आविष्कार
उसके आगमन से पहले अपने एकाकी जीवन के पन्द्रह वर्षों में उसने बहुत समय प्रकृति के निरीक्षण में बिताया था और इन सबको रेत और पत्थरों पर चित्रों के माध्यम से अंकित भी किया था। कहना न होगा कि उसकी छवि भाषा में सुरक्षित स्मृतियों का अव्यवस्थित क्रम समय का ऐसा सर्वाधिक सदुपयोग सिद्ध हुआ, जिसकी थोड़ा भी कल्पना या अनुमान उस समय उसे कदापि नहीं था। वर्षों तक वह दिन में सुबह सूर्य के उगने से शाम को सूर्य के डूब जाने तक उसके आकाशीय पथ का आकलन करने की चेष्टा करती रहती थी। सुबह सूर्योदय से पहले और शाम को सूर्यास्त के बाद का आकाश तो उसे मुग्ध करता था। और एक दिन अकस्मात् उसे इस तथ्य का आभास हुआ कि वह जिस भूमि पर रहती है वह भूमि या धरती किसी फल की तरह किन्तु एक बहुत ही बड़ी गोलाकार वस्तु है जो कि सूर्य के चारों ओर घूमती है। उसे यह भी समझ में आया कि यह गोलाकार वस्तु जो कि सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करती है, यद्यपि सूर्य से बहुत दूर है और सूर्य से उसकी दूरी भी बहुत अधिक होगी, ग्रीष्म और शीत ऋतु में यह दूरी क्रमशः कुछ कम और कुछ अधिक हो जाया करती होगी। इसे ही उसने रेखांकन (pictorial diagram) से पहाड़ी की खड़ी चट्टानों पर क्रम से अंकित किया था। कभी किसी पत्थर के नुकीले सिरे से और कभी किसी रंग से लकीरें खींच कर। और उसने धीरे धीरे सरल और वक्र, गोलाकार और अंडाकार लकीरें खींचते खींचते, उल्काओं का पथ भी रेखांकित करते हुए उस ऋजु या वक्र पथ के परवलीय (parabolic) अतिपरवलीय (hyperbolic) मार्गों पर गतिशील होने का अनुमान किया। उसने कुछ ऐसे उल्कापिण्ड भी देखे जो हर एक या दो वर्षों के बाद पुनः आकाश में दिखलाई पड़ते थे। कुछ ऐसे चमकदार तारे देखे जो रात्रि में जिस तारामंडल में दिखाई देते थे उसमें ही धीरे धीरे प्रति रात्रि कुछ आगे बढ़ जाते थे। चंद्रमा की गति को उसने पहले समझा और उसे पता चला कि यह कितने समय में एक तारामंडल को पार कर लेता है और फिर दूसरे किसी तारामंडल (राशि) में चला जाता है। उन तारामंडलों पर उसने ध्यान दिया तो पाया कि उनमें कुछ तारे अधिक चमकते हैं तो कुछ दूसरे तारे मंद दिखाई देते हैं। फिर भी वे सब अपने समूह में ऐसे स्थिर होते हैं मानों वहाँ मोतियों जैसे जड़े हुए हों। अपने इन आविष्कारों को अब तक वह स्वयं ही स्मरण रखा करती थी, और कोई था भी कहाँ जिससे वह कहती! और वह भी चित्रस्मृति (photographic memory) में ही। किन्तु उसके उस अतिथि मित्र के आगमन के बाद से उसने कितनी ही रात्रियों में इंगित से उसे दिखाया और उसके द्वारा चट्टानों पर अंकित रेखांकन भी जब उसे दिखाए तो वह चकित रह गया। उनके पास भाषा और शब्द तो नहीं थे, किन्तु भावों और अर्थ की अभिव्यक्ति बहुत सशक्त ढंग से कर सकते थे। अनायास ही वह चित्र पर उंगली रख कर 'इदं' 'इदं' कहने लगती। और अपने लिए 'अहं' का प्रयोग भी इसी तरह करने लगी थी। और उसने भी 'अहं' पद का प्रयोग स्वयं को इंगित करने के लिए करना सीख लिया था। और वैसे ही उन्होंने 'तत्' पद का आविष्कार भी कर लिया था। और फिर 'अहं' तथा 'तत्' को मिला कर 'तुम' जो कि बाद में कब 'त्वम्' बना उन्हें पता ही नहीं चला!
दोनों एक दूसरे से इतने घनिष्ठ और अन्तरंग हो चुके, तो एक दिन उसने उसे वर्णलिपि सिखाना प्रारंभ किया। उसे इसका प्रयोजन तो समझ में नहीं आया किन्तु जब वह प्रत्येक वर्ण को रेत पर अंकित करते हुए उस विशिष्ट वर्ण का उच्चारण भी करता तो उसे समझ में आने लगा कि यह चित्र-संकेत और यह उच्चारित ध्वनि एक दूसरे को व्यक्त करते हैं। इनका कोई अर्थविशेष नहीं है। ये किसी वस्तु का चित्र या नाम भी नहीं हैं। जैसे कि 🌙 चाँद का चित्र है और ☀ सूर्य का, वैसे ही 'अ' की तरह से चित्रित वर्ण, 'अ' ध्वनि का सूचक है। अत्यन्त रोमांचित हो उठी थी वह, यह समझकर कि ध्वनियों को भी चित्र से व्यक्त किया जा सकता है और चित्रित वर्णों को ध्वनि से!
यहाँ से उनका "वेदाभ्यास" प्रारंभ हुआ था।
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