निष्ठात्रयी
मनुष्य सहित सभी प्राणी लोक निष्ठा से प्रेरित होते हैं। लोक निष्ठा का तात्पर्य है संसार में स्वयं का एक स्वतंत्र अस्तित्व होते हुए भी संसार पर निर्भर होना। इस प्रकार संसार की एक पहचान और उसमें स्वयं की उससे जुड़ी अपनी एक और भिन्न पहचान। अर्थात् मैं और मेरा संसार। दोनों एक दूसरे से कितने अलग, जुड़े या एक दूसरे पर निर्भर हैं यह प्रश्न उसमें शायद ही कभी उठता है। वह भी तभी जब इस संसार में उसे किसी संकट या असुविधा का सामना करना पड़ता है। तब भी वह संसार की वस्तुओं और लोगों में से ही किसी को अपना, किसी को पराया और शेष सभी को अपरिचित कहकर इस रूप में उनकी एक अलग पहचान स्थापित कर लेता है, जो हमेशा बदलती, बनती और मिटती रहती है।
संसार की इसी तात्कालिक पहचान के आधार पर वह 'अपने आप' को निरंतर सुखी, सुरक्षित और स्वतंत्र बनाए रखने में जुटा रहता है। यद्यपि उसे यह भी लगता है कि एक संभावना के रूप में किसी भी समय उसकी मृत्यु हो सकती है, पर 'अपनी' मृत्यु होने का वास्तविक तात्पर्य क्या हो सकता है, इसे वह न तो अनुभव से जान सकता है और न जानकारी की तरह इसलिए उस बारे में वह अधिक कुछ कर भी नहीं सकता। वह केवल यही जानता है कि उसके इस संसार में उसे स्वयं को और उसके 'अपनों' को यथासंभव अधिक से अधिक सुखी, सुरक्षित और प्रसन्न रखना है,और उसके सारे प्रयास इसी भावना से प्रेरित होते हैं। फिर 'अपने' भी कभी मित्र, कभी शत्रु और कभी अपरिचित भी हो जाया करते हैं। वह अपने ऐसे संसार की परिस्थितियों को अनुसार स्वयं को भी बदलता रहता है या किन्हीं आदर्शों, ध्येयों और सिद्धान्तों के लिए अपने जीवन का बलिदान देने को ही जीवन का एकमात्र आदर्श और ध्येय बना लेता है। वह अपने मत का कट्टर अनुयायी बनने का प्रयास करने लगता है, उस पर दृढ़ विश्वास करने लगता है और जैसे ही उसके विश्वास को तोड़ने की कोई चेष्टा कहीं से या किसी के द्वारा की जा रही है उसे ऐसा लगता है तो वह अपनी पूरी शक्ति से उसका न सिर्फ प्रतिरोध ही करता है बल्कि उसके लिए दूसरों के और अपने स्वयं के भी प्राण ले लेना उसके लिए परम पुण्य और सबसे बड़ा कर्तव्य होता है। यह है लोक निष्ठा से प्रेरित मनुष्य का जीवन। वह अंधे की तरह अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ते रहने के लिए बाध्य होता है, फिर भले ही इस प्रयास में वह स्वयं या पूरी दुनिया ही नष्ट हो जाए, इसकी उसे चिंता ही नहीं होती। इसका सबसे अच्छा उदाहरण यदि कोई हो सकता है तो वह है चींटियों का जीवन जीने का तरीका। प्रयोग से भी जाना जा सकता है कि चींटियां दृष्टिहीन होती हैं और केवल गंध तथा ध्वनि कंपनों के संकेतों के आधार पर, उसी माध्यम से अपना रास्ता तय करती हैं। वे ऊंट या भेड़ों की तरह अनुकरण के सहारे अपना रास्ता तय करती हैं। उन्हें विचार या तर्क आकर्षित नहीं करता। वे सिर्फ तात्कालिक आवश्यकता, लोभ या डर से बाध्य होकर कार्य करते हैं। उनमें से कुछ इने गिने नेतृत्व की क्षमता से युक्त होते हैं जबकि दूसरे अधिकांश सभी, दासता की जंजीरों में बुरी तरह जकड़े हुए होते हैं। यह दासता राजनैतिक से अधिक मंदबुद्धि से उत्पन्न नासमझी के कारण ही होती है। और इसीलिए ये लोग अत्यन्त मूढ़, दुराग्रही और क्रूर तथा कठोर प्रवृत्ति की मानसिकतावाले होते हैं और अधिकार, अवसर और शक्ति मिलते ही दूसरों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने लगते हैं। इनका समूह कितना भी बड़ा हो, इसीलिए धीरे धीरे विखंडित होता रहता है और लगातार टूटता ही चला जाता है। अंततः पूरी तरह से नष्ट ही हो जाता है। जबकि
दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग होते हैं और कुछ सभ्यताएं भी होती हैं जिनकी किसी मूल परंपरा से ही विकसित कोई भाषा, संस्कृति और वैचारिक पृष्ठभूमि होती है जिसमें लोगों के बीच मतभेद हो सकते हैं किन्तु उनमें परस्पर प्रेम, सौहार्द और मानवता के मूल्यों पर आधारित कोई स्वाभाविक विश्वास और आत्मीयता भी होती है, जो न सिर्फ अपने समूह या समुदाय के, बल्कि संसार के सभी प्राणीमात्र के प्रति होती है। और फिर वे भले ही किसी प्रकार के ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करें या न करें, उनके मन और हृदय बहुत विशाल और उदार होते हैं। वे भीरु और शांतिप्रिय, या साहसी और वीर भी हो सकते हैं और समय आने पर उनका यह रूप भी दिखाई देता है। इनकी निष्ठा कर्म और पराक्रम के प्रति होती है। ये समाज और संसार को सतत ऊपर उठाते रहना चाहते हैं। इनमें से कुछ, असफलताओं निराश होकर -
