भाषारहित संवाद
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उसे यहाँ आए हुए बहुत दिन बीत चुके थे। इस बीच एक दिन उसने अपने पास रखी वृक्षों के छिलकों से बनी हुई थैली को खोला ओर उसमें से वृक्षों के पत्तों से बनी हुई एक और छोटी थैली में से चकमक पत्थर निकाले। उन्हें आपस में रगड़कर आग पैदा की और कुछ सूखे पत्तों, छोटी-बड़ी लकड़ियों की सहायता से उस आग को और भी अधिक प्रज्वलित कर लिया। आश्चर्यचकित होकर देर तक मुग्धभाव से उसे देखता रही फिर दौड़कर पास की उस गुफा में गई जहाँ कुछ कंद रखे हुए थे, जिन्हें कि वह रोज ही आसपास के जंगल से ले आया करती थी। उन्हें आग में भूनकर उनके जले हुए छिलकों को सावधानी से उतारा, एक धारदार पत्थर से उन्हें कुशलतापूर्वक काटा और फिर उसके सामने रख दिया। वैसे तो वह रोज ही इन कंदों को दूसरी पत्तियों आदि के साथ खाती रहती थी, किन्तु आज का आनन्द तो अप्रत्याशित, अकस्मात रूप से मिला था। दोनों जब तृप्त हो गए तो प्रेम के ज्वार का आवेग तीव्र हो उठा ओर दोनों उसमें डूब गए। पता नहीं कब तक वे प्रेम क्रीडा में डूबे रहे, फिर थककर सो गए। अब यह प्रायः प्रतिदिन का खेल था। यहाँ तक कि इसमें दिन और रात्रि की व्यवधान भी नहीं था। जब नींद पूरी हो जाती तो वे उठकर वन में वृक्षों, झरनों और घास तथा वनस्पतियों के बीच घूमते रहते। कभी साथ साथ, कभी अलग अलग भी, किन्तु फिर वहीं लौट आया करते थे। उसके प्रिय एक दो स्थान और भी थे जहाँ पेड़ों पर मधुमक्खियों ने बड़े बड़े छत्ते बना रखे थे, जिनसे शहद टपकता रहता था। वह अपने अतिथि को वहाँ पर भी ले गई। और फिर एक दिन ऐसा भी आया जब वह बहुत देर तक नहीं लौटा था, तो उसे उसकी चिन्ता होने लगी थी। वह फिर थककर सो गई। फिर दिन उगने पर भी वह नहीं आया, दूसरे तीसरे दिन भी नहीं आया तो इन सारे दिनों में वह व्याकुल होकर उसे खोजती यहाँ से वहाँ भटकती रही थी। क्या वह अब कभी नहीं आएगा! इस अज्ञात भय से उसकी व्यथा और व्यग्रता असहनीय हो उठी। बहुत दिनों तक इसी प्रकार जीवन बीतना रहा। कष्टप्रद और पीड़ाप्रद। फिर एक दिन वह अचानक प्रकट हुआ। उसके साथ दो तीन पुरुष, चार पाँच बच्चे और दो तीन स्त्रियाँ भी थीं। कोई युवा तो कोई वृद्ध। उसका सारा विषाद और दुःख पलक झपकते ही विलीन हो गया। सब उसका ही तो समुदाय था। तब भी सबने मुस्कुराकर एक दूसरे का परिचय पाया। हाँ, सभी उससे लिपट गए थे, बच्चे, युवा और वृद्ध भी। सभी पुरुष और सभी स्त्रियाँ। इतना और ऐसा आह्लादपूर्ण अनुभव उसे जीवन में पहली बार प्राप्त हुआ था। यद्यपि वन के बहुत से पशु पक्षी प्रायः उससे लिपटकर अपनी प्रीति की अभिव्यक्ति किया करते थे, और इस नवागंतुक नवयुवक से ऐसा अनुभव पहले ही दिन से उसे मिलता रहा था, किन्तु आज का