January 28, 2025

Discoveries

आविष्कार

उसके आगमन से पहले अपने एकाकी जीवन के पन्द्रह वर्षों में उसने बहुत समय प्रकृति के निरीक्षण में बिताया था और इन सबको रेत और पत्थरों पर चित्रों के माध्यम से अंकित भी किया था। कहना न होगा कि उसकी छवि भाषा में सुरक्षित स्मृतियों का अव्यवस्थित क्रम समय का ऐसा सर्वाधिक सदुपयोग सिद्ध हुआ, जिसकी थोड़ा भी कल्पना या अनुमान उस समय उसे कदापि नहीं था। वर्षों तक वह दिन में सुबह सूर्य के उगने से शाम को सूर्य के डूब जाने तक उसके आकाशीय पथ का आकलन करने की चेष्टा करती रहती थी। सुबह सूर्योदय से पहले और शाम को सूर्यास्त के बाद का आकाश तो उसे मुग्ध करता था। और एक दिन अकस्मात् उसे इस तथ्य का आभास हुआ कि वह जिस भूमि पर रहती है वह भूमि या धरती किसी फल की तरह किन्तु एक बहुत ही बड़ी गोलाकार वस्तु है जो कि सूर्य के चारों ओर घूमती है। उसे यह भी समझ में आया कि यह गोलाकार वस्तु जो कि सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करती है, यद्यपि सूर्य से बहुत दूर है और सूर्य से उसकी दूरी भी बहुत अधिक होगी, ग्रीष्म और शीत ऋतु में यह दूरी क्रमशः कुछ कम और कुछ अधिक हो जाया करती होगी। इसे ही उसने रेखांकन (pictorial diagram) से पहाड़ी की खड़ी चट्टानों पर क्रम से अंकित किया था। कभी किसी पत्थर के नुकीले सिरे से और कभी किसी रंग से लकीरें खींच कर। और उसने धीरे धीरे सरल और वक्र, गोलाकार और अंडाकार लकीरें खींचते खींचते, उल्काओं का पथ भी रेखांकित करते हुए उस ऋजु या वक्र पथ के परवलीय (parabolic) अतिपरवलीय (hyperbolic) मार्गों पर गतिशील होने का अनुमान किया। उसने कुछ ऐसे उल्कापिण्ड भी देखे जो हर एक या दो वर्षों के बाद पुनः आकाश में दिखलाई पड़ते थे। कुछ ऐसे चमकदार तारे देखे जो रात्रि में जिस तारामंडल में दिखाई देते थे उसमें ही धीरे धीरे प्रति रात्रि कुछ आगे बढ़ जाते थे। चंद्रमा की गति को उसने पहले समझा और उसे पता चला कि यह कितने समय में एक तारामंडल को पार कर लेता है और फिर दूसरे किसी तारामंडल (राशि) में चला जाता है। उन तारामंडलों पर उसने ध्यान दिया तो पाया कि उनमें कुछ तारे अधिक चमकते हैं तो कुछ दूसरे तारे मंद दिखाई देते हैं। फिर भी वे सब अपने समूह में ऐसे स्थिर होते हैं मानों वहाँ मोतियों जैसे जड़े हुए हों। अपने इन आविष्कारों को अब तक वह स्वयं ही स्मरण रखा करती थी, और कोई था भी कहाँ जिससे वह कहती! और वह भी चित्रस्मृति (photographic memory) में ही। किन्तु उसके उस अतिथि मित्र के आगमन के बाद से उसने कितनी ही रात्रियों में इंगित से उसे दिखाया और उसके द्वारा चट्टानों पर अंकित रेखांकन भी जब उसे दिखाए तो वह चकित रह गया। उनके पास भाषा और शब्द तो नहीं थे, किन्तु भावों और अर्थ की अभिव्यक्ति बहुत सशक्त ढंग से कर सकते थे। अनायास ही वह चित्र पर उंगली रख कर 'इदं' 'इदं' कहने लगती। और अपने लिए 'अहं' का प्रयोग भी इसी तरह करने लगी थी। और उसने भी 'अहं' पद का प्रयोग स्वयं को इंगित करने के लिए करना सीख लिया था। और वैसे ही उन्होंने 'तत्' पद का आविष्कार भी कर लिया था। और फिर 'अहं' तथा 'तत्' को मिला कर 'तुम' जो कि बाद में कब 'त्वम्' बना उन्हें पता ही नहीं चला!

दोनों एक दूसरे से इतने घनिष्ठ और अन्तरंग हो चुके, तो एक दिन उसने उसे वर्णलिपि सिखाना प्रारंभ किया। उसे इसका प्रयोजन तो समझ में नहीं आया किन्तु जब वह प्रत्येक वर्ण को रेत पर अंकित करते हुए उस विशिष्ट वर्ण का उच्चारण भी करता तो उसे समझ में आने लगा कि यह चित्र-संकेत और यह उच्चारित ध्वनि एक दूसरे को व्यक्त करते हैं। इनका कोई अर्थविशेष नहीं है। ये किसी वस्तु का चित्र या नाम भी नहीं हैं। जैसे कि  🌙  चाँद का चित्र है और ☀  सूर्य का, वैसे ही 'अ' की तरह से चित्रित वर्ण, 'अ' ध्वनि का सूचक है। अत्यन्त रोमांचित हो उठी थी वह, यह समझकर कि ध्वनियों को भी चित्र से व्यक्त किया जा सकता है और चित्रित वर्णों को ध्वनि से!

यहाँ से उनका  "वेदाभ्यास" प्रारंभ हुआ था।

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January 27, 2025

The Saga and The Sage.

प्रागृषि

आदि, आदिम और सनातन

उस नितान्त एकाकी जीवन में, जब ये लोग यहाँ नहीं आए थे, वह सुखी या दुखी नहीं थी, वह सुरक्षित और असुरक्षित भी नहीं थी, क्योंकि सब कुछ अनिश्चित और अप्रत्याशित और अज्ञात था।

उसने पत्थर और रेत पर चित्र उकेरे और पक्षियों तथा चिड़ियों की ध्वनियों में स्वर संधान किया। यह सब बाद में उसके आने के बाद एकाएक और भी विकसित और समृद्ध, सार्थक और सुखद हो गया।

उसके एकाकी जीवन में पहले कला का प्रस्फुटन हुआ, और वह बस प्रकृति की ही एक अभिव्यक्ति थी। हाँ, वह मनुष्य की आकृति में एक स्त्री भी अवश्य थी। और जब उसके जीवन में एक पुरुष का आगमन हुआ तो उसे पता चला कि पुरुष के पास जो बुद्धि होती है उसका आयाम, सीमा और प्रकृति उससे बहुत भिन्न है जैसी कि उसकी अपनी प्रकृति थी।

