February 16, 2011

~~बया का घोंसला~~


~~बया का घोंसला-1~~
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उन दिनों मैं कक्षा नौ का छात्र था ।
गाँव में एक ही मुख्य सड़क (रोड) थी, जो जिला-मुख्यालय ’सीधी’ 
से आकर ’सिंगरौली’ की ओर चली जाती थी । अब तो ’सिंगरौली’
भी जिला-मुख्यालय हो गया है ।
गाँव में एक ही नदी थी, जो लगभग साल भर जल से भरी रहती थी ।
अब पता नहीं वह नदी है भी या नहीं । मेरा दोस्त था खालिद, जो वहाँ 
के सी.आई. (सर्किल-इन्स्पेक्टर) का बेटा था, और उसका बड़ा भाई था 
तारिक, जो रीवा में पढ़ता था । मैं और खालिद अक्सर नदी की ओर 
घूमने चले जाते थे, जहाँ बेर, आँवले, करौंदे के बहुत से पेड़ थे ।
नदी के किनारे एक बंगाली बाबा रहता था, जो बाँसुरी बजाता था । 
पता नहीं क्यों वह बाँसुरी पर एक ही धुन बजाता रहता था ।
बहुत बाद में सुना था कि वह तान्त्रिक था ।
उस नदी के किनारे एक गूलर का पेड़ था ।
कभी कभी नदी में गिरे हुए उसके फ़लों को हम खाया करते थे ।
पानी में धुलने से उनके भीतर के छोटे-छोटे कीड़े निकल जाते थे ।
खालिद को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि उन फ़लों में कीड़े होंगे ।
वह जमीन पर गिरे फ़ल भी आराम से फ़ूँक-फ़ूँक कर खाता था ।
हम अकसर सोचते थे कि कहीं ये फ़ल ज़हरीले तो नहीं होंगे ।
अंत तक हमें यह शक बना रहा । गूलर के पेड़ के अलावा नदी किनारे 
बहुत सी घास, झाड़ियाँ और दूसरे छोटे बड़े पेड़-पौधे भी थे ।
बंगाली बाबा की कुटिया तक जाना मुश्किल था । हम उसकी कुटिया 
से थोड़ा पहले ही बाईं ओर मुड़ जाते थे । और क़रीब पन्द्रह मिनट तक 
चलकर उस जगह आते थे जहाँ नदी कुछ सँकरी हो जाती थी । ॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥॥
नदी के इस किनारे बबूल और बेर के बहुत से पेड़ और झाड़ियाँ थीं, तो 
झरबेरी की भी बहुत सी जँगली क़िस्में वहाँ थीं । हम बस घूमते हुए 
उन्हें चखते और खाते रहते । हाँ, कैथे और इमली का ज़िक्र करना तो 
भूल ही गया था । दूसरे किनारे थोड़ी सी ऊँचाई पर भी कोई साधु जैसा 
व्यक्ति रहता था । अकसर राम-चरित-मानस पढ़ता, और कभी-कभी 
’कल्याण’ । ’कल्याण’ शायद कोई उन से मिलनेवाला उन्हें  दे जाया 
करता था । जब हम उनकी कुटिया पर जाते, तो वे प्रेम से हमें भीतर 
बुलाते  और खोपरा, चिरौंजी या इलायचीदाना, या चने-चिरौंजी आदि 
देते । हम उन के पैर छूकर लौट आते थे । कभी-कभी थोड़ी देर उन के 
पास बैठ भी जाते थे । 
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उनका पूरा नाम तो शायद कभी सुना नहीं, लेकिन लोग उन्हें ’प्रसादी-बाबा’
कहते थे । शायद राम प्रसाद या इससे मिलता जुलता नाम था उनका । 
वैसे पास के ही किसी और गाँव में उनके भाई और परिवार के और लोग 
रहते थे, लेकिन वे उनसे अलग, यहाँ अकेले ही रहते थे । 
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देह और देहात्म-बुद्धि ।
प्रसादी बाबा के घर के सामने नदी के उस पार, और इस ओर भी बया के 
बहुत से घोंसले थे । कभी कभी हम बहुत कोशिश कर कोई घोंसला तोड़ 
लेते, तो प्रसादी बाबा बहुत नाराज़ होते थे । लेकिन कहते कुछ नहीं थे । 
हम सोचते थे कि वे इसलिये नाराज़ होते होंगे कि हम उन्हें चिढ़ाने के लिये 
यह घोंसला तोड़कर लाये हैं, जबकि हम सिर्फ़ उत्सुकता और कौतूहल के 
कारण लाते थे । खालिद कहता था कि वे इसलिये नाराज़ होते हैं क्योंकि यह 
घोंसला उनकी शक्ल सूरत से बहुत मिलता जुलता है । मुझे भी उसकी बात 
पर भरोसा था । लेकिन उनसे मिलनेवाले चने-चिरौंजी और गुड़-खोपरा के 
लालच में हम बया का घोंसला लेकर उनकी कुटिया के आसपास फ़टकते 
तक नहीं थे । एक बार ऐसे ही जब उनकी कुटिया पर पहुँचे तो वे किसी से 
’देह और देहात्मबुद्धि’ की बात कर रहे थे । जब हम चने-चिरौंजी की प्रतीक्षा 
करते हुए थोड़ी देर के लिये वहाँ बैठ गये, तो वे किसी काम से दो मिनट के 
लिये बाहर चले गये ।
कुटिया में बैठे दूसरे दो व्यक्ति आपस में बातें कर रहे थे ।
"दादा आपने बया के घोंसले देखे ?"
"हाँ, बहुत खूबसूरत हैं ।"
"आपको पता है, हर घोंसले में एक या दो बच्चे रहते हैं । बड़े होने पर उड़ 
जाते हैं, और घोंसला हवा में झूलता रहता है । ये प्रसादी बाबा भी ऐसे ही हैं ।
इनकी देह के भीतर से 'देहात्म-बुद्धि' उड़ गई है । बस हवा में डोलते रहते हैं ।
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फ़िर वर्षों तक "श्री रमण महर्षि से बातचीत" पढ़ते हुए "देह और देहात्म-बुद्धि" 
के बारे में कुछ समझ सका । आज जब कहीं उन घोंसलों का चित्र देखा, तो 
’प्रसादी बाबा’ याद हो आये ।
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2 comments:

  1. कभी पिंजरे, कभी घोंसले में कैद मन-प्राण-पखेरू.

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  2. राहुल सिंहजी,
    टिप्पणी के लिये आभार !
    सादर,

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