प्रथम प्रेम
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उसे नहीं पता था कि उसका जन्म कब हुआ होगा।
जब से उसने आँखें खोली थीं, कुछ समय तक वह एक नवजात शिशु की तरह रोती रही थी। फिर उसने धीरे धीरे साँस लेना शुरू किया था। यह शायद इसलिए संभव हुआ होगा क्योंकि रोने के क्रम में (उसके) प्राणों ने वायु को पीना और शरीर से श्वास के माध्यम से निष्कासित करना भी प्रारंभ कर दिया था। यह बिलकुल और पूरी तरह एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी, जिस पर तब उसका ध्यान ही नहीं था। कुछ समय तक ऐसा होते रहने के बाद उसके प्राणों ने वायु से नमी को पीना शुरू कर दिया और तब उसकी देह में हो रहा प्राणों का संचार और अधिक फैलने लगा। तब अपने प्राणों की हलचल से उसमें संवेदन का एक नया प्रकार प्रकट हुआ। अर्थात् वह अब आँखें खोल सकती थी। उसे रात्रि का आकाश दिखलाई देने लगा था और उसमें उस समय चमचमा रहे अनेक छोटे बड़े तारे भी उसे दिखाई दिए। उन बहुत से तारों के बीच एक बहुत बड़ी गोलाकार चमकदार वस्तु भी थी, जो सबसे अधिक प्रकाशित थी। कहना न होगा कि वह चन्द्र था।
साँस के माध्यम से वायु का सेवन और निष्कासन एक नैसर्गिक कार्य था। इसी तरह साँस के साथ वायु की नमी भी उसमें प्यास पैदा कर रही थी और वही उसकी प्यास बुझा भी रही थी। तब उसके हाथों ने किसी कोमल वस्तु का स्पर्श पाया और अनायास उसके हाथों ने उस वस्तु को उसके मुख में रख दिया। इस कोमल वस्तु में कोई हलचल नहीं थी क्योंकि वह पका हुआ एक फल था जो कि हवा से वृक्ष से टूटकर नीचे गिर गया था। उस मधुर और मादक सुगंधयुक्त फल को चखते हुए असीम आनंद की अनुभूति उसे हुई और फिर उसकी भूख जागृत हुई। यह सब कुछ समय तक चलता रहा फिर उसे नींद आने लगी थी, और वह कब सो गई उसे याद न रहा। जब कुछ समय बाद नींद खुली तो नींद आने से पहले की इन सभी घटनाओं की स्मृति से वह आश्चर्य-चकित थी। स्मृति के सातत्य से उसकी चेतना में मन नामक एक अन्तर्जगत् प्रकट हुआ जो उसके द्वारा अनुभव किए जा रहे और उसे दिखाई देनेवाले बाह्य जगत् की निरंतर परिवर्तित हो रही स्थितियों की प्रतिछवियों का एक क्रममात्र था, न कि कोई स्वतंत्र वास्तविकता। अन्तर्जगत् और बाह्य जगत् दोनों ही सतत परिवर्तित हो रहे आभास थे जिनके बीच उसे अपने होनेमात्र का निजता का अपरिवर्तनशील और अविकारी भान ही एक सेतु था जिस पर चलकर मानों वह कभी अपने आपको अपने स्वयं से भिन्न अन्तर्जगत् या बाह्यजगत् नामक इन वस्तुओं के बीच आती जाती रहती थी। और तब उसमें बुद्धि अर्थात् विभिन्न वस्तुओं के बीच तुलना करने की क्षमता का आविर्भाव हुआ। तब उसके अन्तर्जगत् में उसके आधार के रूप में विद्यमान अपनी निजता का भान उसे विस्मृत हो गया और अपनी स्मृतियों की सकलता से उत्पन्न स्वयं के 'कुछ' होने का एक नया प्रत्यय (perception) उसके अन्तर्जगत् में जागृत और सक्रिय हो उठा।
अब प्रतिदिन ही इन अनुभवों और स्थितियों का यह क्रम उसकी जीवनचर्या बन चुका था।
किन्तु उस पर्वत / पहाड़ी पर वह नितान्त अकेली थी। वह इससे भी अनभिज्ञ थी और उससे इसकी कल्पना तक नहीं थी कि क्या उसके जैसे और भी कोई 'मनुष्य' जैसे 'जीव' बाह्य जगत में कहीं हैं भी या नहीं। प्रकृति उस पर दयालु थी और किसी दुर्लभ संयोगवश उस पर्वत / पहाड़ी पर रहनेवाले किसी वन्य हिंसक जन्तु ने कभी उस पर आघात नहीं किया था इसलिए वह अब तक जीवित और सुरक्षित थी। वह अब उन वनस्पतियों को पहचानने लगी थी जिन्हें खाकर वह उम्र के चार पाँच वर्ष जी चुकी थी। पर्वत पर वह निश्शंक और निर्भय होकर विचरण