पुरुष की बुद्धि खंडित होती है जबकि स्त्री या नारी की बुद्धि नहीं, प्रकृति / स्वभाव, एक अखंड प्रवाह होता है। क्योंकि स्त्री नित्यतृप्ता होती है, विस्तीर्ण और प्रवाहमय होना ही उसका जीवन होता है जबकि पुरुष की बुद्धि संकुचित और सीमित, क्षण क्षण और इसलिए असंतुष्ट, अतृप्त और अपूर्ण होती है। फिर भी दोनों ही दूसरे के अभाव में अपूर्ण ही होते हैं - स्त्री भी और पुरुष भी। और अन्त तक, जीवन के विलीन हो जाने तक ऐसे ही अपूर्ण रह जाते हैं। जीवन की वह निजता और पूर्णता, जो कि एक पहचान की तरह चेतना में कभी चेतनता की तरह उभरती है उसे जन्म कहा और माना जाता है और वही पहचान एक दिन जब विलीन हो जाती है, उसे मृत्यु कहा और माना जाता है। जन्म सदा अपना और अपनी किसी पहचान का ही होता है जबकि मृत्यु सदैव किसी दूसरे की ही होती है। निजता और जीवन इस तरह और इसीलिए एक दूसरे के पर्याय हैं।

तो उन दोनों के बीच संपर्क ही संवाद था जीवनरूपी एक ही नदी के दो तट थे वे दोनों।

जब उनमें परिचय प्रगाढ हो चुका था तो वे चित्रों और मुखमुद्रा के इंगितों से परस्पर संवाद करते थे। तब समय नहीं होता था। तब समय नहीं था। तब न तो अतीत और न ही भविष्य नामक किसी वस्तु का अस्तित्व था। संभव भी नहीं था, क्योंकि वे निपट, नितान्त वर्तमान में ही जी रहे थे। और तब उसका परिचय भाषा से हुआ। परिचय प्रवाह था, और भाषा बुद्धि थी। और तब इसके बाद ही समय की अवधारणा का जन्म हुआ। कल एकाएक ही असंख्य कल बन गए। अतीत के, और भविष्य के। तब लिपि का उद्भव और उद्गम हुआ। वाणी तो पहले भी थी। वाणी के साहचर्य से ध्वनियाँ सार्थक हुई। और लिपि के साहचर्य से विचार - जो पुरुष था / है, वाणी जो स्त्री थी / है। तब वस्तुओं का नामकरण हुआ। और फिर बाद में ही भावनाओं का भी। वस्तुएँ मूर्त / साकार थीं / हैं / होती हैं,  भावनाएँ जो अमूर्त / निराकार प्रवाह मात्र होती हैं। जैसे ही भावनाओं को वाणी मिली संगीत और संघर्ष का आरंभ हुआ। पता नहीं कि क्या यह मनुष्य का सौभाग्य था, दुर्भाग्य या एक दुर्घटना!

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As The River Moves On!

यह कुछ ठीक है! 

तो अब उस लड़की की कहानी को आगे बढ़ाया जाए जो कि संयोग से या किन्हीं और अज्ञात कारणों से समाज से बहुत दूर प्रकृति की गोद में प्राकृतिक रीति से पली-बढ़ी, और फिर किसी ने उसे वहाँ पाया, तो उसे अपना लिया और उसका जीवन सिरे से बदल गया।

इस कहानी की प्रेरणा और प्रयोजन भी यह विचार, और यह खोज करना है कि आदिम / आदि मानव की प्रकृति, संस्कृति और धर्म  क्या और कैसा रहा होगा!

और कहानी स्वयं ही अपना रास्ता खोजती हुई आगे बढ़ रही है। किसी नदी की तरह। मैं न तो जानता ही हूँ, और न ही यह चाहता हूँ कि यह किसी विशेष दिशा में अग्रसर हो। मैं बस देख रहा हूँ कि यह कहाँ तक और कैसे, किस प्रकार से वहाँ तक जाती है!

और यह प्रसन्नता भी मेरे लिए पर्याप्त है।

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One By One.

उसी क्रम में

तो तय हुआ कि कि ब्लॉग लिखने की शैली में बदलाव लाया जाना आवश्यक है। जैसे कि ब्लॉग में लिखे पोस्ट के शीर्षक को अंग्रेजी में ही लिखना है। इसका कारण है कि यदि इसे हिन्दी या किसी दूसरी भाषा में लिखा जाए तो इसे मिलनेवाली लिंक की रचना बहुत लंबी हो जाती है जिसमें % का चिन्ह पुनः पुनः दिखाई देता है। तब इसे 'शेयर' करना भी असुविधाजनक लगता है!

ऐसे ही एक और विचार मन में है। वह यह कि  labels की संख्या कम से कम हो। जिसे रुचि होगी वह स्वयं ही खोज लेगा!

कौन या कोई मेरे ब्लॉग्स देखता है या नहीं देखता, यह मेरी समस्या नहीं है। 

यह पोस्ट इसी बारे में है।

शायद ऐसे ही कुछ बदलाव भविष्य में और भी किए जा सकते हों! 

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Moving Forward Onto!

चरैवेति चरैवेति

विगत पाँच वर्षों से यह अनुभव होता रहा है कि अब मैं थक चुका हूँ।

ब्लॉग लिखने की अपनी मर्यादाएँ हैं यह भी सच है। रोज ही कोई न कोई प्रेरणा जागृत होती रहती है। लगता है कि है कि कुछ और महत्वपूर्ण ऐसा छूट गया है जिसे कि लिखा जाना आवश्यक है। जब से डेस्कटॉप ठप हो गया है तब से मोबाइल पर ही ब्लॉग लिखता रहा हूँ। तो कुछ न कुछ वर्तनी की भूलें अन्त तक रह ही 

जाती हैं। तो अब उन्हें सुधारने का हठ करना छोड़ दिया है। क्योंकि यदि इस पर ध्यान दिया जाए तो वह जो कि मुझे महत्वपूर्ण प्रतीत होता है विस्मृत हो जाता है और फिर हमेशा के लिए खो जाता है।

उदाहरण के लिए पिछला पोस्ट।

जितनी सुविधाएँ हैं उतनी ही कम हैं। जितना लिख पाता हूँ उतना भी बहुत है। और आग्रह भी नहीं है कुछ लिखते रहने का। मुझे लगता है कि यह प्रश्न मेरे जैसे उन सभी ब्लॉग्स को परेशान करता होगा जो केवल लिखते रहने में ही प्रसन्न हैं। किन्तु जब ब्लॉग के पाठकों को परेशानी हो जाती होगी तो यह भी कोई अच्छी बात तो नहीं है!

यह पोस्ट सिर्फ इसी बारे में है।

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January 26, 2025

नया जीवन क्रम!

