~~~~~ इरा ! तुम कहाँ हो ?? ~~~~~
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© Vinay Vaidya
२४०५२०११
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इरा !
’यहाँ’ मैं टूट जाता हूँ,....।हर अन्धेरे में,
हर उजाले में,
गुरुत्वाकर्षण से रहित,
अन्तरिक्ष में,
डरता हूँ,
एक भी क़दम (?) आगे रखने से,
गोकि लगता है,
क्योंकि लगता है,
कि हर बढ़ा हुआ क़दम,
मुझे खींच ले जाएगा,
तीर की तरह,
दूर, बहुत दूर,
नीहारिकाओं की,
सुदूर अनंत तक फ़ैली,
सर्पिल पथ-दीर्घाओं में ।
संकीर्ण पग-डन्डियों में,
विस्तीर्ण उपत्यकाओं में ।
कितने सितारे, ठंडे,
बर्फ़ की मानिन्द,
कितने, धधकते अंगारे,
आँखों को चौंधियाते हुए,
अंधा कर देने वाले ।
कितने ही अन्ध-विवर,
कितने ही धूमकेतु,
कितनी ही उल्काएँ,
कर रहे / रही हैं,
मुझे लील लेने की प्रतीक्षाएँ !!
यहाँ ’ऊपर’ ’नीचे’ वैसे ही अर्थहीन हैं,
जैसे पूरब-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण ।
बस रुका हुआ हूँ मैं यहाँ किसी तरह,
धरती पर लौटने की एक आतुर उत्कट,
पागल, व्यग्र, व्याकुल, अधीर उत्कठा में ।
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*१. इरा : पानी, पेय, भोज्य, ख़ुराक, धरती ।
*२. अन्ध-विवर : ब्लैक-होल
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