October 30, 2014

आज की कविता / 30 / 10 / 2014

आज की कविता / 30 / 10 / 2014
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आत्म-स्वीकृति
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मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि कहीं जा नहीं सकता,
ये फिर भी सच है कि कोई भी मुझको पा नहीं सकता ।
गो कि ये सच है कि  कोई भी मुझको पा नहीं सकता,
जिस पहचान के परदे में हूँ उसको कोई हटा नहीं सकता ।
वो भी इक ज़माना था जब खो गया था अपने-आप से,
पहचान के परदे में लिपटा था अजनबी के लिबास में ।
और जब परदे हटे परदे फटे आँधियों तूफानों में,
हुआ था पल भर में ही मुझे दीदार अपने-आप का ।
ये सच है अब कभी मैं ख़ुद से हो जुदा नहीं सकता ,
और बस इसलिए भी ख़ुद को फिर से पा नहीं सकता ।
और न दूसरा कोई मुझे या मैं भी किसी भी दूसरे को,
मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि कहीं जा नहीं सकता ।
--©
       

October 29, 2014

आज की कविता : आहिस्ता - आहिस्ता

आज की कविता : आहिस्ता - आहिस्ता
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सरकती जाए है पाँवों तले से ज़मीं आहिस्ता-आहिस्ता,
क़यामत को नज़र आने लगे हैं हमीं आहिस्ता-आहिस्ता ।
न पत्तों में है, न अब्र में और  न रही है आँखों में भी,
हवा में भी जो थी वो उड़ गई नमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
कुछ अपने बाज़ुओं में थी कभी, कुछ हौसले जो दिल में थे,
वक़्त गुज़रते गुज़रते आ गई उनमें कमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
शरमो-हया के तकल्लुफ़ के लिहाज़ के गिरते ही रहे हैं परदे,
इज़हारे-मुहब्बत की मुरव्वत की रौ थमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
दिल डूबता है, डूब जाए हौले-हौले धीरे-धीरे आहिस्ता-आहिस्ता,
हो रहा है सबसे जुदा अब ख़ुशी हो या ग़मी, आहिस्ता-आहिस्ता ।
--©   

October 26, 2014

आज की कविता : 26 /10/2014 / दुःस्वप्न

आज की कविता : 26 /10/2014
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दुःस्वप्न
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डर,
एक दुःस्वप्न सा,
लौट आता है,
ख़याल तो होता है,
कि वह अचानक,
की-बोर्ड की किसी भी ’की’ को दबाते ही,
’ब्लो-अप’ की तरह,
आक्रमण कर देगा,
पर वह इतना सतर्क और धूर्त होता है,
कि किसी सर्वथा अप्रत्याशित क्षण में ही,
झपटकर दबोच लेता है,
किसी चीते की तरह,
जब किसी क्षण के दसवें हिस्से के लिए,
मैं अनायास अन्यमनस्क हो जाता हूँ ।
लेकिन कोई इलाज नहीं है मेरे पास,
अगर मुझे दुःस्वप्न से बचना है,
तो जागृत रहना होगा,
हर पल,
जागते हुए,
स्वप्न में,
या गहरी से गहरी नींद में भी !
-- ©

बस एक ख़याल !... ,

आज की कविता / 25/10/2014
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बस एक ख़याल !... ,
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कल भी इस वक़्त,
ठीक यही समय था,
कल फिर होगा,
इस वक़्त,
ठीक यही समय,
हर दिन होता है !
इसमें कौन सी नई बात है?
पर फ़िर भी हैरत की बात तो है ही ! ...
शुभ रात्रि !
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October 24, 2014

आज की कविता, व्यथा एक दीप की !

आज की कविता,
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व्यथा एक  दीप की !


दर्द पोशीदा है, ठहरा ठहरा है आँखों में,
मोम जैसे पिघलता सा जमा जमा सा हो,
शौक से देखते हैं लोग रौशनी, परवाने से,
पता किसे है दर्द क्या है शमा सा जलने में ।

--©
शुभ रात्रि,
(रात भर जलना है !)
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October 21, 2014

आज की कविता : कोलकाता !