भाषारहित संवाद

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उसे यहाँ आए हुए बहुत दिन बीत चुके थे। इस बीच एक दिन उसने अपने पास रखी वृक्षों के छिलकों से बनी हुई थैली को खोला ओर उसमें से वृक्षों के पत्तों से बनी हुई एक और छोटी थैली में से चकमक पत्थर निकाले। उन्हें आपस में रगड़कर आग पैदा की और कुछ सूखे पत्तों, छोटी-बड़ी लकड़ियों की सहायता से उस आग को और भी अधिक प्रज्वलित कर लिया। आश्चर्यचकित होकर देर तक मुग्धभाव से उसे देखता रही फिर दौड़कर पास की उस गुफा में गई जहाँ कुछ कंद रखे हुए थे, जिन्हें कि वह रोज ही आसपास के जंगल से ले आया करती थी। उन्हें आग में भूनकर उनके जले हुए छिलकों को सावधानी से उतारा, एक धारदार पत्थर से उन्हें कुशलतापूर्वक काटा और फिर उसके सामने रख दिया। वैसे तो वह रोज ही इन कंदों को दूसरी पत्तियों आदि के साथ खाती रहती थी, किन्तु आज का आनन्द तो अप्रत्याशित, अकस्मात रूप से मिला था। दोनों जब तृप्त हो गए तो प्रेम के ज्वार का आवेग तीव्र हो उठा ओर दोनों उसमें डूब गए। पता नहीं कब तक वे प्रेम क्रीडा में डूबे रहे, फिर थककर सो गए। अब यह प्रायः प्रतिदिन का खेल था। यहाँ तक कि इसमें दिन और रात्रि की व्यवधान भी नहीं था। जब नींद पूरी हो जाती तो वे उठकर वन में वृक्षों, झरनों और घास तथा वनस्पतियों के बीच घूमते रहते। कभी साथ साथ, कभी अलग अलग भी, किन्तु फिर वहीं लौट आया करते थे। उसके प्रिय एक दो स्थान और भी थे जहाँ पेड़ों पर मधुमक्खियों ने बड़े बड़े छत्ते बना रखे थे, जिनसे शहद टपकता रहता था। वह अपने अतिथि को वहाँ पर भी ले गई। और फिर एक दिन ऐसा भी आया जब वह बहुत देर तक नहीं लौटा था, तो उसे उसकी चिन्ता होने लगी थी। वह फिर थककर सो गई। फिर दिन उगने पर भी वह नहीं आया, दूसरे तीसरे दिन भी नहीं आया तो इन सारे दिनों में वह व्याकुल होकर उसे खोजती यहाँ से वहाँ भटकती रही थी। क्या वह अब कभी नहीं आएगा! इस अज्ञात भय से उसकी व्यथा और व्यग्रता असहनीय हो उठी। बहुत दिनों तक इसी प्रकार जीवन बीतना रहा। कष्टप्रद और पीड़ाप्रद। फिर एक दिन वह अचानक प्रकट हुआ। उसके साथ दो तीन पुरुष, चार पाँच बच्चे और दो तीन स्त्रियाँ भी थीं। कोई युवा तो कोई वृद्ध। उसका सारा विषाद और दुःख पलक झपकते ही विलीन हो गया। सब उसका ही तो समुदाय था। तब भी सबने मुस्कुराकर एक दूसरे का परिचय पाया। हाँ, सभी उससे लिपट गए थे, बच्चे, युवा और वृद्ध भी। सभी पुरुष और सभी स्त्रियाँ। इतना और ऐसा आह्लादपूर्ण अनुभव उसे जीवन में पहली बार प्राप्त हुआ था। यद्यपि वन के बहुत से पशु पक्षी प्रायः उससे लिपटकर अपनी प्रीति की अभिव्यक्ति किया करते थे, और इस नवागंतुक नवयुवक से ऐसा अनुभव पहले ही दिन से उसे मिलता रहा था, किन्तु आज का उल्लास और आनन्द अत्यन्त अद्भुत् था। उसने तो कभी इसकी कल्पना तक नहीं की थी। अपने जन्म से ही और इतने अधिक वर्षों से नितान्त एकाकी, उदास और शून्यप्राय सा जीवन जीते हुए यूँ तो वह उस जीवन से अभ्यस्त हो चुकी थी, किन्तु एक अतिथि ने एक दिन अकस्मात् उसके उस एकान्त के द्वार पर ऐसी दस्तक दी कि वह अचंभित रह गई। और फिर वह एक दिन बिना उससे कहे उससे बहुत समय के लिए बहुत दूर चला गया था और आज अचानक लौट भी आया था। आश्चर्य, सुख और दुःख के अप्रत्याशित धक्कों से उसका मन स्तब्ध, एक दृष्टि से व्याकुल, हर्षित और उद्वेलित भी था। पर अब वह बस भावविभोर थी। उनके पास नया कुछ था तो वह था आग नामक वस्तु, वन्य जीवों के चर्म से बने वस्त्र, पत्थरों और लकड़ियों और हड्डियों से बने कुछ अस्त्र शस्त्र आदि। सबसे मिलकर दो तीन दिनों में जंगल से वृक्षों की लकड़ियाँ लाकर, और लताओं से उन्हें बाँधकर अच्छी सी कुटियाएँ निर्मित कर ली थीं। उनमें ऐसे द्वार भी थे जिन्हें भीतर से बन्द भी किया जा सकता था, यद्यपि वह शुरू में इसका प्रयोजन ठीक से समझ नहीं सकी थी। फिर शीघ्र ही उसे यह समझ में आया कि अधिक शीत, तीखी धूप और भीषण आँधी-बारिश और पानी में यह सब कितना सुरक्षाप्रद और सुखप्रद भी है। अब तक तो उसे अपने निर्वस्त्र होने का कभी न तो भान ही था, न कोई संकोच या भय। किन्तु अब चर्म के वस्त्रों को पहनने-ओढ़ने के इन नये अनुभवों से वह अभिभूत थी।

उन लोगों के साथ कुछ भेड़ें,  बकरियाँ और गायें भी थीं, और वे सब लोग उनके लिए भी गोशाला निर्मित करने में जुट गए थे। बहुत से पेड़ों के नीचे की जमीन साफ सुथरी की गई, उन पर लकड़ी के खूँटी गाड़े गए और उन सब पशुओं को उन खूँटों से बांधकर उनके सामने उनके खाने के लिए घास, चारा, पत्तियाँ रखी गईं।

उसका जीवन और जीवन-चर्या एक ही दिन में सिरे से बदल गई थी। उन भेड़ों, बकरियों, गायों की देखभाल किया करती, उन्हें दुहती और उनके साथ आत्मीयता से निःशब्द संवाद करती। अभी तो गर्मियाँ थी इसलिए उन लोगों ने जो ऊनी वस्त्र उसके और उनके अपने लिए भी लाए थे उनका उपयोग करने का प्रश्न नहीं था। उन भेड़ों की ऊन को तेज धार वाली लोहे की कैंचियों से काट लिया गया जिससे उन्हें भी राहत मिली। तो ये लोग लोहे को खनिज पत्थरों को भट्टी में गलाकर उससे औजार भी बनाने में माहिर थे। किन्तु यह सब उसे उस समय नहीं पता था। धीरे धीरे बहुत समय बाद यह रहस्य उसे पता चला। उन युवतियों और वृद्धाओं ने उसे कड़ी के कंघे को प्रयोग करना सिखाया और उसे पता चला कि मनुष्य का जीवन कितना सुखपूर्ण और समृद्ध हो सकता है। अब उसके दिन रात जिस तरह से गुजर रहे थे उसका इससे पहले उसने कभी स्वप्न तक नहीं देखा था।   

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On The Other Side Of The Hill.

