क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।
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विचार, भावना, क्रिया, और स्मृति कैसे परस्पर आश्रित हैं !
नींद में, स्वप्न में, जागृति में, कल्पना में ....
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विचार, भावना, क्रिया, और स्मृति कैसे परस्पर आश्रित हैं !
नींद में, स्वप्न में, जागृति में, कल्पना में ....
क्या सभी वृत्तिमात्र ही नहीं है?
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।
(पातञ्जल योग-सूत्र)
अकेले होने का अर्थ क्या है?
यदि अकेले होने का अर्थ है वृत्तिमात्र का विलीन होना, तो यह स्थिति क्या अनुभवगम्य, भावगम्य, बुद्धिगम्य या इन्द्रियगम्य है?
क्या निद्रा में भी कोई सुखवृत्ति प्रत्यक्ष ही विद्यमान नहीं होती? और क्या जागने पर इसकी स्मृति ही इसका प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होती है? निद्रा में अपना अस्तित्व और अपने उस अस्तित्व का भान क्या कोई वृत्ति है? अवश्य ही यह भान मूलतः कोई वृत्ति नहीं होता है, किन्तु जागते ही इसे स्मृति के रूप में जान लिया जाता है। इस प्रकार अपने अस्तित्व का भान अपने ही अन्तर में अन्तर्धारा की तरह आधारभूत है। क्या उसे जाननेवाला उससे भिन्न कोई दूसरा है, या हो भी सकता है? जागते ही अपने होने का यह जो सहज भान अनायास होता है उसकी इसलिए कोई पहचान नहीं की जा सकती, क्योंकि पहचान का अर्थ है स्मृति और स्मृति का अर्थ है पहचान। दोनों अन्योन्याश्रित हैं, किन्तु उनके अन्योन्याश्रित होने की यह मान्यता उनके परस्पर भिन्न भिन्न होने का भ्रम मात्र है। इसलिए यह जाननेवाला जो नित्य ही अपने आपको ही जानता है, जो अविकारी immutable है, वृत्ति नहीं है। वृत्ति के द्वारा, वृत्ति के माध्यम से जो कुछ भी जाना जाता है वह वस्तुतः केवल / जानकारी / अज्ञान है, जहाँ विषयी (subject) किसी विषय (object) को वृत्तिविशेष के माध्यम से जानता है। यह विषयी, जिसे भूल से 'मैं' कहा जाता है, विषय के साथ अविच्छिन्न है, और एक के अभाव में दूसरा भी नहीं होता।
विषय "क्षेत्र" है और विषयी "क्षेत्रज्ञ" है। किन्तु इन "क्षेत्र" और "क्षेत्रज्ञ" दोनों को जिस भान में जाना जाता है वह भान नित्य ही अविकारी है। सभी विषय और सभी विषयी उस अविकारी भान में ही व्यक्त और अव्यक्त होते रहते हैं, जबकि वह भान न तो कभी व्यक्त होता है न कभी अव्यक्त, क्योंकि विषय-विषयी रूपी जो ज्ञान व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है, अवश्य और सतत ही विकार-शील है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १३ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदुः।।१।।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।२।।
उस अविकारी ज्ञान को श्रीकृष्ण कहा जा सकता है या श्रीकृष्ण को उस अविकारी ज्ञान से अभिन्न कहा जा सकता है, और इसी तरह जिसे श्रीराम कहा जाता है, वह भी उस अविकारी ज्ञान से वैसे ही अभिन्न है, जैसे कि वह अविकारी ज्ञान भगवान् श्रीराम से अभिन्न है -
सर्वभूतात्मभूतात्मा।।
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