आज की कविता : कोलकाता
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जब तक इन्सान बिकाऊ है, ...
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जब तक,
इन्सान बिकाऊ है,
हर जगह / कहीं न कहीं,
चाहे फिर चलाए,
उसको इन्सान ही,
चाहे फिर बैठे भी,
उस पर इन्सान ही,
रिक्शा चलेगा,
गोल हो, या चौकोर,
सोने या चाँदी का,
काग़ज़ का, प्लास्टिक का,
या फ़िर हो चमड़े का,
सिक्का चलेगा ।
जब तक हैं घोड़े,
घोड़े से इन्सान,
युद्ध के मैदान में,
या फिर बारात में,
रेसकोर्स या स्ट्रीट पर,
इक्का चलेगा,
दोपहिया, चारपहिया,
रेल हो या जहाज,
घड़ी, कंप्यूटर, या फ़ैक्ट्री,
या कोई कल-कारखाना,
सरकार चलेगी ।
और तभी सरकार का,
दरबार भी चलेगा,
दरबार में सरकार का,
हुक्का चलेगा,
दलालों बिचौलियों का,
क़ारोबार चलेगा,
दुःखियारी जनता का,
घरबार चलेगा,
स्कूटर चलेगा,
टेम्पो चलेगा,
बाईक चलेगी,
मोबाइल चलेगा,
सिक्का चलेगा ।
सिक्का चलेगा,
तो बाज़ार चलेगा !
चक्का चलेगा,
तब तक चलेगा,
जब तक है बिकाऊ,
चाहे फिर चलाए,
उसको इन्सान ही,
चाहे फिर बैठे भी,
उस पर इन्सान ही,
रिक्शा चलेगा,
हर जगह / कहीं न कहीं,
हर समय, हर वक़्त,
चाहे चलाए उसे इन्सान ही,
चाहे बैठे उस पर इन्सान ही,
रिक्शा चलेगा,
--


October 19, 2014

आज की कविता / संशय


आज की कविता / संशय
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प्रमाण,
प्रमाणित होने से,
सत्य तो नहीं हो जाते,
प्रमाण,
सत्यापित होने से ,
सत्यार्पित तो नहीं हो जाते,
संशय खड़ा ही रहता है,
अर्जुन की तरह,
गाण्डीव को छोड़कर,
निढाल !
--

October 18, 2014

आज की कविता : क्यूँ?

क्यूँ?
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एकता के लिए,
नारायण को समर्पित यह रचना,
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दिल के तारों को छू गया कोई,
छेड़कर दर्द क्यों गया कोई,
लौटकर यादें ही आया करती हैं,
याद में क्यों उभर आया कोई,
दोस्त हाँ दोस्त हैं सभी अपने,
फिर भी होता है क्यों बिरला कोई,
जिसका मिलना था सिर्फ़ इक सपना,
मिल के वो क्यूँ बिछड़ गया कोई,
--

October 16, 2014

आज की कविता : यह पथ बन्धु था !

आज की कविता :
यह पथ बन्धु था !
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छः साल पहले,
किसी बाध्यता के चलते,
खरीद लिया था,
इस ’पथ’ को,
यह ’पथ’,
जो कितने अगम्य, दुर्गम्य स्थानों से होकर गुजरता है !
तब लेखनी को विश्राम दिया था,
वर्तनी के पग अविश्रांत चलते रहे ।
इस पथ पर मिले कितने पथिक,
कितने घुमन्तू,
कितने भटकते,
तृष्णातुर,
प्यास से दम तोड़ते,
यायावर मृग,
कितने दोनों हाथों से,
द्रविण उलीचते हुए,
कितने शिकार की तलाश में,
जाल बिछाए !
मैं मुस्कुरा देता था,
जानता था कि इसमें
पथ का कोई दोष नहीं है ।
पंथ का शायद होता हो,
अब जब इस पर काफी चल चुका हूँ,
इससे कुछ परिचित हो चुका हूँ,
तो लौट जाने का मन है,
लौटना जरूरी भी है,
उस नगरी,
जहाँ सरस्वती का वास है,
लेखनी चंचल है,
तूलिका व्यग्र है,
और वीणा तरंगित,
हाँ, विदा पथ !
पर आता रहूँगा कभी-कभी पुनः फिर,
तुमसे मिलने भी !
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October 11, 2014

भाषा का यह प्रश्न (1)

