आनन्द क्या है ? -2
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वेद जो नित्य वाणी है, अस्तित्व का अधिष्ठान है ।
किन्तु जब हम वेद को कोई पुस्तक या ग्रन्थ मात्र समझते हैं तो उस नित्य वाणी से विच्छिन्न होने लगते हैं।
नित्य वाणी के रूप में वेदों को ऋषियों के द्वारा ही जाना जाता है, और परम्परा से उनका परिचय जगत को प्राप्त होता है। यह परम्परा भी मनुष्य की पात्रता के अनुसार असंख्य रूपों में व्यक्त होती है।
इसलिए चार वेदों का विभाजन भी औपचारिक है। लक्षणों और परम्परा के प्रमुख और गौण तत्वों के आधार पर ऐसा विभाजन उपयोगी भी है।
ऋक्, साम, यजुः में क्रमशः ज्ञान भक्ति तथा कर्म को प्रधानता दी गयी है, इसलिए कहीं कहीं (जैसे गीता अध्याय 9 श्लोक 17) में तीन ही वेदों का उल्लेख है। इसका यही कारण है कि अथर्ववेद में जो तत्व है वही प्रकारांतर से इन तीनों में भी है और परम्परा के आधार पर इन तीनों से पृथक् होने पर भी यह उन तीनों से अभिन्न है। इसी आधार पर पुराण यद्यपि वेदों से बहुत भिन्न जान पड़ते हैं जबकि वे वस्तुतः सिर्फ वेद का विस्तार और अलंकार ही हैं।
ब्रह्म को सत्-चित् तथा आनंद कहा गया है। ये तीनों ब्रह्म के 'लक्षण' हैं जिनसे उसे इंगित किया और ग्रहण किया जाता है। ये तीनों लक्षण वाच्यार्थ की दृष्टि से तीन वस्तुएँ प्रतीत होते हों, तो भी लक्ष्यार्थ की दृष्टि से केवल ब्रह्म ही हैं। जब वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ में प्रतीत होनेवाले अंतर का निवारण / निराकरण कर दिया जाता है और उनमें विद्यमान उभयरूप से एकमेव तत्व पर ध्यान दिया जाता है, तो उस तत्व का अनुमान, ग्रहण और संशयरहित निश्चय हो जाता है। इसलिए आनंद मूलतः उसका ही नाम है, जिसके अन्य नाम सत्-चित् भी हैं। सत्-चित् को सीधे समझ पाना तो कठिन है ही, समझाना तो और कठिन है।
सत्-चित् या ब्रह्म अथवा ईश्वर / आत्मा / परमात्मा जैसे शब्दों और उनके अभिप्राय के बारे में विद्वानों में भी मतभेद पाए जाते हैं, जबकि 'आनन्द क्या है?' इसे कोई न भी जानता हो, तो भी हर कोई उसे प्राप्त करना चाहता ही है, और इस बारे में कहीं कोई मतभेद नहीं है। इसका एक अर्थ (निहितार्थ) यह भी है कि प्रत्येक प्राणी आनंद को अनायास जानता ही है और उसे इसका अभाव प्रतीत होते ही वह व्याकुल हो जाता है। दूसरी ओर, -- इसके प्राप्त होते ही मनुष्य इसकी नित्य विद्यमानता भूल बैठता है। तात्पर्य यह कि जब मनुष्य का शरीर और मन स्थिर और शांत, स्वस्थ और प्रसन्न होता है, तब उस स्थिति में उस सम्पूर्ण स्थिति अर्थात् अनायास सहज प्राप्त आनंद से भी अधिक कुछ चाहने लगता है। निद्रा में मनुष्य जैसे कोई अपेक्षा न करते हुए भी शान्ति से सोए हुए उस आनंद का उपभोग करते हुए यद्यपि संतुष्ट होता है, किन्तु जाग जाने के बाद धीरे धीरे भूल जाता है। इसका ही परिणाम यह होता है कि वह उस स्थिति को फिर से प्राप्त करने की ज़रूरत महसूस करने लगता है.
