February 20, 2011

एक क़ोशिश, बस यूँ ही कुछ .....!!

एक क़ोशिश, बस यूँ ही कुछ .....!!
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इश्तेहार हो चले हैं अब रस्मी, रस्में अब होने लगी हैं इश्तेहार,
जब से बाज़ार घुस गया घर में बन गये रिश्ते सारे क़ारोबार ।
जी हाँ एहसास भी मिलेंगे यहाँ, थोक में लेंगे तो क़िफ़ायत होगी,
एक के साथ दो मिलेंगे फ़्री, और पैसों की भी बचत होगी ।
चाहे क़िश्तों में चुकायें या ऑर्डर दें, चाहे क्रेडिट से लें, हर्ज़ नहीं,
कैश दें एकमुश्त तो बेहतर है, कोई बाक़ी रहेगा कर्ज़ नहीं ।
आईये वेल्कम है, स्वागत है, ख़ैर-मक़दम है, आईये हुज़ूर,
आपका घर है, मेरा ये जो ग़रीबख़ाना है, आईये आईये ज़रूर ज़रूर !!

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2 comments:

  1. किसी कवि के नवगीत की पंक्तियां याद आ रही हैं-
    हमने शब्‍द लिखा था रिश्‍ते, अर्थ हुआ बाजार
    कविता के माने खबरें हैं, सम्‍वेदन व्‍यापार
    भटकन की उंगली थामे हम विश्‍व ग्राम तक आए.

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  2. धन्यवाद,
    पोस्ट पढ़ने और टिप्पणी के लिये राहुलजी !!
    सादर,

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