पर्वत के उस पार

जब वह पहली पर्वत के उस पार से इस पार आया था तो उसने उसे देखा था। दूर पर स्थित वह स्त्री आकृति, जो पहाड़ी पर किसी समतल भूमि पर बैठी हुई थी और जो किसी कार्य में इतनी अधिक निमग्न थी कि उसे उसके आने का आभास तक नहीं हो पाया था,  इसलिए थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के बाद वह वहाँ से लौट पड़ा था। जब वह उससे काफी दूर जा चुका था तब उस स्त्री का ध्यान उस पर गया था और वह कौतूहल, उत्सुकता, भय और रोमांच से व्याकुलतापूर्वक उसकी दिशा में खिंचती चली आ रही थी। शायद उसने उसे पुकारा भी होगा ऐसा उसे प्रतीत हुआ। फिर बहुत दिनों तक उसे पर्वत के इस पार, इतनी दूर तक आने का साहस नहीं हुआ। प्रतिदिन वह इस तरफ आने के बारे में स्मरण तो करता रहता, किन्तु कुछ सोच पाने में अक्षम था। क्योंकि कुछ सोच सकने के लिए कोई भाषा और सार्थक शब्दों का आधार होना आवश्यक होता है। उसके समूह में ऐसे कोई शब्द और कोई भाषा अभी अस्तित्व में आए ही कहाँ थे! वे लोग केवल आँखों और मुखमुद्राओं से अपनी भावनाओं को व्यक्त और ग्रहण करते थे। उन्हें अग्नि का ज्ञान था और धनुष बाण तथा गदा इत्यादि चलाने में भी वे निपुण थे। उनकी संस्कृति में यद्यपि विवाह नामक संस्था की कोई कल्पना या अवधारणा तो नहीं थी, किन्तु पुरुष-स्त्री के परस्पर संबंधों में बारे में वे सभी संकोचशील, लज्जालु, निश्छल और निष्कपट थे। प्रेम की पवित्रता उनकी दृष्टि में सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी और यौन संबंध अपेक्षाकृत गौण वस्तु थी। इसलिए स्त्रियाँ हों या पुरुष सभी प्रायः परस्पर समर्पित भावना से युक्त होते थे। हंस उनके लिए ऐसे आदर्श थे जिन्हें वे आध्यात्मिक समर्पणयुक्त प्रेम का के सर्वोच्च उदाहरण की तरह देखते थे और इस प्रकार का प्रेम उनके स्वभाव में उसी प्रकार अन्तर्निहित ही था जैसा उन्हें हंस-युगलों में भी दिखलाई देता था। इसलिए स्त्री-पुरुष के यौन संबंधों में छल कपट या दुराचार आदि उनमें ग्लानि और क्षोभ उत्पन्न कर देता था, और हंसों की ही तरह वे भी एकनिष्ठा के व्रती थे। यह उनका धर्म ही था, न कि सामाजिक नैतिकता के मूल्यों या बाध्यताओं आदि से परिभाषित भय और लोभ, अधिकार,  प्रतिष्ठा और प्रतिस्पर्धा पर आधारित कृत्रिम चरित्र। संभवतः कुछ लोग, कुछ स्त्रियाँ और कुछ पुरुष भी, अपवाद भी  होते होंगे और ऐसा करने के लिए यद्यपि स्वतंत्र भी, होते होंगे, चूँकि इससे उनके मन में स्वयं के प्रति ग्लानि और क्षोभ भी उत्पन्न होता होगा, न तो कोई किसी की निन्दा करता था, न किसी को हेय दृष्टि से देखता होगा। समय के साथ हर कोई स्वयं ही परिपक्व हो जाता होगा। न तो समाज उसे कोई दंड देता था न उसका उपहास, निन्दा या भर्त्सना करता था। शायद यही कारण रहा होगा कि उस "आदिम" समाज में हर स्त्री को पूर्ण सम्मान और  आदर प्राप्त था, जहाँ हर मनुष्य ही उन सारे मनोरोगों, यौन कुंठाओं तथा ग्रन्थियों से मुक्त रहता होगा जो आज के हमारे तथाकथित सभ्य, उन्नत और प्रगतिशील समाज में सर्वत्र विद्यमान हैं। तब स्त्री पुरुष एक दूसरे के भोग की विषय नहीं प्रेम, स्नेह और मैत्री का आधार थे। और दाम्पत्य इसी प्रेम की नींव पर निर्मित भवन या मन्दिर भी था।

तब उसका समाज गौवंश और कृषि कार्य पर आधारित समाज था जिसमें ज्ञान के सभी क्षेत्रों का समावेश होना अपरिहार्यतः आवश्यक था। ज्ञान ही सदैव उनके इस सतत परिवर्तनशील दृश्य-विश्व का अदृश्य और अमूर्त अधिष्ठान था और कृषि उसका व्यक्त प्रकट रूप। कृषि कर्म था और ज्ञान ही शक्ति था। और कर्म और ज्ञान, उन दोनों की प्रेरणा थी चेतनता अर्थात् जीवन और जीवन का उत्स जो जिसकी पराकाष्ठा था एकमात्र उत्सव। इस उत्सव की अभिव्यक्ति असंख्य रूपों में हुआ करती थी। यह था सनातन उत्सव जो उनका धर्म ही था। यह समाज की परंपरा भी था। धर्म और परंपरा अनन्य और अभिन्न तथा परस्पर आश्रित वास्तविकता और अनन्य निष्ठा थे। वे जीवन में सतत अनुसन्धान करते हुए उसके सौन्दर्य में अनायास ही सदा अभिवृद्धि किया करते थे इसलिए उस समाज में आक्रोश के लिए कहीं स्थान ही न था। न तो असंतोष, न आक्रोश, न कुंठा, न प्रतियोगिता, और न ही प्रतिशोध। इस एकनिष्ठा का दर्शन ही एकमात्र प्रेरणास्रोत था और इसलिए दाम्पत्य भी इतना ही पवित्र और आदर्श धर्म और चरित्र भी था। जो अनायास ही उनके हृदय से उमंग की तरह उमड़ता रहता था। यह द्वैत में अद्वैत तथा अद्वैत में द्वैत का प्रत्यक्ष प्रमाण और उदाहरण भी था। यही उनकी वह' अलिखित जीवन चर्या / unwritten code of conduct  था जिसे वे सहज ही व्यवहार में लाते थे और इसलिए उन्हें आचरण में नैतिकता क्या है और अनैतिकता क्या है, सभ्यता, शिष्टता, आत्मीयता, आदर क्या है यह समझने के लिए बौद्धिकता पर निर्भर होने की आवश्यकता ही नहीं होती थी।   

वह भी इसी प्रकार की रुचि रखनेवाला एक मनुष्य था, जिसे वे "ब्राह्मण" कहा करते थे। एकनिष्ठता के व्रत पर आधारित वंश-परंपरा की शुद्धता के कारण उस समाज में शेष लोग भी व्यवसाय, आजीविका और उससे जुड़े विभिन्न कार्यों की प्रकृति के अनुसार चार मुख्य वर्णों से अपनी पहचान स्थापित करते थे, और यद्यपि एक ही वंश में उत्पन्न कोई भी मनुष्य किसी दूसरे वर्ण का कार्य अपनी रुचि के अनुसार आजीविका और व्यवसाय के लिए कर सकता था, किन्तु इससे किसी को किसी और से अधिक या कम श्रेष्ठ नहीं समझा जाता था। यह एक अलिखित आचरण-पद्धति (unwritten code of behavior and conduct) था, और प्रत्येक और सभी इसे स्वीकार करते थे।

