फुटपाथ और पुल पर,
----------©-----------
गुजरात का एक शहर है सूरत। नौ वर्षों तक क्लर्की करते रहने के बाद जब मेरा प्रमोशन / प्रमोचन हुआ और मैं "अधिकारी" बन गया, उस समय मेरे पास 'एटलस' की एक हल्की-फुल्की बाइसिकल थी, जिसे मैंने उज्जैन में एटलस-चौराहे पर स्थित 'एटलस' की रहीम-भाई भूरा-भाई की दुकान से वर्ष 1985 में खरीदा था। "उन दिनों" मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए अपनी मोपेड को भी बेच दिया था। इसी समय में मैंने उज्जैन छोड़ने का निर्णय किया और उज्जैन से स्थानान्तरण के लिए अपने दफ्तर में अर्जी दे दी। मुझसे पूछा गया कि राजकोट या थाँदला (म. प्र. में स्थित आदिवासी-बहुल अविकसित क्षेत्र) इनमें से किस जगह जाना चाहूँगा। तो तुरन्त ही मैंने राजकोट को चुन लिया। स्थानान्तरण मैंने स्वेच्छा से चाहा था, इसलिए न तो जॉइनिंग-पीरियड और न यात्रा भत्ता आदि की पात्रता मुझे थी। मेरी आकस्मिक छुट्टियों (casual leave) का बैलेंस भी शून्य था, इसलिए मुझे उसी दिन 14 दिसंबर को शाम के समय राजकोट के लिए रवाना होना पड़ा। उज्जैन से इन्दौर, और वहाँ से विजयन्त ट्रैवल्स की बस से राजकोट दूसरे दिन रात के समय पहुँचा। स्टेशन पर जे. के. गेस्ट हाउस में रात बिताई और दूसरे दिन जॉइन किया। फिर किसी समय 1986 में उज्जैन में रखी उस साइकल को राजकोट ले आया। 1986 में ही संभवतः 19 फरवरी 1986 के दिन सुबह जब चाय पीने के लिए पास में ही स्थित 'रेकड़ी' पर पहुँचा और जब स्थानीय दैनिक "ફૂલછાબ" में : "જે. કૃષ્ણમૂર્તિ નો બુઝાયેલો જીવનદીપ" पढ़ा, तो स्तब्ध रह गया। यह भी एक संयोग ही था कि जब सुबह सुबह 7 बजे घर से निकल रहा था, मेरे हाथ से रिस्टवॉच जमीन पर गिर गई थी, और बंद हो गई थी। थोड़ा सा हिला-डुला कर देखा भी, फिर भी चालू नहीं हुई। इससे भी मन खिन्न था। दो - तीन दिनों तक मन की स्थिति बहुत विचित्र थी। दफ्तर में बॉस ने भी जब अनुभव किया, मुझसे पूछा कि क्या बात है? मैंने कहा - हाँ सर! कुछ गड़बड़ है। बात वहीं खत्म हो गई। राजकोट में बड़ी मुश्किल से कालावड-रोड पर "ए जी सोसाइटी नी पाछळ" में रहने के लिए अच्छा सा एक मकान किराए पर मिला। दो साल वहाँ अत्यन्त सुख से बीते। उसी साइकल पर दफ्तर आता - जाता, छुट्टी के दिन या वैसे भी प्रायः रोज ही रामकृष्ण आश्रम में "ध्यान" करने के लिए भी जाता रहता था।
सूरत में मेरा घर तापी नदी के पार राँदेर रोड पर स्थित "शिल्पी सोसाइटी" में था, मैं अकसर उसी साइकिल पर चौक बाज़ार के अपने दफ्तर जाया करता था। पुल पर जब छोटे-बड़े वाहनों की भीड़ होती, तो मैं अपनी साइकल फुटपाथ पर चढ़ाकर आराम से सबको टेक-ओव्हर कर आगे निकल जाता था।
***
No comments:
Post a Comment