उल्लास और आनन्द अत्यन्त अद्भुत् था। उसने तो कभी इसकी कल्पना तक नहीं की थी। अपने जन्म से ही और इतने अधिक वर्षों से नितान्त एकाकी, उदास और शून्यप्राय सा जीवन जीते हुए यूँ तो वह उस जीवन से अभ्यस्त हो चुकी थी, किन्तु एक अतिथि ने एक दिन अकस्मात् उसके उस एकान्त के द्वार पर ऐसी दस्तक दी कि वह अचंभित रह गई। और फिर वह एक दिन बिना उससे कहे उससे बहुत समय के लिए बहुत दूर चला गया था और आज अचानक लौट भी आया था। आश्चर्य, सुख और दुःख के अप्रत्याशित धक्कों से उसका मन स्तब्ध, एक दृष्टि से व्याकुल, हर्षित और उद्वेलित भी था। पर अब वह बस भावविभोर थी। उनके पास नया कुछ था तो वह था आग नामक वस्तु, वन्य जीवों के चर्म से बने वस्त्र, पत्थरों और लकड़ियों और हड्डियों से बने कुछ अस्त्र शस्त्र आदि। सबसे मिलकर दो तीन दिनों में जंगल से वृक्षों की लकड़ियाँ लाकर, और लताओं से उन्हें बाँधकर अच्छी सी कुटियाएँ निर्मित कर ली थीं। उनमें ऐसे द्वार भी थे जिन्हें भीतर से बन्द भी किया जा सकता था, यद्यपि वह शुरू में इसका प्रयोजन ठीक से समझ नहीं सकी थी। फिर शीघ्र ही उसे यह समझ में आया कि अधिक शीत, तीखी धूप और भीषण आँधी-बारिश और पानी में यह सब कितना सुरक्षाप्रद और सुखप्रद भी है। अब तक तो उसे अपने निर्वस्त्र होने का कभी न तो भान ही था, न कोई संकोच या भय। किन्तु अब चर्म के वस्त्रों को पहनने-ओढ़ने के इन नये अनुभवों से वह अभिभूत थी।
उन लोगों के साथ कुछ भेड़ें, बकरियाँ और गायें भी थीं, और वे सब लोग उनके लिए भी गोशाला निर्मित करने में जुट गए थे। बहुत से पेड़ों के नीचे की जमीन साफ सुथरी की गई, उन पर लकड़ी के खूँटी गाड़े गए और उन सब पशुओं को उन खूँटों से बांधकर उनके सामने उनके खाने के लिए घास, चारा, पत्तियाँ रखी गईं।
उसका जीवन और जीवन-चर्या एक ही दिन में सिरे से बदल गई थी। उन भेड़ों, बकरियों, गायों की देखभाल किया करती, उन्हें दुहती और उनके साथ आत्मीयता से निःशब्द संवाद करती। अभी तो गर्मियाँ थी इसलिए उन लोगों ने जो ऊनी वस्त्र उसके और उनके अपने लिए भी लाए थे उनका उपयोग करने का प्रश्न नहीं था। उन भेड़ों की ऊन को तेज धार वाली लोहे की कैंचियों से काट लिया गया जिससे उन्हें भी राहत मिली। तो ये लोग लोहे को खनिज पत्थरों को भट्टी में गलाकर उससे औजार भी बनाने में माहिर थे। किन्तु यह सब उसे उस समय नहीं पता था। धीरे धीरे बहुत समय बाद यह रहस्य उसे पता चला। उन युवतियों और वृद्धाओं ने उसे कड़ी के कंघे को प्रयोग करना सिखाया और उसे पता चला कि मनुष्य का जीवन कितना सुखपूर्ण और समृद्ध हो सकता है। अब उसके दिन रात जिस तरह से गुजर रहे थे उसका इससे पहले उसने कभी स्वप्न तक नहीं देखा था।
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