वह अभी युवा ही था कि संयोगवश पर्वत के उस पार से इस पार चला आया था जहाँ उसने इस युवती को देखा था और दोनों के बीच प्रेम का पदार्पण हुआ।

वह भी उसकी ही तरह रोमांचित और विस्मित था। "ब्राह्मण" होने पर भी उसने इस स्त्री के वंश और माता पिता के बारे में कोई प्रश्न नहीं उठाया और वस्तुतः तो उसे इस सबकी कल्पना तक नहीं थी। क्योंकि तब वहाँ 'विवाह' की कोई औपचारिकता या बाध्यता का भी प्रश्न नहीं था।

जब उससे पहली बार उसकी भेंट हुई थी, तो अवश्य ही अपरिचय के कारण संकोच और भय, विस्मय आदि थे, किन्तु एक बार एक दूसरे से परिचय होने के बाद दोनों ही एक दूसरे के आत्मीय हो गए थे।

तब वे केवल भाव-भंगिमाओं और नेत्रों से ही संवाद करते थे जिसका प्रभाव तुरन्त ही होता था! जैसे वह उसकी अनुगामिनी थी, वह भी वैसे ही उसका अनुगामी था और दोनों ही बिना शाब्दिक संवाद के वैसे ही एक दूसरे के मनोभावों को समझ लेते थे जैसे वह अब तक पशु पक्षियों और यहाँ तक कि वृक्षों तक की भावनाएँ समझती रही थी। बहुत बाद में इसी आधार पर तंत्र विकसित हुआ और फिर यंत्रों तथा मंत्रों से इस विद्या का शास्त्रीय तकनीकी स्वरूप सामने आया। इस बारे हम अगले पोस्ट में विस्तार से विचार करेंगे। 

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January 24, 2025

गिरिकन्या

प्रथम प्रेम

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उसे नहीं पता था कि उसका जन्म कब हुआ होगा।

जब से उसने आँखें खोली थीं, कुछ समय तक वह एक नवजात शिशु की तरह रोती रही थी। फिर उसने धीरे धीरे साँस लेना शुरू किया था। यह शायद इसलिए संभव हुआ होगा क्योंकि रोने के क्रम में (उसके) प्राणों ने वायु को पीना और शरीर से श्वास के माध्यम से निष्कासित करना भी प्रारंभ कर दिया था। यह बिलकुल और पूरी तरह एक  स्वाभाविक प्रक्रिया थी, जिस पर तब उसका ध्यान ही नहीं था। कुछ समय तक ऐसा होते रहने के बाद उसके प्राणों ने वायु से नमी को पीना शुरू कर दिया और तब उसकी देह में हो रहा प्राणों का संचार और अधिक फैलने लगा। तब अपने प्राणों की हलचल से उसमें संवेदन का एक नया प्रकार प्रकट हुआ। अर्थात् वह अब आँखें खोल सकती थी। उसे रात्रि का आकाश दिखलाई देने लगा था और उसमें उस समय चमचमा रहे अनेक छोटे बड़े तारे भी उसे दिखाई दिए। उन बहुत से तारों के बीच एक बहुत बड़ी गोलाकार चमकदार वस्तु भी थी, जो सबसे अधिक प्रकाशित थी। कहना न होगा कि वह चन्द्र था। 

साँस के माध्यम से वायु का सेवन और निष्कासन एक नैसर्गिक कार्य था। इसी तरह साँस के साथ वायु की नमी भी उसमें प्यास पैदा कर रही थी और वही उसकी प्यास बुझा भी रही थी। तब उसके हाथों ने किसी कोमल वस्तु का स्पर्श पाया और अनायास उसके हाथों ने उस वस्तु को उसके मुख में रख दिया। इस कोमल वस्तु में कोई हलचल नहीं थी क्योंकि वह पका हुआ एक फल था जो कि हवा से वृक्ष से टूटकर नीचे गिर गया था। उस मधुर और मादक सुगंधयुक्त फल को चखते हुए असीम आनंद की अनुभूति उसे हुई और फिर उसकी भूख जागृत हुई। यह सब कुछ समय तक चलता रहा फिर उसे नींद आने लगी थी, और वह कब सो गई उसे याद न रहा। जब कुछ समय बाद नींद खुली तो नींद आने से पहले की इन सभी घटनाओं की स्मृति से वह आश्चर्य-चकित थी। स्मृति के सातत्य से उसकी चेतना में मन नामक एक अन्तर्जगत् प्रकट हुआ जो उसके द्वारा अनुभव किए जा रहे और उसे दिखाई देनेवाले बाह्य जगत् की निरंतर परिवर्तित हो रही स्थितियों की प्रतिछवियों का एक क्रममात्र था, न कि कोई स्वतंत्र वास्तविकता। अन्तर्जगत् और बाह्य जगत् दोनों ही सतत परिवर्तित हो रहे आभास थे जिनके बीच उसे अपने होनेमात्र का निजता का अपरिवर्तनशील और  अविकारी भान ही एक सेतु था जिस पर चलकर मानों वह कभी अपने आपको अपने स्वयं से भिन्न अन्तर्जगत् या बाह्यजगत् नामक इन वस्तुओं के बीच आती जाती रहती थी। और तब उसमें बुद्धि अर्थात् विभिन्न वस्तुओं के बीच तुलना करने की क्षमता का आविर्भाव हुआ। तब उसके अन्तर्जगत् में उसके आधार के रूप में विद्यमान अपनी निजता का भान उसे विस्मृत हो गया और अपनी स्मृतियों की सकलता से उत्पन्न स्वयं के 'कुछ' होने का एक नया प्रत्यय (perception) उसके अन्तर्जगत् में जागृत और सक्रिय हो उठा।