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वेद जो नित्य वाणी है, अस्तित्व का अधिष्ठान है ।
किन्तु जब हम वेद को कोई पुस्तक या ग्रन्थ मात्र समझते हैं तो उस नित्य वाणी से विच्छिन्न होने लगते हैं।
नित्य वाणी के रूप में वेदों को ऋषियों के द्वारा ही जाना जाता है, और परम्परा से उनका परिचय जगत को प्राप्त होता है। यह परम्परा भी मनुष्य की पात्रता के अनुसार असंख्य रूपों में व्यक्त होती है।
इसलिए चार वेदों का विभाजन भी औपचारिक है। लक्षणों और परम्परा के प्रमुख और गौण तत्वों के आधार पर ऐसा विभाजन उपयोगी भी है।
ऋक्, साम, यजुः में क्रमशः ज्ञान भक्ति तथा कर्म को प्रधानता दी गयी है, इसलिए कहीं कहीं (जैसे गीता अध्याय 9 श्लोक 17) में तीन ही वेदों का उल्लेख है। इसका यही कारण है कि अथर्ववेद में जो तत्व है वही प्रकारांतर से इन तीनों में भी है और परम्परा के आधार पर इन तीनों से पृथक् होने पर भी यह उन तीनों से अभिन्न है। इसी आधार पर पुराण यद्यपि वेदों से बहुत भिन्न जान पड़ते हैं जबकि वे वस्तुतः सिर्फ वेद का विस्तार और अलंकार ही हैं।
ब्रह्म को सत्-चित् तथा आनंद कहा गया है। ये तीनों ब्रह्म के 'लक्षण' हैं जिनसे उसे इंगित किया और ग्रहण किया जाता है। ये तीनों लक्षण वाच्यार्थ की दृष्टि से तीन वस्तुएँ प्रतीत होते हों, तो भी लक्ष्यार्थ की दृष्टि से केवल ब्रह्म ही हैं। जब वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ में प्रतीत होनेवाले अंतर का निवारण / निराकरण कर दिया जाता है और उनमें विद्यमान उभयरूप से एकमेव तत्व पर ध्यान दिया जाता है, तो उस तत्व का अनुमान, ग्रहण और संशयरहित निश्चय हो जाता है। इसलिए आनंद मूलतः उसका ही नाम है, जिसके अन्य नाम सत्-चित् भी हैं। सत्-चित् को सीधे समझ पाना तो कठिन है ही, समझाना तो और कठिन है।
सत्-चित् या ब्रह्म अथवा ईश्वर / आत्मा / परमात्मा जैसे शब्दों और उनके अभिप्राय के बारे में विद्वानों में भी मतभेद पाए जाते हैं, जबकि 'आनन्द क्या है?' इसे कोई न भी जानता हो, तो भी हर कोई उसे प्राप्त करना चाहता ही है, और इस बारे में कहीं कोई मतभेद नहीं है। इसका एक अर्थ (निहितार्थ) यह भी है कि प्रत्येक प्राणी आनंद को अनायास जानता ही है और उसे इसका अभाव प्रतीत होते ही वह व्याकुल हो जाता है। दूसरी ओर, -- इसके प्राप्त होते ही मनुष्य इसकी नित्य विद्यमानता भूल बैठता है। तात्पर्य यह कि जब मनुष्य का शरीर और मन स्थिर और शांत, स्वस्थ और प्रसन्न होता है, तब उस स्थिति में उस सम्पूर्ण स्थिति अर्थात् अनायास सहज प्राप्त आनंद से भी अधिक कुछ चाहने लगता है। निद्रा में मनुष्य जैसे कोई अपेक्षा न करते हुए भी शान्ति से सोए हुए उस आनंद का उपभोग करते हुए यद्यपि संतुष्ट होता है, किन्तु जाग जाने के बाद धीरे धीरे भूल जाता है। इसका ही परिणाम यह होता है कि वह उस स्थिति को फिर से प्राप्त करने की ज़रूरत महसूस करने लगता है.
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