May 27, 2011

अतिथि, तुम... ... ?


~~~~~~ अतिथि, तुम... ...? ~~~~~~
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© Vinay Vaidya 
27052011

अचानक किसी दिन,
अप्रत्याशित रूप से,
जब किसी बात का,
कोई मतलब नहीं महसूस होता,
लोग, 
जो कभी भाव-विभोर कर देते थे,
एकाएक ही पर्दे पर दौड़ती तस्वीरों से,
आँखों के सामने से गुजरते प्रतीत होते हैं,
और उनके शब्द,
किसी नामालूम लिपि में लिखे अक्षर,
उनकी भाषा,
अबूझ बोली,
हृदय जब इतना रिक्त होता है,
कि वहाँ दु:ख तक नहीं होता,
कोई व्यथा, स्मृति, या अहसास तक नहीं होता,
लेकिन कोई 'ऊब' या अकुलाहट,
व्यस्तता या अन्यमनस्कता भी नहीं होती,
कोई बेहोशी या तंद्रा,
कल्पना, या निद्रा भी नहीं होती,
जब कोई 'सुख', चाह, भय या प्रतीक्षा भी नहीं होती,
और आशा-आकाँक्षा तो दूर-दूर तक कहीं नहीं,
और, न ही कहीं कोई स्वप्न, 
जब अपने होने का भी कोई मतलब, मक़सद,
या औचित्य तक नहीं नज़र आता,
जब, ख़ुदक़ुशी का तक खयाल नहीं उठता,
उठ भी नहीं सकता,
और न उसकी ज़रूरत ही होती है ।
एक मौन अनायास खिलखिला उठता है ।




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