अब प्रतिदिन ही इन अनुभवों और स्थितियों का यह क्रम उसकी जीवनचर्या बन चुका था।

किन्तु उस पर्वत / पहाड़ी पर वह नितान्त अकेली थी। वह इससे भी अनभिज्ञ थी और उससे इसकी कल्पना तक नहीं थी कि क्या उसके जैसे और भी कोई 'मनुष्य' जैसे 'जीव' बाह्य जगत में कहीं हैं भी या नहीं। प्रकृति उस पर दयालु थी और किसी दुर्लभ संयोगवश उस पर्वत / पहाड़ी पर रहनेवाले किसी वन्य हिंसक जन्तु ने कभी उस पर आघात नहीं किया था इसलिए वह अब तक  जीवित और सुरक्षित थी। वह अब उन वनस्पतियों को पहचानने लगी थी जिन्हें खाकर वह उम्र के चार पाँच वर्ष जी चुकी थी।  पर्वत पर वह निश्शंक और निर्भय होकर विचरण करती रहती, पानी के निर्झरों से प्यास बुझाती और फल, पत्ते आदि खाकर प्रसन्न रहती। उसमें अभी यद्यपि सोच विचार तो उत्पन्न नहीं हुआ था किन्तु दिन रात और सुबह शाम के क्रम की तरह उसमें ऋतुओं के क्रम की स्मृति बनने लगी थी। वह आसपास की प्रकृति को अपलक देखता रहती और पत्थरों, फूलों, पत्तियों आदि को किसी क्रम में रखकर अनेक चित्रों की रचना करती रहती। बहुत समय इस प्रकार बीत जाने पर एक दिन वह एक झरने के मुहाने तक पहुँच गई तो उसने वहाँ पर पानी के एक स्वतःस्फूर्त स्तम्भ को धरती से निकल ऊपर की दिशा में कुछ ऊँचाई तक जाते और फिर वहाँ से अनेक धाराओं में चारों ओर बिखरकर पुनः धरती पर गिरते देखा। यद्यपि पानी का वह सोता उससे बहुत दूर था, वह उसके समीप तक पहुँची और उसकी धाराओं में अभिषिक्त होने लगी। अब तो यह नित्य का क्रम हो चला था। फिर वह कभी कभी खेल या कौतुकवश ही उसमें स्नान करती। इस सबके बीच अपनी निजता की नित्यता का उसका सहज भान क्रमशः धुँधला और विस्मृत होता चला गया था और इसका स्थान अपने अन्तर्जगत् और बाह्यजगत् के नित्य होने की एक नई भावना, कल्पना और प्रतीति (perception), प्रत्यय के रूप में प्रकट संवेदन ने ले लिया था। अब उसे भीतर का अन्तर्जगत् और बाहर का बाह्यजगत् नित्य विद्यमान वास्तविकता प्रतीत होने लगे थे अर्थात् उसमें उनकी इस संसार के रूप में प्रतीति ने उनकी नित्य सत्यता की मान्यता और फिर दृढ निष्ठा का रूप ले लिया था। तब उसमें जिज्ञासा जागृत हुई कि क्या 'इस सब' का अधिष्ठाता, इसे बनाने, बनाए रखने और अन्त में (संभवतः) मिटा देनेवाला भी 'कोई' है, जिसमें वह और उसका 'संसार' अस्तित्व ग्रहण करते और बने भी रहते हैं?

अभी तक वह विभिन्न सांसारिक वस्तुओं की आकृतियाँ बनाया करती थी, किन्तु अब उसमें और एक नितान्त नई कल्पना यह उठी कि 'क्या' वह उस 'कोई' की आकृति बना सकती है जो उसे और उसके संसार का रचयिता हो सकता है! पहले तो उसने उसकी आकृति विभिन्न प्रकार के प्राणियों के रूप में बनाने का प्रयास किया किन्तु जब उसे हर उस आकृति या प्रतिमा में कुछ अधूरापन दिखाई देता था तो वह उसे 'मिटा' दिया या उसका परित्याग कर दिया करती थी। किन्तु अन्ततः उसने एक ऐसी आकृति की रचना कर ली जो अपने आपमें सब प्रकार से 'पूर्ण' प्रतीत हो रहा था। वह एक ऐसा पिण्ड था जो कि दीपक की लौ या अग्नि की ज्वाला की आकृति में था। किन्तु उसे पुनः यह भी लगा कि यह भी सीमायुक्त किसी वस्तु की तरह, इस दृष्टि से 'अधूरा' ही तो था। इसे असीम और अखण्ड की आकृति के रूप देने के लिए उसने इसे उगते हुए सूर्य की अर्धाकृति में बनाया और पुनः उसे 'व्यक्ति' का रूप देने के लिए स्थाणु की आकृति प्रदान की। यह था उसका आदर्श 'वह' कोई जो उसके और उसके जगत् का रचयिता और स्वामी हो सकता था। इसे उसने कोई नाम नहीं दिया क्योंकि उसके पास कोई शाब्दिक भाषा नहीं थी जिसमें वह किसी भी वस्तु के लिए कोई नाम या संज्ञा सुनिश्चित कर सके। सच तो यही है कि वह यद्यपि कुछ ध्वनियों का उच्चार करने लगी थी और उन विभिन्न ध्वनियों की तुलना दूसरे जीवों और जड वस्तुओं आदि के द्वारा उत्पन्न की जानेवाली ध्वनियों से करने पर उसने अपनी एक 'ध्वन्यात्मक' भाषा का आविष्कार भी कर लिया था, जिसे केवल वही बोला और समझा करते थी।  किन्तु उसके आसपास के अनेक प्राणियों के द्वारा व्यक्त संकेतों से उनकी भाव भंगिमाओं और ध्वनियों आदि से वह अब कुछ ध्वनियों का आदान प्रदान कर उनसे भी थोड़ा बहुत बातचीत करने लगी थी। विभिन्न अनुभवों और स्मृति में उनके तारतम्य के आधार पर उसने 'समय' का आविष्कार कर लिया और 'समय' के संदर्भ में वह घटनाओं को परिभाषित कर उनके बीच के 'समय' को अतीत, वर्तमान और भविष्य में विभाजित कर सकती थी। 

पत्तियों, पत्थरों और नदी, पर्वत, पहाड़ी, वृक्षों, लताओं और  भिन्न भिन्न पशु पक्षियों की आकृतियों की रचना करते हुए वह दस बारह वर्ष की हो गई तो वह पहली बार रजस्वला हुई। और दो तीन दिनों के बाद रक्तस्राव अपने आप बंद भी हो गया।  ऐसा दो तीन महीनों तक होने पर उसे यह स्पष्ट हो गया कि यह भी ऋतुओं की तरह का एक क्रम है। अब उसमें एक अद्भुत् आवेग जागृत होने लगा था। वह यह नहीं जानती थी उसे क्या हो रहा था, किन्तु पशुओं की काम क्रीडा देखकर उसे आभास हुआ कि अवश्य ही वह पशु स्त्री थी और उसके जैसा किन्तु उससे कुछ भिन्न भी कोई ऐसा हो सकता था जो पशु पुरुष होता। यद्यपि इन शब्दों से वह अनभिज्ञ थी, किन्तु कल्पना में उसे ऐसे किसी व्यक्ति के अस्तित्व की संभावना प्रतीत होने लगी थी। वह मन ही मन उस पर अनुरक्त थी और उसके मन में अपनी इस भावना और आवेग के प्रति बस आश्चर्य भर था। अभी तो वह पाप पुण्य, नैतिकता अनैतिकता, सच झूठ, छल कपट, प्रेम, राग और द्वेष  आदि के बोध से रहित थी। वह उसकी ही तरह अनाम, किन्तु कुछ भिन्न देहयष्टि के उस विशेष पुरुष का दर्शन करने के लिए और उससे मिलने के लिए बहुत उत्सुक और लालायित थी। तब बहुत दिनों बाद एक दिन संध्या समय उसे कुछ दूर ऐसे ही एक मनुष्य की आकृति दिखलाई पड़ी। वह अत्यन्त रोमांचित और स्तब्ध हो उठी। उसे हवा में उसकी गंध का आभास हुआ और उसके प्रति भय के साथ साथ एक प्रबल आकर्षण से मुग्ध होकर वह उसकी दिशा में खिंचती चली गई। जब तक वह उसके समीप पहुँच पाती, वह उसकी दृष्टि से ओझल हो चुका था। उसने उसे ढूँढने का बहुत प्रयास किया किन्तु वह पता नहीं कहाँ चला गया था। उसने उसे आवाज भी दी थी जो एक सुदीर्घ ओऽ ओऽऽ ओऽऽऽ की ध्वनि के रूप में 'प्लुत' थी। विगत कई वर्षों से वह ध्वनियों और स्वरों के आरोह- अवरोह को समझने लगी थी और उनके क्रम को अनेक प्रकारों से संयोजित करने का यत्न करते हुए उसने अनेक सांगीतिक रचनाएँ भी रच ली थीं जिनमें उसका मन रचा बसा करता था और जिन्हें बहुत से पशु पक्षी भी समझते थे और जिस पर वे अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त किया करते थे। दुर्भाग्यवश उसकी ध्वनि उस तक नहीं पहुँच पाई। वह उसकी आकृति को रेत पर या पत्थर पर उकेरा करती और बस एक निश्वास छोड़कर निराशा में डूब जाती। उसे याद आया कि जब पहले कभी उसने अपनी कल्पना में सृष्टि के रचयिता और स्वामी की आकृति की रचना करना चाहा था तो वह इसी से मिलते जुलते रूप का था। स्मरण आते ही वह और अधिक व्याकुल और अशान्त हो उठी थी। 