भाषा का यह प्रश्न (1)
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बहुत से लोगों को यह लगना स्वाभाविक है कि संस्कृत को उसका उचित स्थान मिलना चाहिए । किन्तु इसके लिए संस्कृत का प्रचार करना और उसे प्रचलन में, व्यवहार की भाषा के रूप में लाया जाना कहाँ तक संभव और जरूरी है? और यदि वह संभव न हो तो जरूरी होने का तो प्रश्न तक नहीं पैदा होता । यदि आपको संस्कृत से प्रेम है, तो इसका यह मतलब तो नहीं कि आप अंग्रेज़ी के या उर्दू के शत्रु हैं । दुर्भाग्य से किसी भी भाषा से प्रेम रखनेवाले अपनी प्रिय भाषा के अतिरिक्त दूसरी सभी भाषाओं के साथ जाने-अनजाने शत्रुता का व्यवहार करने लगते हैं । किन्तु उनका ध्यान इस ओर बिरले ही कभी जाता है कि यह एक नकारात्मक और हानिकारक तरीका है, न सिर्फ़ अपनी भाषा के प्रचलन और उन्नति की दृष्टि से बल्कि पूरे समाज के हर वर्ग के लिए, चाहे वह किसी भी भाषा को अपनी कहता हो ।  सवाल सिर्फ़ यह नहीं है कि कौन सी भाषा सरकारी मान्यता प्राप्त ’राजभाषा’ हो, बल्कि यह भी है, कि उसे ’लादा’ न गया हो । और चूँकि भाषा काफी हद तक भावनात्मक महत्व भी रखती है, व्यावहारिक स्तर पर भी उसकी उतनी ही उपयोगिता
होने के महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता । भाषा शिक्षा का माध्यम होती है और अन्य अनेक विषयों की भाँति शिक्षा के एक विषय के रूप में भी उसका एक महत्वपूर्ण स्थान तो है ही । इसलिए जहाँ एक ओर भाषा की शिक्षा एक ओर उसके ’माध्यम’ होने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर दी जानी चाहिए, वहीं दूसरी ओर इसे एक विषय के रूप में भी दिया जा सकता है । इसलिए ’भाषा’ की शिक्षा के दो भिन्न भिन्न किन्तु संयुक्त आयाम हैं ।
संस्कृत या किसी भी भाषा के ’प्रचार’ और उसे प्रचलन में लाने के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों के साथ एक कठिनाई यह है कि जब तक लोग उसे अपने लिए जरूरी नहीं समझते तब तक या तो उसकी उपेक्षा करते हैं, या फ़िर उसका विरोध तक करने लगते हैं । और यह विरोध तब और प्रखर हो जाता है जब उस भाषा की ’अपने’ समुदाय की भाषा से किसी प्रकार से भिन्नता या विरोधी होने का भ्रम हम पर हावी हो जाए । उस ’भिन्न’ भाषा से भय  हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा है, और इससे दूसरे भी अनेक भय मिलकर इसे और भी जटिल बना देते हैं ।  दूसरी ओर किसी भी भाषा के उपयोग की बाध्यता या जरूरत महसूस होने पर हम उसे सीखने, प्रयोग करने के लिए खुशी-खुशी, या मन मारकर राजी हो जाते हैं । अंग्रेज़ी ऐसी ही एक भाषा है । अंग्रेज़ी का उपयोग तो सर्वविदित और सर्वस्वीकृत है ही । तब, जो किन्हीं कारणों से अंग्रेज़ी नहीं सीख पाए, उन्हें अफ़सोस होता है, उनमें हीनता की भावना जन्म लेती है, और वे अंग्रेज़ी को कोसने लगते हैं । और अगर उनके बच्चे फ़र्राटे से (सही या गलत भी) अंग्रेज़ी बोल-लिख सकते हैं, तो वे ही लोग, अपने आपको धन्य समझते हैं, गर्व करते हैं । फिर बहुत संभव है कि बच्चे भी अपनी उपलब्धि पर गर्व करने लगें और माता-पिता को हेय दृष्टि से देखने लगें, उन्हें अनपढ़ या गँवार समझने लगें । भले ही मुँह से न कहें, किन्तु उन्हें लोगों से अपने माता-पिता का परिचय कराने में शर्म और झिझक महसूस होने लगे । माता-पिता और बच्चों में दूरियाँ बढ़ने का यह भी एक बड़ा कारण है ।
