May 07, 2011

॥ श्रीरामचन्द्रस्तुतिः ॥


     ॥ श्रीरामचन्द्रस्तुतिः ॥
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नमामि भक्तवत्सलं कृपालुशील कोमलं,
भजामि ते पदाम्बुजं अकामिनां स्वधामदं ।
निकाम श्याम सुंदरं भवांबुनाथ मंदरं,
प्रफ़ुल्ल कंज लोचनं मदादि दोष मोचनं ॥१॥
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भक्तों के हितकारी, कृपालु और अतिकोमल स्वभाववाले !
आपको मैं नमस्कार करता हूँ । जो निष्काम पुरुषों को
अपना धाम देनेवाले हैं, ऐसे आपके चरण-कमलों की मैं
वन्दना करता हूँ ।
जो अति सुन्दर श्याम शरीरवाले, संसार-समुद्र के मंथन
के लिये मन्दराचलरूप, खिले हुए कमल के-से नेत्रोंवाले
तथा मद आदि दोषों से छुडानेवाले हैं । 
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प्रलंब बाहु विक्रमं प्रभोऽप्रमेय वैभवं,
निषंग चाप सायकं धरं त्रिलोकनायकं ।
दिनेशवंश मंडनं महेश चाप खण्डनं,
मुनींद्र संत रजनं सुरारि वृन्द भंजनं ॥२॥
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मनोज वैरि वंदितं अजादि देव सेवितं
विशुद्ध बोध विग्रहं समस्त दूषणापहं ।
नमामि इंदिरापतिं सुखाकरं सतां गतिं,
भजे सशक्ति सानुजं शची पति प्रियानुजं ॥३॥
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जिनकी भुजाएँ लंबी-लंबी और अति बलिष्ठ हैं, जिनके वैभव का 
कोई परिमाण नहीं है, जो धनुष, बाण और तरकश धारण किये 
हैं, त्रिलोकी के नाथ हैं, सूर्यकुल के भूषण हैं, शंकर के धनुष को
तोड़नेवाले हैं, मुनिजन तथा महात्माओं को आनंदित करनेवाले हैं,
दैत्यों का दलन करनेवाले हैं, कामारि श्रीशंकरजी से वंदित हैं, ब्रह्मा
आदि देवगणों से सेवित हैं, विशुद्ध बोधस्वरूप हैं, समस्त दोषों को 
दूर करनेवाले हैं, श्रीलक्ष्मीजी के पति हैं, सुख की खानि हैं, संतों 
की एकमात्र गति हैं, तथा शचीपति इन्द्र के प्यारे अनुज (उपेन्द्र)
हैं; हे प्रभो ! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ और सीताजी तथा
भाई लक्ष्मण के साथ आपको भजता हूँ । 
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त्वदंघ्रि मूल ये नराः भजन्ति हीन मत्सराः
पतंति नो भवार्णवे वितर्क वीचि संकुले ।
विविक्त वासिनः सदा भजंति मुक्तये मुदा,
निरस्य इंद्रियादिकं प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥४॥
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जो लोग मद-मत्सरादि से रहित होकर आपके चरणों को भजते 
हैं, वे फिर इस नाना वितर्क-तरंगावलिपूर्ण संसार-सागर में नहीं पड़ते
तथा जो एकान्तसेवी महात्मागण अपनी इन्द्रियों का संयम करते हुए,
प्रसन्न-चित्त से भवबन्धविमोचन के लिये आपका भजन करते हैं, वे
अपने अभीष्ट पद को पाते हैं ।
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तमेकमद्भुतं प्रभुं निरीहमीश्वरं विभुं,
जगद्गुरुं च शाश्वतं तुरीयमेव केवलं ।
भजामि भाव वल्लभं कुयोगिनां सुदुर्लभं
स्वभक्त कल्प पादपं समं सुसेव्यमन्वहं ॥५॥
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जो अति निरीह, ईश्वर और सर्वव्यापक हैं, जगत् के गुरु, नित्य, जागृत्
आदि अवस्थात्रय से विलक्षण और अद्वैत हैं, केवल भाव के भूखे हैं, जो
कुयोगियों के लिये अति दुर्लभ हैं, अपने भक्तों के लिये कल्पवृक्षरूप हैं, 
तथा समस्त (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं,
ऐसे उन (आप) अद्भुत् प्रभु को मैं भजता हूँ ।
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अनूप रूप भूपतिं नतोऽहमुर्विजापतिं 
प्रसीद मे नमामि ते पदाब्ज भक्ति देहि मे ।
पठंति ये स्तवं इदं नरादरेण ते पदं
व्रजंति नात्र संशयं त्वदीय भक्ति संयुताः ॥६॥
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अनुपम रूपवान राजराजेश्वर जानकीनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ ।
मैं आपकी बार-बार वन्दना करता हूँ; आप मुझ पर प्रन्न होइये और
मुझे अपने चरण-कमलों की भक्ति दीजिये । जो मनुष्य इस स्तोत्र का
आदरपूर्वक पाठ करेंगे, वे आपके भक्ति-भाव से भरकर आपके निज पद
को प्राप्त होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं ।
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इति श्रीमद्गोस्वामितुलसीदासकृता श्रीरामस्तुतिः सम्पूर्णा ।
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