प्रागृषि
आदि, आदिम और सनातन
उस नितान्त एकाकी जीवन में, जब ये लोग यहाँ नहीं आए थे, वह सुखी या दुखी नहीं थी, वह सुरक्षित और असुरक्षित भी नहीं थी, क्योंकि सब कुछ अनिश्चित और अप्रत्याशित और अज्ञात था।
उसने पत्थर और रेत पर चित्र उकेरे और पक्षियों तथा चिड़ियों की ध्वनियों में स्वर संधान किया। यह सब बाद में उसके आने के बाद एकाएक और भी विकसित और समृद्ध, सार्थक और सुखद हो गया।
उसके एकाकी जीवन में पहले कला का प्रस्फुटन हुआ, और वह बस प्रकृति की ही एक अभिव्यक्ति थी। हाँ, वह मनुष्य की आकृति में एक स्त्री भी अवश्य थी। और जब उसके जीवन में एक पुरुष का आगमन हुआ तो उसे पता चला कि पुरुष के पास जो बुद्धि होती है उसका आयाम, सीमा और प्रकृति उससे बहुत भिन्न है जैसी कि उसकी अपनी प्रकृति थी।
पुरुष की बुद्धि खंडित होती है जबकि स्त्री या नारी की बुद्धि नहीं, प्रकृति / स्वभाव, एक अखंड प्रवाह होता है। क्योंकि स्त्री नित्यतृप्ता होती है, विस्तीर्ण और प्रवाहमय होना ही उसका जीवन होता है जबकि पुरुष की बुद्धि संकुचित और सीमित, क्षण क्षण और इसलिए असंतुष्ट, अतृप्त और अपूर्ण होती है। फिर भी दोनों ही दूसरे के अभाव में अपूर्ण ही होते हैं - स्त्री भी और पुरुष भी। और अन्त तक, जीवन के विलीन हो जाने तक ऐसे ही अपूर्ण रह जाते हैं। जीवन की वह निजता और पूर्णता, जो कि एक पहचान की तरह चेतना में कभी चेतनता की तरह उभरती है उसे जन्म कहा और माना जाता है और वही पहचान एक दिन जब विलीन हो जाती है, उसे मृत्यु कहा और माना जाता है। जन्म सदा अपना और अपनी किसी पहचान का ही होता है जबकि मृत्यु सदैव किसी दूसरे की ही होती है। निजता और जीवन इस तरह और इसीलिए एक दूसरे के पर्याय हैं।
तो उन दोनों के बीच संपर्क ही संवाद था जीवनरूपी एक ही नदी के दो तट थे वे दोनों।
जब उनमें परिचय प्रगाढ हो चुका था तो वे चित्रों और मुखमुद्रा के इंगितों से परस्पर संवाद करते थे। तब समय नहीं होता था। तब समय नहीं था। तब न तो अतीत और न ही भविष्य नामक किसी वस्तु का अस्तित्व था। संभव भी नहीं था, क्योंकि वे निपट, नितान्त वर्तमान में ही जी रहे थे। और तब उसका परिचय भाषा से हुआ। परिचय प्रवाह था, और भाषा बुद्धि थी। और तब इसके बाद ही समय की अवधारणा का जन्म हुआ। कल एकाएक ही असंख्य कल बन गए। अतीत के, और भविष्य के। तब लिपि का उद्भव और उद्गम हुआ। वाणी तो पहले भी थी। वाणी के साहचर्य से ध्वनियाँ सार्थक हुई। और लिपि के साहचर्य से विचार - जो पुरुष था / है, वाणी जो स्त्री थी / है। तब वस्तुओं का नामकरण हुआ। और फिर बाद में ही भावनाओं का भी। वस्तुएँ मूर्त / साकार थीं / हैं / होती हैं, भावनाएँ जो अमूर्त / निराकार प्रवाह मात्र होती हैं। जैसे ही भावनाओं को वाणी मिली संगीत और संघर्ष का आरंभ हुआ। पता नहीं कि क्या यह मनुष्य का सौभाग्य था, दुर्भाग्य या एक दुर्घटना!
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