एक क़ोशिश, बस यूँ ही कुछ .....!!
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इश्तेहार हो चले हैं अब रस्मी, रस्में अब होने लगी हैं इश्तेहार,
जब से बाज़ार घुस गया घर में बन गये रिश्ते सारे क़ारोबार ।
जी हाँ एहसास भी मिलेंगे यहाँ, थोक में लेंगे तो क़िफ़ायत होगी,
एक के साथ दो मिलेंगे फ़्री, और पैसों की भी बचत होगी ।
चाहे क़िश्तों में चुकायें या ऑर्डर दें, चाहे क्रेडिट से लें, हर्ज़ नहीं,
कैश दें एकमुश्त तो बेहतर है, कोई बाक़ी रहेगा कर्ज़ नहीं ।
आईये वेल्कम है, स्वागत है, ख़ैर-मक़दम है, आईये हुज़ूर,
आपका घर है, मेरा ये जो ग़रीबख़ाना है, आईये आईये ज़रूर ज़रूर !!
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किसी कवि के नवगीत की पंक्तियां याद आ रही हैं-
ReplyDeleteहमने शब्द लिखा था रिश्ते, अर्थ हुआ बाजार
कविता के माने खबरें हैं, सम्वेदन व्यापार
भटकन की उंगली थामे हम विश्व ग्राम तक आए.
धन्यवाद,
ReplyDeleteपोस्ट पढ़ने और टिप्पणी के लिये राहुलजी !!
सादर,