ऐसे ही एक दिन वह सो रही थी, उसने स्वप्न में उसे देखा। और स्वप्न में अचानक उसे देखकर जब उसकी नींद टूट गई तो उसने सामने उसे ही खड़ा पाया। वे दोनों प्रगाढ़ आलिंगन में बँध गए। बहुत समय तक उसके साथ रहने के बाद उन दोनों ने मिलकर अपनी शाब्दिक भाषा को निर्मित और विकसित किया। संगीत और स्वरों के ज्ञान और प्रभाव से समृद्ध किया और वे एक दूसरे के प्रेम में अत्यन्त ही उल्लसित और आनन्दित थे। समय ऐसा ही बीतता रहा। एक दिन अपने ही भीतर एक और जीवन के होने की आहट उसे सुनाई दी। कुछ समय बाद उसने अपने आकृति जैसी ही एक संतान को जन्म दिया, जो उसकी ही तरह एक 'स्त्री' थी। बाद में कई वर्षों में उसे और अनेक संतानें हुईं जिनमें से कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियाँ थीं।

***



January 19, 2025

Mohini.

FICTION

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नानी का घर

यह कथा कब शुरू हुई और कब समाप्त होगी कुछ नहीं कहा जा सकता है। इस कथा को समझने के लिए एक उदाहरण उपयोग में लाया जा सकता है। जैसे कि कोई वृत्तीय समतल (a flat circular disc) जो अपने केन्द्र पर घूम रहा है। जैसे कि एक स्थान पर स्थित कोई पहिया। जैसे यांत्रिक घड़ी (mechanical clock)  में अनेक छोटे-बड़े दाँतेदार गियरनुमा पहिए हुआ करते हैं, जो कि स्प्रिंग व्हील या बैलेंस व्हील से नियंत्रित होकर घड़ी के 'समय' को निर्धारित और परिभाषित करते हैं।  स्पष्ट है कि 'समय' का आभास भी, स्थान की ही तरह कल्पना पर आधारित एक धारणा / विचारमात्र होता है न कि आदि अन्त से रहित वास्तविकता। 

अपने केन्द्र के चारों ओर घूमते हुए इस वृत्तीय समतल  के अनेक बिन्दुओं में से प्रत्येक की अपनी कोणीय गति और रैखिक गति का अनुपात स्थिरांक (constant) नहीं होता है? केन्द्र से उसकी दूरी के अनुसार चूँकि एक ही समय अन्तराल में वह केन्द्र का एक परिभ्रमण पूर्ण कर लेता है, अतः उसकी रैखिक और कोणीय गति का अनुपात स्थिर होगा जिसे कि अतिपरवलीय समीकरण (hyperbolic equation) :

x.y = c.c

से व्यक्त किया जा सकता है, जहाँ  x और y रैखिक और कोणीय गति तथा c एक नियतांक (constant)  हैं।

यह उदाहरण द्वि आयामी तल पर गणितीय आकलन हुआ।  इसे ही त्रि आयामी तल पर प्रयुक्त करें तो इस आधार पर  ग्रहों और आकाशीय पिण्डों के बारे में भी कोई आकलन किया जा सकता है।

इस प्रकार समस्त स्थान बिन्दु में ही समाहित है और उस का ही विस्तार तथा संकुचन मात्र है।

रेवा तट पर घूमते हुए यही विषय चित्त में चल रहा था। यूँ कहें कि "मैं" ही वह चेतन बिन्दु है जो अत्यन्त सूक्ष्म होकर संकुचित और स्थूल होकर विस्तारित हो जाता है।

अपने इस चित्तरूपी बिन्दु के भीतर ही  काल और स्थान का आभास उत्पन्न होता है और एक संसार स्थूल शरीर के बाहर और एक स्थूल शरीर के भीतर विद्यमान है ऐसा प्रतीत होता है। क्या वस्तुतः ऐसे परस्पर भिन्न चित्त हैं या वे तात्कालिक और आभासी रूप से प्रतीत होते हैं?

कैवल्यपाद का :

निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात्।।४।। 

सूत्र यहाँ प्रासंगिक है।

योगदर्शन के इस पूरे चौथे अध्याय कैवल्यपाद में इसी विषय पर विवेचना की गई है।

अस्मिता क्या है?

साधनपाद में उल्लिखित सूत्र ५ के अनुसार -

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः।।

।।५।।

अस्मिता क्लेश है।

संक्षेप में, आभासी संसार में अस्मिता की मात्रा के साथ संलग्न चित्त असंख्य हैं।

दो तीन माह से सुविधा उपलब्ध न होने से, आलस्य या अन्य कुछ ज्ञात अज्ञात कारणों से सिर और दाढ़ी मूँछों के बाल अव्यवस्थित ढंग से बढ़ गए हैं।

नर्मदा तट पर मेरे जैसे अनेक ग्रामीण और पर्यटक आते जाते रहते हैं और प्रायः कोई किसी से इस बारे में कोई बातचीत नहीं करता।

दो दिन पहले यहाँ स्थित दुकानों में से एक पर गया तो दुकानदार से एक दो ग्राहक सामान ले रहे थे। ये सभी आसपास ऐसी ही छोटी बड़ी दुकानें चलाते हैं।

वे लोग मेरे बारे में बातें कर रहे थे, हालाँकि उन्हें मैं नहीं पहचाना। मेरा ध्यान सब्जी पर था। तब दुकानदार ने प्रश्न किया :

"कुम्भ स्नान में नहीं जा रहे हैं?"

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। 

फिर उसने पूछा :

"जाना नहीं चाहिए?"

मैंने कहा :

"(चाहिए) यह शब्द मेरी किताब में नहीं है। जा सकता हूँ या शायद न भी जा पाऊँ! मैं इस बारे में कुछ नहीं सोच सकता। जो होता है वह होता है, जो नहीं होता वह नहीं होता। और फिर यहाँ माई (नर्मदा) है न! जैसी भी उसकी मरजी!"

