March 04, 2011

~~~~~~~ताउम्र~~~~~~~~


~~~~~~~ताउम्र~~~~~~~~
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© Vinay Vaidya 



पहचान भूल जाने से,
रिश्ते ख़त्म नहीं होते,
रिश्ते टूट जाने से,
पहचान ख़त्म नहीं होती,
किसी नाम से रू-ब-रू होते ही,
लगता है वह जाना-पहचाना सा,
लेकिन उसका चेहरा याद नहीं आता ।
और किसी चेहरे को देखकर,
नाम जुबाँ तक आते-आते,
कहीं फ़िसल सा जाता है ।
फ़िर किसी दिन अचानक ही,
नाम और चेहरे जाने-पहचाने से लगते हुए भी,
बस अपने से लगने लगते हैं,
जिनके बारे में हमें ’कुछ’ तो पता होता है,
लेकिन क्या पता है,
यह ठीक से याद नहीं आता ।
ढूँढते रहते हैं हम ताउम्र उन अपनों को,
कभी दूर, कभी आस-पास कही,
और कभी जागी  कभी सोई या फ़िर
कभी-कभी उनींदी आँख़ों के सपनों में ।


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2 comments:

  1. सपने तो सपने होते हैं.

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  2. राहुलजी,
    क्या याददाश्त भी सपना ( या सपने ) होती है ?
    सादर,

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