~~ कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ! ~~
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© Vinay Vaidya
क्या सचमुच ?
हाँ, और नहीं भी !
जब अभी के इन पलों से उनकी तुलना करता हूँ,
तो वे बहुत अपने लगते हैं ।
लेकिन शायद ऐसा तब भी तो था !
लेकिन सोचता हूँ, तब बेचैनी कहाँ थी ?
कुछ ’छूट जाने’ का एहसास कहाँ था ?
तब बस ’वर्तमान’ हुआ करता था ।
सचमुच तब भविष्य का विचार तक नहीं होता था ।
तब सुख थे, कष्ट भी थे, और प्रश्न भी थे ।
अब सुख बहुत कम हैं, या जो हैं भी, उनका एहसास
तभी होता है, जब वे छिन जाते हैं,
जैसे अचानक ’नेट’ का कट जाना,
अब यह ’प्रश्न’ नहीं ’चिन्ता’ बन जाता है ।
लेकिन क्या फोन, मोबाइल, टीवी, फ़्रिज,
मोटर-सायकल के बिना भी क्या मैं सुखी नहीं था ?
तब गाँव से छह किलोमीटर चलकर आधे घण्टे के इन्तज़ार के बाद
दूर से आती बस के रुक जाने, उसमें खड़े होने भर की जगह भी
मिल भर जाने से एक खुशी नहीं होती थी ?
लगता है कि तब बहुत उत्साह था, जो अब चुक गया है ।
अब बस आशाएँ ही बाकी हैं,
’तदपि न मुञ्चति आशावायुः’
किसकी आशा ?
कोई उत्तर नहीं है मेरे पास ।
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ReplyDeleteलेकिन क्या फोन, मोबाइल, टीवी, फ़्रिज,
मोटर-सायकल के बिना भी क्या मैं सुखी नहीं था ?
तब गाँव से छह किलोमीटर चलकर आधे घण्टे के इन्तज़ार के बाद
दूर से आती बस के रुक जाने, उसमें खड़े होने भर की जगह भी
मिल भर जाने से एक खुशी नहीं होती थी ?
लगता है कि तब बहुत उत्साह था, जो अब चुक गया है ...
चलिए लौट चलते हैं उन पुराने दिनों की ओर । मेरा तो मन छटपटाता है गाँव के निश्छल , उन्मुक्त जीवन के लिए ...
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सुख को हम अक्सर भौतिक सुविधाओं से समीकृत करते हैं, जो सामयिक, मिथ्या और भ्रम ही है.
ReplyDeleteधन्यवाद,
ReplyDeleteदिव्याजी, राहुलजी !
सादर !!