फिर कोई भाषा क्यों सीखता है? स्पष्ट है कि इसमें बाध्यता, उपयोगिता, भावनात्मक लगाव ये सभी बातें जुड़ी होती हैं । किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि ’मातृभाषा’ ही सीखने के लिए सभी के लिए स्वाभाविक रूप से सबसे अधिक अनुकूल हो सकती है । और मातृभाषा के बाद हम अपनी जरूरत और रुचि के अनुसार दूसरी भाषाओं में से चुनाव कर सकते हैं ।
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एक उदाहरण :
हिन्दी से मिलती-जुलती किसी बोली में बहुत प्रसिद्ध कहावत है,
’निज-भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, ...’
मैंने इसका संस्कृत अनुवाद कुछ यूँ किया :
’निजभाषोन्नत्यर्हति, सर्वोन्नतिमूलम्’
(निज-भाषा-उन्नति-अर्हति सर्व-उन्नति-मूलम्)
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यद्यपि मैं मानता हूँ कि उपरोक्त अनुवाद में संस्कृत व्याकरण की कोई त्रुटि हो सकती है, जिसे संस्कृत के विद्वान ही इंगित और परिमार्जित कर सकते हैं , किन्तु यहाँ इसे प्रस्तुत करने का एकमात्र ध्येय यह है कि यदि किसी भाषा में आपकी स्वाभाविक रुचि है तो उसे सीखना मजबूरी या उपयोगिता के दबाव में उसे सीखने से अधिक आसान है । अपने इसी भाषा-प्रेम के चलते मैं किसी भी भाषा को समझने का यत्न करता हूँ तो अक़सर अनुभव करता हूँ कि यदि आपने पाणिनी की अष्टाध्यायी का अध्ययन किया है, तो आपको प्रायः हर भाषा में ऐसे संकेत सूत्र दिखलाई दे जाएँगे जहाँ पाणिनी आपको बरबस याद आएँगे । और वह न सिर्फ़ भाषा की बनावट और उसके व्याकरण के कारण, बल्कि उसके शब्दों के स्वनिम (phonetic form) और रूपिम (figurative form) के भी कारण । और तब आपको अनायास स्पष्ट होगा कि भाषा भाषा की शत्रु नहीं बल्कि सखी या भगिनी होती है । यह ठीक है कि हम अपनी भाषा को महत्व दें और उसके विकास के लिए प्रयत्न करें, लेकिन उसे समाज के किसी छोटे या बड़े वर्ग पर लादा जाना न तो समाज के लिए और न अपनी भाषा के लिए ही उचित है । आप चाहें या न चाहें, भाषाएँ सरिताओं की तरह होती हैं, अपने रास्ते बदलती रहती हैं, कई बार तो अपने रास्ते से पूरी तरह दूर होकर दिशा तक बदल लेती है । नदियों की भाँति वे विलुप्त भी हो जाती हैं, और अगर हम आग्रह न करें तो उनका नाम तक बदलता रहता है ।
मैंने सिंहल से लेकर बाँग्ला तक और गुजराती से लेकर उर्दू तक भारत की अधिकाँश भाषाओं को सीखने-समझने का प्रयास किया, और भारतीय के अतिरिक्त तिब्बती, नेपाली, बर्मी तथा अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन आदि विदेशी भाषाओं में भी मेरी अत्यन्त रुचि है । स्पष्ट है कि तमिल, तेलुगु तथा मलयालम, मराठी, आदि में भी मेरी दिलचस्पी है । इन सब भाषाओं के मेरे सतही या गंभीर अध्ययन के बाद मैं जिन निष्कर्षों पर पहुँचा वह यह कि ये सभी संस्कृत से घनिष्ठतः जुड़ी हैं । भाषाशास्त्रियों