करती रहती, पानी के निर्झरों से प्यास बुझाती और फल, पत्ते आदि खाकर प्रसन्न रहती। उसमें अभी यद्यपि सोच विचार तो उत्पन्न नहीं हुआ था किन्तु दिन रात और सुबह शाम के क्रम की तरह उसमें ऋतुओं के क्रम की स्मृति बनने लगी थी। वह आसपास की प्रकृति को अपलक देखता रहती और पत्थरों, फूलों, पत्तियों आदि को किसी क्रम में रखकर अनेक चित्रों की रचना करती रहती। बहुत समय इस प्रकार बीत जाने पर एक दिन वह एक झरने के मुहाने तक पहुँच गई तो उसने वहाँ पर पानी के एक स्वतःस्फूर्त स्तम्भ को धरती से निकल ऊपर की दिशा में कुछ ऊँचाई तक जाते और फिर वहाँ से अनेक धाराओं में चारों ओर बिखरकर पुनः धरती पर गिरते देखा। यद्यपि पानी का वह सोता उससे बहुत दूर था, वह उसके समीप तक पहुँची और उसकी धाराओं में अभिषिक्त होने लगी। अब तो यह नित्य का क्रम हो चला था। फिर वह कभी कभी खेल या कौतुकवश ही उसमें स्नान करती। इस सबके बीच अपनी निजता की नित्यता का उसका सहज भान क्रमशः धुँधला और विस्मृत होता चला गया था और इसका स्थान अपने अन्तर्जगत् और बाह्यजगत् के नित्य होने की एक नई भावना, कल्पना और प्रतीति (perception), प्रत्यय के रूप में प्रकट संवेदन ने ले लिया था। अब उसे भीतर का अन्तर्जगत् और बाहर का बाह्यजगत् नित्य विद्यमान वास्तविकता प्रतीत होने लगे थे अर्थात् उसमें उनकी इस संसार के रूप में प्रतीति ने उनकी नित्य सत्यता की मान्यता और फिर दृढ निष्ठा का रूप ले लिया था। तब उसमें जिज्ञासा जागृत हुई कि क्या 'इस सब' का अधिष्ठाता, इसे बनाने, बनाए रखने और अन्त में (संभवतः) मिटा देनेवाला भी 'कोई' है, जिसमें वह और उसका 'संसार' अस्तित्व ग्रहण करते और बने भी रहते हैं?
अभी तक वह विभिन्न सांसारिक वस्तुओं की आकृतियाँ बनाया करती थी, किन्तु अब उसमें और एक नितान्त नई कल्पना यह उठी कि 'क्या' वह उस 'कोई' की आकृति बना सकती है जो उसे और उसके संसार का रचयिता हो सकता है! पहले तो उसने उसकी आकृति विभिन्न प्रकार के प्राणियों के रूप में बनाने का प्रयास किया किन्तु जब उसे हर उस आकृति या प्रतिमा में कुछ अधूरापन दिखाई देता था तो वह उसे 'मिटा' दिया या उसका परित्याग कर दिया करती थी। किन्तु अन्ततः उसने एक ऐसी आकृति की रचना कर ली जो अपने आपमें सब प्रकार से 'पूर्ण' प्रतीत हो रहा था। वह एक ऐसा पिण्ड था जो कि दीपक की लौ या अग्नि की ज्वाला की आकृति में था। किन्तु उसे पुनः यह भी लगा कि यह भी सीमायुक्त किसी वस्तु की तरह, इस दृष्टि से 'अधूरा' ही तो था। इसे असीम और अखण्ड की आकृति के रूप देने के लिए उसने इसे उगते हुए सूर्य की अर्धाकृति में बनाया और पुनः उसे 'व्यक्ति' का रूप देने के लिए स्थाणु की आकृति प्रदान की। यह था उसका आदर्श 'वह' कोई जो उसके और उसके जगत् का रचयिता और स्वामी हो सकता था। इसे उसने कोई नाम नहीं दिया क्योंकि उसके पास कोई शाब्दिक भाषा नहीं थी जिसमें वह किसी भी वस्तु के लिए कोई नाम या संज्ञा सुनिश्चित कर सके। सच तो यही है कि वह यद्यपि कुछ ध्वनियों का उच्चार करने लगी थी और उन विभिन्न ध्वनियों की तुलना दूसरे जीवों और जड वस्तुओं आदि के द्वारा उत्पन्न की जानेवाली ध्वनियों से करने पर उसने अपनी एक 'ध्वन्यात्मक' भाषा का आविष्कार भी कर लिया था, जिसे केवल वही बोला और समझा करते थी। किन्तु उसके आसपास के अनेक प्राणियों के द्वारा व्यक्त संकेतों से उनकी भाव भंगिमाओं और ध्वनियों आदि से वह अब कुछ ध्वनियों का आदान प्रदान कर उनसे भी थोड़ा बहुत बातचीत करने लगी थी। विभिन्न अनुभवों और स्मृति में उनके तारतम्य के आधार पर उसने 'समय' का आविष्कार कर लिया और 'समय' के संदर्भ में वह घटनाओं को परिभाषित कर उनके बीच के 'समय' को अतीत, वर्तमान और भविष्य में विभाजित कर सकती थी।
