरिता, मुक्ता आदि भी पढ़ने को मिल जाते थे। मुझे यह कहने में जरा भी हिचक नहीं कि इस सब "साहित्य" ने अवश्य ही, तबीयत से मेरे बाल-मन / किशोर-मन को बर्बाद किया ।
वैसे 'नवनीत' और 'भवन्स जर्नल' जैसी किताबों से मुझे :
"All that glitters ain't gold"
भी समझ में आने लगा लेकिन कक्षा 11 तक आने के बाद मेरा परिचय उस जमाने के ऐसे ही एक महामानव के "साहित्य" से भी हुआ जिनका कि सामाजिक-धार्मिक और आध्यात्मिक मंच पर अभी पदार्पण ही हुआ था।
कॉलेज में पढ़ते समय मैंने महर्षि अरविन्द के बारे में जाना, और ख़लील ज़िब्रान जैसे विचारकों की सस्ता साहित्य भंडार के द्वारा प्रकाशित किताबें पढ़ने लगा।
तो यह रही मेरी साहित्य-उपासना (न कि साधना!)
आज जब मोबाइल और इन्टरनेट, फेसबुक और दूसरी साइट्स का दौर देखता हूँ तो कभी कभी लगता है कि क्या विकास और प्रगति की चकाचौंध से मोहित होकर हम आनेवाली आज की अपनी नई पीढ़ी को वाकई किसी सुनहरे और उज्ज्वल भविष्य की दिशा में जाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं!
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