सूराख हो नहीं सकता!
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स्व. दुष्यन्त कुमार का एक शे'र है :
कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों!
मुझे लगता है कि आकाश तो पहले से ही क्या वैसे भी सबसे बड़ा एक सूराख या खाली स्थान ही नहीं है? यह अलग बात है कि शायद किसी को आज तक यह खयाल क्यों नहीं आया कि उसे गिनी'ज़ बुक आफ वर्ल्ड रेकार्ड में दर्ज किए जाए! पत्थर कितनी भी दूर तक जाए, इस सूराख के दूसरे सिरे तक शायद ही पहुँच सके!
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वे कह रहे हैं कि अगर आपका दृढ विश्वास है, तो आप अवश्य ही पानी पर चल सकते हैं!
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मुझे ये दोनों ही बातें शायराना सच महसूस होती हैं। पहली बात की सच्चाई की जाँच ही नहीं की जा सकती, और दूसरी बात की सच्चाई की जाँच करने की जरूरत ही नहीं है! इसका यह मतलब नहीं कि वह सच्चाई से परे है। इसका मतलब सिर्फ यह है कि क्या किसी को इसकी सच्चाई पर शक नहीं होता? और जब तक शक है तब तक विश्वास कैसे हो सकता है? और यदि विश्वास ही नहीं है तो दृढ विश्वास का तो सवाल ही नहीं उठता।
यह वैसा ही है, जैसे कोई कहे कि अगर आपका दृढ विश्वास है तो आप आकाश में उड़ सकते हैं। यह तो हो सकता है कि हम किसी दिन हवाई जहाज में बैठकर आकाश में उड़ सकें। लेकिन इसी तरह क्या नाव या पानी के जहाज पर चढ़कर हम पानी पर नहीं चल सकते !
अब रही बात आकाश में सूराख करने की, तो जितने भी पिण्ड या भौतिक वस्तुएँ हैं, क्या वे सभी आकाश में छोटे-बड़े सूराख ही नहीं हैं? सूराख का क्या मतलब है? सूराख अभाव ही है न! जैसे जमीन के भीतर कोई सुरंग होती है वहाँ जमीन का अभाव ही तो होता है! वैसे ही आकाश में जहाँ कोई पिण्ड या कोई वस्तु जितना स्थान घेरती है, उतने स्थान पर आकाश का अभाव हो जाता है, यह भी तो मान सकते हैं! अगर इस ऐंगल से देखें तो आकाश में तो वैसे ही अनगिनत सूराख हैं ही! तो और कुछ सूराख नये हो जाने से क्या होना जाना है!
फिर भी यदि पातञ्जल योगसूत्र पर विश्वास करें तो विभूतिपाद नामक अध्याय में वर्णित सूत्र:
कायाकाशयोःसंबंधसंयमाल्लघुतूलसमापत्तेश्चाकाशगमनम्।।
से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शरीर और आकाश के पारस्परिक संबंध पर "संयम" करने से, (विभूतिपाद --सूत्र २ -- त्रयमेकत्र संयमः।।२।।) और लघु तथा लघुतर की तुलना के आधार पर "समापत्ति" करने से (तथा साधनपाद --सूत्र ३६--सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।।३६।। के माध्यम से) ऐसी आकाशगमन की सिद्धि क्यों नहीं प्राप्त हो सकती है? क्योंकि स्थूल भौतिक विज्ञान भी तो स्थूल प्रकृति पर विजय पाने की ही चेष्टा कर रहा है, जबकि योगशास्त्र सूक्ष्म प्रकृति अर्थात् मन पर, और योग की शक्ति और सामर्थ्य तो स्थूल विज्ञान की शक्ति से अवश्य ही कहीं अधिक है। महर्षि पतञ्जलि विभूतिपाद नामक अध्याय में सचेत करते हैं कि दिव्य और सूक्ष्म अनुभव समाधि में उपसर्ग (विघ्न) हैं, जबकि व्युत्थान (समाधि से उठने) की दशा में वे ही सिद्धियाँ होते हैं :
सर्वार्थैकाग्रतयोः क्षयोदयो चित्तस्य समाधिपरिणामः।।११।।
ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः।। ३८।।
और भगवान् श्री रमण महर्षिकृत "सद्दर्शनम्" के अनुसार तो ये सिद्धियाँ भी ज्ञानी की दृष्टि से स्वप्न ही हैं, और अनित्य तो हैं ही। ज्ञान-रूपी सिद्धि तो ज्ञानी की वास्तविक संपत्ति है क्योंकि वह नित्य और शाश्वत अविकारी सत्य है, जहाँ सुख-दुःख का भी पूर्ण अभाव है, और शान्ति रूपी स्वाभाविक नित्य-स्थिति है :
सिद्धस्य वित्तिः सत एव सिद्धिः
स्वप्नोपमानाः खलु सिद्धयोऽन्याः।।
स्वप्नः प्रबुद्धस्य कथं नु सत्यः
सति स्थितः किं पुनरेति मायाम्।।३७।।
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