सामान लेकर घर / आश्रम लौटा तो ध्यान आया -

कल ही माई से पूछा था तो बोली थी -

"चले जाओ बेटा!  हो आओ नानी के यहाँ कुछ दिन!"

"नानी?"

मैं सोच में पड़ गया। फिर समझ में आया गंगा को वह "नानी" कह रही थी। ठीक ही तो है! वह (नर्मदा माई)  शिवजी की बेटी है और मैं उसका बेटा! तो गंगाजी मेरी "नानी" ही तो हुई!

पर अब संकल्पपूर्वक कुछ कर पाना मेरे लिए असंभव सा हो गया है। एक समय था जब मैं संकल्पों को उठने से रोक नहीं पाता था। फिर लगातार ऐसा होता रहा और अब भी अकसर होता है कि मन में संकल्प आते ही और उसे पूरा करने के बारे में सोचते हुए ही कोई न कोई ऐसा विघ्न आ जाता है कि संकल्प करना तक व्यर्थ अनुभव होने लगता है, उसे पूरा करना तो और भी अधिक। 

फिर भी 'समय' निरन्तर अपनी रैखिक और कोणीय गति के साथ "बीत" रहा है।

घर / आश्रम पर आकर यू-ट्यूब पर कोई न्यूज़ चैनल देख रहा था तो वहाँ रिपोर्टर "हैप्पी हैप्पी" नाम की एक बन्जारन से बातें कर रहा था। उसकी भाभी भी वहाँ आ गई जिसका नाम "रूपरेखा" है। ये लोग महेश्वर नामक स्थान में और उसके आसपास रहते हैं और रुद्राक्ष तथा दूसरे रत्नों आदि की मालाएँ बेचने का व्यवसाय करते हैं। इसलिए कुंभ मेले में उनका जाना स्वाभाविक ही है। और फिर इन बन्जारों और उनके समुदाय के लोगों की बातें होने लगीं। उनके नैन नक्श और सौन्दर्य की भी। पता चला कि बहुत से मनचले और फिल्मी हस्तियाँ भी इन पर मुग्ध हैं। फिर सलमान खान का भी जिक्र हुआ। 

याद आया कि राजस्थान में कहीं कृष्णमृग का शिकार करने का आरोप भी सलमान खान पर लगा और शायद इसलिए भी बिश्नोई समुदाय के कुछ लोग उसके शत्रु हो गए। ये बन्जारिनें भी मृगनयना हैं और विष्णु का मोहिनी रूप भी शायद यही हैं।

एक ओर तो एक वह बन्जारिन थी जो भगवान् राम की प्रतीक्षा में जैसे तैसे जीवन बिता रही थी और फिर उन्हें  जूठे बेर खिलाकर धन्य हो गई, तो दूसरी ओर ये भी हैं - बन्जारिनें, कृष्णमृग और शबरी!

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते!! 

*** 







January 08, 2025

2025

भूतो भविष्यति

08-01-2025

लगता है यह सब स्वप्न है।

हर एक जीवन, हर एक व्यक्ति का जीवन किसी भी और से कितना अलग और स्वतंत्र होता है! फिर भी असंख्य दूसरे व्यक्ति क्षण प्रशिक्षण उसके संपर्क में आते हैं और जाते रहते हैं! स्मृति ही संबंधों का और घटनाओं का भ्रम पैदा करती है, और स्मृतियों की श्रँखलाएँ अलग अलग समय पर अलग अलग रूपों में चेतना में प्रकट-अप्रकट, व्यक्त-अव्यक्त होते रहकर वर्तमान के रूप में दिखलाई देती हैं। जिसकी कभी कल्पना तक नहीं की गई होती है, वही इस क्षण ऐसा सत्य प्रतीत होता है कि आश्चर्य होता है। सब कुछ बीत जाता है और बस कुछ आनी गिनी स्मृतियाँ ही शेष रह जाती हैं। स्वयं के अलावा दूसरा कोई, कौन आपकी स्मृतियों में आपका सहभागी हो सकता है!

पिछले वर्ष 2024 के अंतिम दिन कुछ इस तरह गुजरे कि हर दिन लगता था कि क्या इस वर्ष का अंतिम दिन कभी देख भी पाऊँगा या नहीं।

और पिछले बहुत से वर्षों में ऐसा ही होता रहा। हर बार यही सोचा करता था कि यह आखिरी है।

फिर भी जीवन में निरंतरता बनी हुई है। स्मृतियों की भी और जीवन की भी। जीवन को स्मृतियों के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जा सकता है जिसमें समय समय पर भिन्न भिन्न लोगों से संपर्क हुआ और सब स्मृति के अलावा कहीं हैं भी या नहीं, कुछ कहना संभव ही नहीं है। तो भी उनमें से इने गिने ही अभी वर्तमान में स्मृति में हैं, जिनसे पुनः कुछ क्षणों, दिनों में मिलना हो सकता है। रोज ही ऐसे ही कुछ लोगों से मिलना होता रहता है और उनके नाम और परिचय की स्मृति उनके 'हमेशा' होने का आभास पैदा करती है। उनमें से बहुत से लोगों से मिलना और उनकी  स्थिति के बारे में आगे और कुछ जान पाना तक शायद ही कभी संभव हो, लेकिन जब अचानक किसी दिन पता चलता है कि वे अब 'नहीं रहे', तो उनकी स्मृतियाँ अवश्य ही इस प्रकार जाग पड़ती हैं मानों कि वे सचमुच ही कहीं कभी 'रहे' थे।

पिछला वर्ष भी ऐसा ही एक 'व्यक्ति' था। जैसे कोई भी व्यक्ति एक 'जीवन' होता है, वैसे ही हर दिन, हर क्षण,  हर वर्ष और पूरी आयु ही एक 'जीवन' ही होता है,  जो केवल स्मृति में ही अस्तित्वमान होता है, स्मृति के आते ही अस्तित्व ग्रहण कर लेता है और स्मृति के विलीन होते ही अस्तित्वहीन भी हो जाता है।

शरीर और विभिन्न परिस्थितियाँ और जीवन एक साथ कैसे बीतते हैं और पूरी तरह नया रूप ग्रहण कर लेते हैं! अगर स्मृति की निरंतरता न हो तो न तो जीवन की, न ही अपनी या औरों की, न समय, लोगों, और घटनाओं या अतीत की ही कोई सत्यता या निरंतरता संभव है।

और यह न सिर्फ अतीत के बारे में सत्य है, बल्कि जिस भविष्य का विचार और अनुमान  किया जाता है उसका अस्तित्व भी संदिग्ध ही तो है! फिर भी कोई अनुमान या कल्पना, चिन्ता या आशंका, आशा या प्रश्न कितना ठोस सत्य प्रतीत होता है! और जब उस भविष्य, उस कल्पित समय से भी सामना होता है तो वह भी समस्त अनुमानों और कल्पनाओं से कितना अलग होता है! सब कुछ ही अप्रत्याशित। यद्यपि कुछ समानता उनमें अवश्य ही पाई भी जा सकती हैं लेकिन वह भी स्मृति का ही खेल है।

समाज, विश्व, इतिहास सब कुछ ऐसा ही है।

पता नहीं कि जीवन अचल है या कि सतत गतिशील एक निरंतरता या  नित्यता है!

***