May 07, 2011

"सृजन......"


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"सृजन......"
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© Vinay Vaidya 
07052011

आप बहुत श्रेष्ठ लिखते हैं, और मौलिक भी, लेकिन आपकी रचना में 
बोधगम्यता का अभाव खटकता है । आपकी रचना ’सूत्रवाक्य’ जैसी 
जान पड़ती है । इसका एक परिणाम यह होता है, कि संवादभूमि नहीं 
बन पाती । यदि आपकी रचना बहुत अधिक ’चिंतन’ के लिये प्रेरित 
करती है, तो जहाँ यह एक ओर आपकी प्रतिभा और साहित्य-कर्म की 
आपकी गंभीरता को इंगित करता है, वहीं पाठक समय के अभाव के 
कारण, या आपकी रचना को प्रथमदृष्ट्या कोरा-बौद्धिक, ऊब भरा, या 
नितांत वैयक्तिक, या फ़िर शुद्ध ’कचरा’ ही समझने की भूल भी कर सकता 
है । हाँ, यदि आप अपनी योग्यता से, अथवा येन केन प्रकारेण ’स्थापित’
हो चुके हैं, तो अलग बात है । लेकिन यदि आप सचमुच ’सृजनशील’ हैं, 
तो आप सृजनशीलता के इस नैसर्गिक और पवित्र आनंद को, ’स्थापित’
होने के उपक्रम के ’विष’ से दूषित न होने देने के प्रति अनायास ही 
जागरूक भी रहेंगे । आप शायद यह भी पता लगायेंगे, कि क्या आपके 
’विषय’ ’विचार’ और लेखन के प्रयोजन से पाठक किस प्रकार से और
किसी  हद तक जुड़ाव महसूस करता है, और किन्हीं कारणों से यह जुड़ाव 
नहीं पैदा होता, या पाठक की भावनाओं तथा संवेदनशीलता पर आपके
लेखन से आघात पहुँचता है ? और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है वह संदर्भ
  / परिप्रेक्ष्य, जिसकी पार्श्वभूमि में आपकी रचना साकार हुई । क्या पाठक
उस पार्श्वभूमि को आपकी ही भाँति देखता-चीन्हता है ?
तब आप शायद ही इस बारे में जानना चाहेंगे कि आपकी रचना को कौन 
पढ़ता है, कौन नहीं पढ़ता, और क्यों ! हाँ यदि आप के कुछ घनिष्ठ मित्र हैं,
जिनके बारे में आप सोचते हैं कि उनके विचार आपके लिये महत्त्वपूर्ण हैं, 
तो आप शायद अपनी रचनाओं को कुछ ’सरल-तरल’ बनाने की चेष्टा 
अवश्य ही करेंगे ।


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