पत्तियों, पत्थरों और नदी, पर्वत, पहाड़ी, वृक्षों, लताओं और भिन्न भिन्न पशु पक्षियों की आकृतियों की रचना करते हुए वह दस बारह वर्ष की हो गई तो वह पहली बार रजस्वला हुई। और दो तीन दिनों के बाद रक्तस्राव अपने आप बंद भी हो गया। ऐसा दो तीन महीनों तक होने पर उसे यह स्पष्ट हो गया कि यह भी ऋतुओं की तरह का एक क्रम है। अब उसमें एक अद्भुत् आवेग जागृत होने लगा था। वह यह नहीं जानती थी उसे क्या हो रहा था, किन्तु पशुओं की काम क्रीडा देखकर उसे आभास हुआ कि अवश्य ही वह पशु स्त्री थी और उसके जैसा किन्तु उससे कुछ भिन्न भी कोई ऐसा हो सकता था जो पशु पुरुष होता। यद्यपि इन शब्दों से वह अनभिज्ञ थी, किन्तु कल्पना में उसे ऐसे किसी व्यक्ति के अस्तित्व की संभावना प्रतीत होने लगी थी। वह मन ही मन उस पर अनुरक्त थी और उसके मन में अपनी इस भावना और आवेग के प्रति बस आश्चर्य भर था। अभी तो वह पाप पुण्य, नैतिकता अनैतिकता, सच झूठ, छल कपट, प्रेम, राग और द्वेष आदि के बोध से रहित थी। वह उसकी ही तरह अनाम, किन्तु कुछ भिन्न देहयष्टि के उस विशेष पुरुष का दर्शन करने के लिए और उससे मिलने के लिए बहुत उत्सुक और लालायित थी। तब बहुत दिनों बाद एक दिन संध्या समय उसे कुछ दूर ऐसे ही एक मनुष्य की आकृति दिखलाई पड़ी। वह अत्यन्त रोमांचित और स्तब्ध हो उठी। उसे हवा में उसकी गंध का आभास हुआ और उसके प्रति भय के साथ साथ एक प्रबल आकर्षण से मुग्ध होकर वह उसकी दिशा में खिंचती चली गई। जब तक वह उसके समीप पहुँच पाती, वह उसकी दृष्टि से ओझल हो चुका था। उसने उसे ढूँढने का बहुत प्रयास किया किन्तु वह पता नहीं कहाँ चला गया था। उसने उसे आवाज भी दी थी जो एक सुदीर्घ ओऽ ओऽऽ ओऽऽऽ की ध्वनि के रूप में 'प्लुत' थी। विगत कई वर्षों से वह ध्वनियों और स्वरों के आरोह- अवरोह को समझने लगी थी और उनके क्रम को अनेक प्रकारों से संयोजित करने का यत्न करते हुए उसने अनेक सांगीतिक रचनाएँ भी रच ली थीं जिनमें उसका मन रचा बसा करता था और जिन्हें बहुत से पशु पक्षी भी समझते थे और जिस पर वे अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त किया करते थे। दुर्भाग्यवश उसकी ध्वनि उस तक नहीं पहुँच पाई। वह उसकी आकृति को रेत पर या पत्थर पर उकेरा करती और बस एक निश्वास छोड़कर निराशा में डूब जाती। उसे याद आया कि जब पहले कभी उसने अपनी कल्पना में सृष्टि के रचयिता और स्वामी की आकृति की रचना करना चाहा था तो वह इसी से मिलते जुलते रूप का था। स्मरण आते ही वह और अधिक व्याकुल और अशान्त हो उठी थी।
ऐसे ही एक दिन वह सो रही थी, उसने स्वप्न में उसे देखा। और स्वप्न में अचानक उसे देखकर जब उसकी नींद टूट गई तो उसने सामने उसे ही खड़ा पाया। वे दोनों प्रगाढ़ आलिंगन में बँध गए। बहुत समय तक उसके साथ रहने के बाद उन दोनों ने मिलकर अपनी शाब्दिक भाषा को निर्मित और विकसित किया। संगीत और स्वरों के ज्ञान और प्रभाव से समृद्ध किया और वे एक दूसरे के प्रेम में अत्यन्त ही उल्लसित और आनन्दित थे। समय ऐसा ही बीतता रहा। एक दिन अपने ही भीतर एक और जीवन के होने की आहट उसे सुनाई दी। कुछ समय बाद उसने अपने आकृति जैसी ही एक संतान को जन्म दिया, जो उसकी ही तरह एक 'स्त्री' थी। बाद में कई वर्षों में उसे और अनेक संतानें हुईं जिनमें से कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियाँ थीं।
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