के लिए यह कोई नई बात न होगी । किन्तु यहाँ इसे लिखने का मेरा उद्देश्य इस ओर संकेत करना है कि तमाम भाषाई झगड़े केवल हमारी नासमझी, आधी-अधूरी जानकारी और काल्पनिक भयों के ही कारण हैं । यदि आप भारत की एक से अधिक भाषाएँ सीखते हैं, खासकर एक दक्षिण भारतीय और एक उत्तर भारतीय भाषा तो आपको स्वयं ही महसूस होगा कि भाषाएँ जल में जल की तरह मिल जाती हैं । किन्तु यदि हमारे मन में पहले से ही दूसरी भाषा के प्रति अरुचि या शत्रुता का, भय या हीन होने की भावना भर दी गई हो, तो हम इस सच्छाई से अपरिचित ही रह जाते हैं । यदि आप भाषा के दो रूपों बोली जानेवाली भाषा तथा लिखी जानेवाली भाषा, की बनावट पर ध्यान दें तो आपको स्पष्ट हो जायेगा कि भाशाओं की विविधता हमारी विरासत और समृद्धि ही है और किसी भी भाषा में सृजन दूसरी सभी भाषाओं को भी समृद्ध ही करता है । यह केवल कोरा बौद्धिक व्यायाम न होकर, उपयोगिता की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होता है । जैसे दो चित्रकार दुनिया के किसी भी कोने में रहते हों, चित्रों की भाषा समझते हैं, और दो संगीतज्ञ भी इसी प्रकार एक दूसरे की रचनाओं को समझ पाते हैं, वैसे ही विभिन्न भाषाओं में जिनकी दिलचस्पी है, वे कभी न कभी सभी भाषाओं के मूल उत्स को पहचान ही लेते हैं, और उनके लिए भाषाएँ परस्पर शत्रु नहीं रह जातीं ।
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इंडोनेशिया के बारे में बहुत नहीं जनता, किन्तु आज (01 नवम्बर 2014) को प्रकाशित 'नईदुनिया - इंदौर' / 'ग्लैमर और कैरियर' में पढ़ा कि इंडोनेशिया की भाषा सीखने की दृष्टि से बहुत सरल है।  इससे मेरी अपनी इस समझ की पुष्टि ही हुई की संपूर्ण भारतीय महाद्वीप और सुदूर ऑस्ट्रेलिया तक की भाषाएँ संस्कृत से व्युत्पन्न हैं भाषा (बहासा) के ध्वन्यात्मक तथा रूपात्मक / लिप्यातक दोनों रूपों में।
कुछ माह पूर्व मेरा एच. पी।  का कार्ट्रिज ख़त्म हो गया था।  जब नया ख़रीदा तो उस पर लिखा देखा :
triga verna + * / tri-color + black . (triga = त्रिक, verna = वर्ण तो दृष्टव्य ही हैं , * 'काले के लिए ब्लैक का समानार्थी याद नहीं किन्तु वह संस्कृत से निकला है, इसमें संदेह के लिए कोई स्थान नहीं।
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इसलिए भाषा के बारे में मेरा सोचना यह है कि बच्चों को शुरू में मातृभाषा के ही माध्यम से पढ़ाया जाना चाहिए, और शासकीय कार्य के लिए बहुत धीरे-धीरे समय आने पर स्थानीय भाषा को प्राथमिकता देते हुए, उसके बाद ही राष्ट्रभाषा को स्वीकार्य बनाने के बारे में सोचा जाना चाहिए।  वास्तव में व्यक्तिगत रूप से तो मेरा अनुमान है कि अंग्रेज़ी को राष्ट्रभाषा के स्थान से बेदखल नहीं किया जा सकता और न उससे किसी का कोई भला होना है।  मेरा शायद अतिरंजित ख्याल यह भी है, की आज नहीं तो कल अंग्रेजी की पगडंडियाँ ही संस्कृत के आगमन के लिए मार्ग प्रशस्त करेंगी।
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(निरन्तर - भाषा का यह प्रश्न -2 )
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October 04, 2014