"यह सब क्या है, क्या इस सबका कोई विशिष्ट प्रयोजन है, जैसे प्रश्नों पर सोचने लगते हैं। कभी कभी वे सोचने लगते हैं कि क्या पूरा संसार कभी पूरी तरह सुखी और सुरक्षित हो सकता है?" यद्यपि वे उन अधिकांश लोगों से इस दृष्टि से भिन्न और विशिष्ट भी हो सकते हैं कि उनकी बुद्धि और स्मृति औरों से श्रेष्ठ है, और इसलिए वे अपनी बुद्धि का युक्तिसंगत प्रयोग कर स्थितियों का अनुमान और आकलन अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं, किन्तु उनकी यह बुद्धि और स्मृति भी मूलतः तो प्रकृति के द्वारा संचालित की जाती है और वे बस प्रकृति के एक यंत्र की तरह प्रकृति से निर्दिष्ट कार्य को संपन्न करते हैं। बुद्धि और स्मृति के उसी प्रारूप pattern, framework, पर कार्य करते हुए यद्यपि उसे ऐसी अनेक चमत्कारपूर्ण और असाधारण उपलब्धियाँ भी मिल जाएँ, जो कि उसे और उसके संसार को विस्मयविमुग्ध कर दें, परंतु इससे क्या उसके और उसके संसार के आभासी, काल्पनिक या वास्तविक उसके समस्त दुःखों का स्थायी अन्त हो सकेगा? इन सभी दुःखों की प्रतीति उसे केवल उसकी जागृति की दशा में ही नहीं हुआ करती है! और, निद्रा आ जाने पर वे सभी अनायास और अकस्मात् ही विलीन भी नहीं हो जाते हैं?
क्या निद्रा के आते ही तर्क और बुद्धि भी उसी प्रकार तात्कालिक रूप से निष्क्रिय और विलीन नहीं हो जाते हैं? और उसका ध्यान जैसे ही इस तथ्य पर जाता है तब क्या वह इस तथ्य से इनकार कर सकता है कि मनुष्य और दूसरे सभी (चेतन) प्राणी निद्रा में जिस परिपूर्णता, शान्ति और सुख का अनुभव करते हैं, वह अवश्य ही उनके अपने ही भीतर विद्यमान है, न कि संसार और सांसारिक वस्तुओं में!
ध्यान / attention न तो कोई बौद्धिक या वैचारिक प्रक्रिया है, न कोई कौशल या ऐसी चतुराई जिसे कि कोई दूसरों से सीख सकता है। इसे अन्वेषण और अनुसन्धान की तथा उस अभ्यास की सहायता से भी प्राप्त किया जा सकता है जिसे
"नित्य अनित्य विवेक" कहा जाता है और जिसे कोई बच्चा या अल्पबुद्धि मनुष्य भी जानता तो है किन्तु उस पर उसका ध्यान ही नहीं जाता है।
पराञ्चखानि व्यतृणत् स्वयंभू
स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः।
धियं परावर्त्य धियोऽन्तरेऽत्र
संयोजनान्नेश्वरदृष्टिरन्या।।
(संभवतः यहाँ सद्दर्शनम् के एक श्लोक को उद्धृत करने में मुझसे भूल हुई हो, किन्तु उसे सुधार पाना अभी संभव नहीं प्रतीत हो रहा है।)
स्मृति और बुद्धि दोनों ही मन, चित्त, वृत्ति और अहंकार के ही पर्याय हैं, इसलिए अत्यन्त प्रतिभाशाली भी कभी इस बाधा को पार नहीं कर पाता है।
वे कुछ लोग ही जिनमें विवेक की जागृति के फलस्वरूप संसार के सभी विषयों से मन उचट गया होता है वैराग्य से युक्त होकर
"यह सब, जीवन, अस्तित्व, संसार आदि क्या है?"
जैसे प्रश्नों का बौद्धिक उत्तर नहीं बल्कि स्थायी समाधान खोजने के लिए उत्सुक हो उठते हैं।
वे जानते हैं कि किसी विशिष्ट या साधारण कर्म के करने से इस प्रकार के समाधान की प्राप्ति होने का कभी कोई संबंध ही नहीं है।
गीता के अध्याय २ के निम्नलिखित श्लोक ४९ से कर्म की मर्यादा स्पष्ट हो जाती है -
दूरेणह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।
भगवान् आदि शङ्कराचार्य भी यही शिक्षा देते हैं -
कुरु ते गंगासागर गमनम् व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनं सर्वमनेन मुक्तिर्न भवति जन्मशतेन।।
और गीता के एक और सुप्रसिद्ध श्लोक में यह भी है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भू मा ते सङ्गोऽस्त्कर्मणि।।
जिसमें निर्देश दिया गया है कि
तुम कर्म से पलायन भी नहीं कर सकते।
गीता के अध्याय २ के ९ वें, अध्याय ३ के २७ वें और अध्याय १८ के ५९ वें श्लोकों में पुनः इस पर बल दिया गया है।
यहाँ पर इस पोस्ट को समाप्त कर रहा हूँ।
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