उन दिनों -७८
____________
____________
अधूरी कहानी
नर्मदा के किनारे, परिक्रमा-पथ पर चलते हुए, जब आप नर्मदा कावेरी के पुनर्संगम पर पहुँचते हैं, तो कुछ दूर तक कावेरी के किनारे-किनारे चलने के बाद बारहवीं शताब्दी का एक भवन नज़र आता है, यह एक-मंजिला भवन देखते ही मुझे मुक्तिबोध की कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' याद आती है। लगता था कि क्या मुक्तिबोध को इसी स्थान पर उस रचना के लिए प्रेरणा हुई होगी, रोचक बात यह कि वहाँ पड़े पत्थरों के ढेर में मुझे कई ऐसे पत्थर नज़र आये जिनमें संभवतः Akkadian भाषा में कुछ लिखा था। उस स्थान से गुज़रते हुए आगे जाने पर कुछ ऐसा दिखलाई देता है जो मूलतः किसी साधक की समाधि पर पहले कभी बना छोटा सा शिवालय रहा होगा।
अमावस्या, पूर्णिमा या सावन में यहाँ कोई स्थानीय आदिवासी थोड़ा सा सामान बिक्री के लिए रखता है, उस दिन वह भिक्षुक यहाँ नहीं दिखलाई पड़ता जो कि बाकी सभी दिनों में अक्सर एक अंगोछा सामने बिछाए बैठा हुआ दिखलाई देता था। लोग कभी उसे कुछ दे देते, या उस समाधि पर बने शिवलिंग को कुछ चढ़ा जाते थे। धीरे-धीरे वह भिक्षु एक 'कल्ट-फ़िगर' बनने लगा था, लेकिन वह भूमि आदिवासियों के स्वामित्व की थी और वह उस पर कब्ज़ा नहीं कर सकता था, क्योंकि वह कोई बड़ा साधु / 'स्वामी' या किसी परम्परा से सम्बद्ध नहीं था। वह मुझे अक्सर ध्यान से देखा करता था, लेकिन पहचान बनाने के लिए उसने कभी पहल नहीं की। उसके रहन-सहन से नहीं लगता था कि वह हिन्दू रहा होगा।
एक दिन मंदिर से लौटते हुए उसके साथ चलते हुए उसने पहल की।
वह भिक्षु यद्यपि किसी से कुछ मांगता नहीं था, लेकिन उस दिन उसने मुझसे माचिस मांगी। चूँकि मैं बीड़ी या सिगरेट नहीं पीता, इसलिए उसे मुझसे निराशा हुई. फ़िर एक दिन मैंने उसके पास किसी दूसरे मज़हब की कोई किताब देखी। तब खयाल आया कि वह भिक्षु पारिव्राजक या साधु-संन्यासी नहीं, फकीर है।
नर्मदा के किनारे, परिक्रमा-पथ पर चलते हुए, जब आप नर्मदा कावेरी के पुनर्संगम पर पहुँचते हैं, तो कुछ दूर तक कावेरी के किनारे-किनारे चलने के बाद बारहवीं शताब्दी का एक भवन नज़र आता है, यह एक-मंजिला भवन देखते ही मुझे मुक्तिबोध की कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' याद आती है। लगता था कि क्या मुक्तिबोध को इसी स्थान पर उस रचना के लिए प्रेरणा हुई होगी, रोचक बात यह कि वहाँ पड़े पत्थरों के ढेर में मुझे कई ऐसे पत्थर नज़र आये जिनमें संभवतः Akkadian भाषा में कुछ लिखा था। उस स्थान से गुज़रते हुए आगे जाने पर कुछ ऐसा दिखलाई देता है जो मूलतः किसी साधक की समाधि पर पहले कभी बना छोटा सा शिवालय रहा होगा।
अमावस्या, पूर्णिमा या सावन में यहाँ कोई स्थानीय आदिवासी थोड़ा सा सामान बिक्री के लिए रखता है, उस दिन वह भिक्षुक यहाँ नहीं दिखलाई पड़ता जो कि बाकी सभी दिनों में अक्सर एक अंगोछा सामने बिछाए बैठा हुआ दिखलाई देता था। लोग कभी उसे कुछ दे देते, या उस समाधि पर बने शिवलिंग को कुछ चढ़ा जाते थे। धीरे-धीरे वह भिक्षु एक 'कल्ट-फ़िगर' बनने लगा था, लेकिन वह भूमि आदिवासियों के स्वामित्व की थी और वह उस पर कब्ज़ा नहीं कर सकता था, क्योंकि वह कोई बड़ा साधु / 'स्वामी' या किसी परम्परा से सम्बद्ध नहीं था। वह मुझे अक्सर ध्यान से देखा करता था, लेकिन पहचान बनाने के लिए उसने कभी पहल नहीं की। उसके रहन-सहन से नहीं लगता था कि वह हिन्दू रहा होगा।
एक दिन मंदिर से लौटते हुए उसके साथ चलते हुए उसने पहल की।
वह भिक्षु यद्यपि किसी से कुछ मांगता नहीं था, लेकिन उस दिन उसने मुझसे माचिस मांगी। चूँकि मैं बीड़ी या सिगरेट नहीं पीता, इसलिए उसे मुझसे निराशा हुई. फ़िर एक दिन मैंने उसके पास किसी दूसरे मज़हब की कोई किताब देखी। तब खयाल आया कि वह भिक्षु पारिव्राजक या साधु-संन्यासी नहीं, फकीर है।
बरसों बीत गए!
2016 में पुनः ओंकारेश्वर रोड बड़वाह में कुछ मास रुका था तो देखा कि नर्मदा के किनारों पर एक दो भग्न मूर्तियाँ मरियम की, किसी दूसरे बाबा की भी थीं। तब मुझे उस फकीर का स्मरण हुआ।
तब से नर्मदा में बहुत पानी बह चुका है। बाद के कई वर्षों में भी, और अभी तक देखा है कि उज्जैन में जब शिप्रा का पानी सूख जाता है, तो नर्मदा से ले लिया जाता है।
कहानी सचमुच अब भी अधूरी ही है। क्या पता कभी पूरी होगी भी या नहीं!
***
No comments:
Post a Comment