आज की कविता / माँ शारदे !

माँ शारदे !
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ओजस्विनी,
तेजस्विनी,
श्वेतवसना,
गरिमामयी,...
यशस्विनी,
श्रेयस्विनी,
शुभ्ररूपा,
महिमामयी ,...
सरस्वती,
शारदा,
वाग्देवी,
करुणामयी,...
तपःशीला,
चारुवचना,
वरदायिनी,
तपस्विनी !
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कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 30

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 30
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कीड़ा है, पर सुन्दर है !
सुन्दर है, पर कीड़ा है,
यह क़ुदरत की क्रीड़ा है,
इससे ना उसको कोई,
ना क़ुदरत को पीड़ा है ।
कीड़ा है, पर सुन्दर है !
--
वह मनुष्य की दृष्टि में कीड़ा है, मनुष्य उसकी दृष्टि में क्या है, उससे भी तो पूछो!
कल एक लड़की कह रही थी कि रावण को इतना बुरा क्यों कहा जाता है? उसने साबित कर दिया कि मनुष्य में दृढ संकल्प हो तो वह क्या नहीं कर सकता? मैं मानता हूँ कि यह सच है किन्तु अधूरा सच है, और इसलिए रावण का अन्त बहुत अच्छा तो नहीं हुआ । लेकिन संसार में सौ प्रतिशत बुरा तो वास्तव में कुछ नहीं होता । बुराई में भी एक अच्छाई तो होती ही है कि वह आत्मघाती होती है । अर्थात् स्वयं ही विनष्ट हो जाती है ।
रावण कीड़ा तो शायद नहीं था किन्तु साधारण मनुष्य भी नहीं था । किन्तु उसकी दृढ संकल्प की उस प्रवृत्ति के कारण वह महापुरुष बन गया, वह बहुत कुछ कर सकता था । और उसे बखूबी पता था कि वह नदी के आधे रास्ते को पार कर चुका था और अब उस पार ही जाया जा सकता था, लौटना असंभव था ।
हमारे आज की मानव-सभ्यता का प्रेरक और निर्देशक-सूत्र यही तो हैं, जो रावण के थे ।
यही, कि दृढ इच्छा-शक्ति से दृढ-संकल्प से पक्के इरादे से सफलता के लिए यत्न करो । किन्तु क्या हर सफलता बर्बादी की ओर ही नहीं ले जाती है ? क्योंकि सफल होने के लिए क्रूर, असंवेदनशील होना जरूरी होता है । दूसरी ओर उत्साह सफलता अथवा असफलता की भाषा नहीं समझता । उत्साह स्वयं ही जीवन का उत्स है, किन्तु सफलता या असफलता की छाया छूते ही वह लक्ष्य-केन्द्रित हो जाता है और उसका प्रवाह दिशा-निर्देशित और संकीर्ण हो जाता है । और जरूरी नहीं कि यह लक्ष्य अन्ततः सुखद ही सिद्ध हो । रावण का दृष्टिकोण एकांगी था । दूसरी ओर राम का दृष्टिकोण था प्राप्त हुए कर्तव्य का निर्वहन । यहाँ प्रश्न रावण और राम की तुलना करने का नहीं बल्कि यह देखने का है कि परिस्थितियों के प्रवाह में कैसे वे एक दूसरे के आमने-सामने आए और उससे किसको क्या मिला । हम कह सकते हैं कि ऐतिहासिक रूप से, यहाँ राम और रावण को दो मनुष्यों के रूप में, दो राजाओं की तरह देखा जा रहा है ।
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राम और रावण दो सँस्कृतियों के प्रतीक पुरुष हैं । और ये संस्कृतियाँ भारतीय या विदेशी नहीं आर्य और अनार्य हैं । इतिहासकारों ने आर्य और अनार्य को जाने-अनजाने नस्ल और जाति की तरह प्रस्तुत किया, उन्होंने आर्य-द्रविड को भी इसी चश्मे से देखा और इस आधार पर भारत के लोक-मानस का ऐसा विखण्डन किया जो उनके (गर्हित) उद्देश्य की सफलता के पैमाने पर खरा उतरता था / है । किन्तु आर्य जाति नहीं है, शुद्ध ऐतिहासिक अस्तित्व और परिभाषा है आर्य तथा आर्यावर्त की, जो न सिर्फ़ ’धर्मनिरपेक्षता’ की कसौटी पर भी स्वीकार्य है, बल्कि ’जाति-निरपेक्षता’ तक पर भी खरी उतरती है । भारत-भूमि पर अस्तित्व में आए विभिन्न (धर्मों नहीं,)  धार्मिक मतों में ’आर्य’ शब्द का सीधा तात्पर्य है मानवीय अर्थों में सभ्य, परिष्कृत, सुसंस्कृत मनुष्य । और यह उसके आचरण पर आधारित उसकी पहचान है, न कि उसकी जाति, भाषा, परंपरा, उसके विश्वासों अथवा मान्यताओं पर आधारित निष्कर्ष । बौद्ध और जैन ग्रन्थों में आर्य शब्द आसानी से देखा जा सकता है । और ईरान के या जर्मनी के नरेश अपने-आपको आर्य कहने में गौरवान्वित होते थे तो मूलतः यह इसलिए नहीं था कि उनकी जाति या नस्ल आर्य थी, वरन् सिर्फ़ इसलिए कि उनकी परम्परा आर्य थी । वह परंपरा जिसका आधार आचरण था ।
क्या हमारी सभ्यता और संस्कृति इन अर्थों में आर्य है?
क्या इस आधार पर मनुष्य मात्र की संस्कृति आर्य नहीं हो सकती?
’अनार्य’ शब्द अपनी व्याख्या स्वयं ही स्पष्ट कर देता है, जो ’आर्य’ नहीं है, इसकी व्युत्पत्ति ही इस ओर ध्यान दिलाती है कि यह ’जो नहीं है’ का समेकित नाम है । इसलिए यह कोई विशिष्ट जाति है ऐसा सोचना मौलिक रूप से कोरा भ्रम ही है । इसलिए आर्य-अनार्य का द्वन्द्व किन्हीं दो संस्कृतियों का द्वन्द्व नहीं बल्कि मनुष्य के अपने भीतर का द्वन्द्व है ।
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इसलिए रावण का धर्म ’राक्षस-धर्म’ था, रक्षा करो, किन्तु किसकी? रावण का कहना था ’अस्मिता की’ और उसकी अस्मिता शुद्धतः देह-केन्द्रित और देह से संबन्धित परिजनों, सुखों से थी । ’भोगवाद’ का चरम, जिसे विकास कहा जाता है ।
राम का धर्म इस प्रकार का राक्षस-धर्म न होकर विश्व-धर्म, समष्टि-धर्म था । क्योंकि धर्म वस्तुतः आचरण और आचरण की परंपरा अर्थात् संस्कृति होता है । इसलिए धर्म और सँस्कृति को नाम देकर बाँटा नहीं जा सकता । धर्म और संस्कृति बस आर्य, अनार्य और उनका मिला-जुला रूप भर होते हैं ।
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October 03, 2014

आज की कविता / जैसे झाड़ू के दिन फिरे,

आज की कविता

जैसे झाड़ू  के दिन फिरे,
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जब झाड़ू ने दिन बुहरे,  तब झाड़ू के दिन बुहरे ।

जैसे झाड़ू ने दिन बुहरे, वैसे झाड़ू के दिन बुहरे ।

जैसा हम सुनते आये थे,  जैसा हम सुनते आये हैं,

वे झाड़ू लेकर आए थे,  सोचा झाड़ू से पा लेंगे,

कुर्सी सत्ता सरकार सभी, सोचा झाड़ू से जीतेंगे,

जाएँगे दुश्मन हार सभी, पर झाड़ू से वे गए हार

झाड़ू ने दिखलाया जादू, बन-बैठी जैसे सूत्रधार ।

जैसे कि झाड़ू के दिन फ़िरे, वैसे सबके ही दिन भी फ़िरें ।

अब तो वह कुछ यूँ लगती है, पूजाघर बैठक गलियारे में,

सड़कों राहों या दफ़्तर में, बाज़ार गली चौराहों में,

जैसे कोई क़लम लिखे  अफ़्साना नई रौशनी का,

जैसे कोई चित्र उकेरे, एक नए सूर्योदय का,
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October 02, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 29.

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 29.
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पिछले साल अक्तूबर के पहले हफ़्ते में एक स्वप्न देखा था ।
उस मैदान पर जहाँ सुबह-सुबह गाँधी-जयन्ती के कार्यक्रम चल रहे थे, दोपहर तक सन्नाटा फ़ैल चुका था । हाँ उस दोपहर में भी वहाँ अन्धेरा था । मुझे कुछ अजीब लगा कि आसमान में सूरज चमक रहा था, लेकिन जमीन पर नीम-अन्धेरा था । पर मुझे अचरज नहीं हुआ, क्योंकि मैं अपने शहर में दिन में कभी-कभी ऐसा महसूस करता हूँ जब अचानक बिजली चली जाती है । लेकिन मुझे तब जरूर अचरज हुआ जब कौओं को यह कहते सुना कि गाँधी बाबा की प्रतिमाएँ जगह जगह लगी होने से उन्हें अपनी चोंच को धारदार बनाए रखने में आसानी हो गई है । वहाँ स्थित गाँधीजी की प्रतिमा के चेहरे पर स्थित स्थायी मुस्कान कौओं की बातें सुनकर तब और अधिक खिल उठी । मुझे तुरंत स्पष्ट हो गया कि मैं यह सब किसी स्वप्न में ही देख रहा हूँ । और तभी मैंने बाबा को बोलते देखा ।
’हर साल का तमाशा है यह!’
वे सारे कौए बाबा को ध्यान से देख रहे थे ।
’बाबा हैप्पी बड्डे !’
 वे कोरस में बोले !
’उसे बीते हुए सवा सौ से भी ज्यादा साल बीत चुके,  मैं तो  सवा सौ साल तक ही जीने की उम्मीद करता था ।’
’लेकिन बाबा, सारी दुनिया आपको मानती है ।’
’ऐ तुम ! इधर आओ !’ वे इशारे से मुझे बुलाते हैं ।
मैं जो उनसे सौ फ़ीट दूर था, उनके नज़दीक पहुँच जाता हूँ । उनके चरणों और मेरे सिर के बीच कोई दस फ़ीट का फ़ासला है, क्योंकि उनकी प्रतिमा ही धरती से पन्द्रह बीस फ़ीट की ऊँचाई पर स्थापित है ।
वे पूछते हैं, :
’आज का अख़बार लाए ?’
 मैं अपनी गाँधी-थैली (शोल्डर-बैग) टटोलता हूँ, उसमें से एक अख़बार निकलता है, वैसा ही जैसा मेरी एम.एस-सी की डिग्री का कवर था । मैं सोचता हूँ यह तो डिग्री है । बाहर निकालता हूँ तो देखता हूँ वह डिग्री नहीं अख़बार है । सोचता हूँ, उसे उछालकर वैसे ही बाबा के पास पहुँचा दूँ, जैसे सुबह अख़बारवाला मेरे घर की दूसरी मंजिल की बालकनी में फ़ेंक जाता है ।
’नहीं नहीं, बस तुम जरा ऊँची आवाज में सुना दो कि इसमें क्या छपा है!’
’बाबा, इसमें पहले पूरे पृष्ठ पर एक बाइक का ऐड है, वैसे ऊपर दाहिने कोने में आपका फोटो भी पास-पोर्ट साइज़ का दिख रहा है । बीच में अख़बार का नाम है, बाँयी तरफ़ किसी सौन्दर्य-प्रसाधन का विज्ञापन है ।’
बाबा शान्तभाव से मुस्कुराते रहते हैं ।
जैसी की मेरी आदत है, मैं अन्तिम दो और प्रथम दो ’पृष्टों’ पर सरसरी निगाह डालकर उन्हें एक ओर फेंक देता हूँ, वैसे ही मैं यहाँ भी किया । फिर देखता हूँ, और उन्हें तमाम हालात बयान करता हूँ, जैसा कि अख़बार में छपा है । बाबा के चेहरे से मुस्कान ग़ायब हो जाती है । जब मैं उन्हें बतलाता हूँ कि आपके बारे में भी बहुत समाचार-विचार हैं और एक न्यूज़ यह है कि गुजरात के मुख्यमन्त्री ने आपके द्वारा लिखी गई भग्वद्गीता बराक़ ओबामा को गिफ़्ट की, तो उनके चेहरे से कोई प्रतिक्रिया नहीं प्रकट होती ।
’बाबा क्या आपकी शिक्षाएँ समझने में हमसे कोई भूल हुई?’
वे अपनी धोती में कमर पर खोंसकर रखी एक पुड़िया निकलते हैं और उसे खोलकर पढ़ते हुए से कहते हैं,
’मैंने कभी सपने नहीं देखे, जब तुम सपने देखते हो तब या तो सोए हुए होते हो या बस भ्रमित ।’
वे पुड़िया मेरी तरफ़ उछाल देते हैं, जिसमें बस दो तीन शब्द लिखे होते हैं,
सादगी, सरलता, निश्छलता, संवेदनशीलता , ....
मैं उनसे पूछता हूँ,
’क्या विकास, सबके लिए सुख, शान्ति, वैज्ञानिक और भौतिक उन्नति भी उतने ही महत्वपूर्ण नहीं हैं ?’
’हैं, लेकिन इनकी क़ीमत पर नहीं !’
मैं आगे कुछ सोचूँ इससे पहले ही मेरा स्वप्न भंग हो जाता है ।
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मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता जब ऐसे विचित्र स्वप्न दिखलाई दे जाते हैं । गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री (और आज के भारत के प्रधानमन्त्री) को अमेरिका के द्वारा वीसा दिए / न दिए जाने पर उन दिनों अख़बार में और ’मीडिया’ में भी काफी कुछ चल रहा था । और इसलिए सपने में यह देख लेना कि वे अमेरिका जाकर व्हाइट-हाउस में अमेरिका के राष्ट्रपति को महात्मा गाँधी की गीता भेंट कर रहे हैं शुद्ध कल्पना-विलास नहीं तो और क्या हो सकता था, जो मेरे स्वप्न में मुझे उस रूप में दिखाई दिया । किन्तु जब वास्तव में अभी दो दिन पहले समाचारों में यह पढ़ा कि सचमुच श्री मोदी ने श्री ओबामा को महात्मा गाँधी द्वारा लिखी गई भग्वद्गीता उपहार के रूप में भेंट की, तो अचानक पिछले साल के सपने की याद ताज़ा हो उठी । हलाँकि मुझे अभी भी इस बात पर सन्देह हो रहा है कि क्या सचमुच ऐसा हुआ या यह समाचार मेरी कल्पना मात्र है ? जो भी हो,...
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मुझे मेरे बचपन में पढ़ी वह अंग्रेज़ी कविता याद आई,
If the wealth is lost,
Nothing is lost,
If the health is lost,
Something is lost,
But if the character is lost,
Everything is lost,...
मैं सोचने लगा कि गाँधीजी की शिक्षा को न समझ पाना  (और समझने की इच्छा न होना) ही हमारी सबसे बड़ी भूल थी,  सचमुच हमने अपना आचरण चरित्र खो दिया है, और इसे हमने  किसी नैतिक-शिक्षा के अभाव से उतना नहीं बल्कि  सादगी, सरलता, निश्छलता, संवेदनशीलता , .... को खोने की क़ीमत पर खोया है ।
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