October 08, 2025

SAT-ADHARA

Sat-dhARA 

सत्-धारा / सात-धारा

चार सितंबर 2024 की सुबह नर्मदा तट पर स्थित इस स्थान पर आकर वर्ष 2025 में एक वर्ष और एक माह पूरा हो चुका है। पिछले वर्ष के अंतिम चार और इस वर्ष के पहले दो माह बहुत सुख से बीते। आशा है कि इस वर्ष के शेष तीन माह भी शायद यहीं पर सुखपूर्वक बीत सकेंगे। ब्लॉग लिखने, यू-ट्यूब पर छोटे बड़े वीडियो देखने में समय कभी कम पड़ता है, कभी बहुत धीमी गति से चलता हुआ महसूस होता है। अपने हाथ से और  अपनी सुविधानुसार अपने समय पर खाना बनाना और खाना भी अच्छा लगता है। किसी भी समय, कितने भी समय तक सोना भी इसी तरह है। कुछ समय तक बीच में कुछ लोगों से बातचीत हो पाने में कठिनाई हो रही थी। अब वह कठिनाई दूर हो गई है ऐसा लगता है। यह कठिनाई सिर्फ परिचितों से ही नहीं, अपरिचितों को भी मुझसे और शायद मुझे भी उनसे होती रही थी। धीरे धीरे लोग एक दूसरे से अनुकूल हो जाते हैं।

संबंध, संपर्क, संवाद और बातचीत तब सुनियोजित और स्वाभाविक हो जाती है, या बस औपचारिक रह जाती है, तब यह समझ में आ जाता है कि अनावश्यक बातचीत से मनोरंजन तो हो सकता है, बाद में ऊब भी हो सकती है। और हर कोई अकेलेपन से भागने की कोशिश किया करता है और इसलिए यह भी थोड़ा विचित्र है कि इतना परिपक्व होने से पहले, उसे यह नहीं समझ में आता है कि अकेलापन ईश्वर प्रदत्त वरदान ही है न कि एक ऐसी समस्या जिसका हल उसके पास नहीं होता है। यहाँ तक पहुँचने से पहले प्रायः हर किसी को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग तो जल्दी समझ लेते हैं, किन्तु अधिकांश लोग बहुत देर से, या शायद अंत तक भी समझ तक नहीं पाते।

संसार और संसार के समस्त विषयों का संवेदन / perception चेतना / consciousness में ही होता है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ स्वभाविक रूप से बहिर्मुख होती हैं। बाह्य विषयों का संवेदन भिन्न भिन्न प्रकार का होते हुए भी चेतनारूपी पर्दे / interface पर उन्हें ही दृश्य, श्रव्य, गंध, स्वाद तथा स्पर्श के रूप में स्मृति में संग्रहित कर उनमें तारतम्य स्थापित करने के लिए अपने आपको ही आधार बना लिया जाता है और इस प्रकार स्वयं को परिभाषित कर लिया जाता है। यद्यपि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से संसार को जाना जाता है किन्तु जिस बुद्धि नामक यंत्र से यह जाना जाता है वह स्वयं स्मृतिजनित हो सकती है, या बुद्धि नामक यंत्र ही स्मृति के उत्पन्न होने का कारण और आधार भी हो सकता है। यह एक दुष्चक्र है क्योंकि बुद्धि से स्मृति और उसका सातत्य पैदा होता है और स्मृति होने से बुद्धि कार्य करने में समर्थ हो पाती है। इस प्रकार एक विशिष्ट और वैयक्तिक "संसार" का संचार स्मृति / बुद्धि में ऐसे व्यक्ति-सापेक्ष वैचारिक संसार को सत्यता देता है, जो हर किसी के लिए उसका अपना अपना और अलग अलग होता है। व्यक्तियों के समूह या समुदाय के लिए भी ऐसा सामूहिक संसार अस्तित्वमान हो उठता है, और फिर स्मृति / बुद्धि पर आधारित चेतना (perception) में व्यक्ति और उसके संसार की एक कामचलाऊ पहचान और उस पहचान के अपने आपके होने की भावना उत्पन्न होती है। यह सब केवल वैयक्तिक और मानसिक कल्पना होती है।

चेतना के दो अवयव बुद्धि / स्मृति और पराक्रम हैं। भावना इन दोनों के बीच पुल की तरह है। समस्त संवेदन बुद्धि / स्मृति और भावना के माध्यम से ही संभव होते हैं और किसी भी संवेदन की अनुभूति इन्हीं दो में से किसी एक या एक साथ दोनों के ही मिश्रित रूप में होती है।

बुद्धि से किसी वस्तु के मात्रात्मक गुण को जाना जाता है, जबकि भावना से अनुभूति अर्थात् विषय संवेदन के प्रकार को। जैसे फूल की सुगंध अच्छी लगती है, किसी अस्वच्छ या गंदी वस्तु की गंध बुरी लगती है। अच्छा या बुरा लगना स्थूल भावनात्मक अनुभूति का उदाहरण है। इसकी स्मृति और स्मृति से उत्पन्न प्रतिक्रिया पुनः एक और भावनात्मक अनुभूति होती है, जिसे कोई शब्द देते ही "भाषा" नामक एक कृत्रिम साधन उपलब्ध होता है। इस साधन का और अधिक विस्तार तथा विकास होने पर यही बौद्धिक ज्ञान (intellect) का रूप ले लेता है। बुद्धि के कार्य का प्रकार वैज्ञानिक, गणितीय, या तार्किक हो सकता है या अनुभूति पर आधारित कलात्मक। जैसे फूल की गंध को भिन्न भिन्न फूलों के गंध की भिन्नता के तरह भी जाना जा सकता है, या मधुर, कटु, तीक्ष्ण आदि रूपों में भी उसकी पहचान की जा सकती है। यह सब ज्ञान का सूक्ष्म / आधिदैविक रूप है, जबकि स्थूल ज्ञान आधिभौतिक रूप होता है।

गणना करना स्पष्टतः गुणों को गणों में विश्लेषण करने पर निर्भर है, जबकि भावना किसी भावनात्मक संवेदन के प्रकार विशेष पर निर्भर होती है। भावना को गणित या तर्क की कसौटी पर और बुद्धि को भावना की कसौटी पर नहीं समझा या समझाया जा सकता है।

गणपति, या गणेश इसलिए बुद्धि के अधिष्ठाता देवता हैं, जबकि सरस्वती, विद्या की अधिष्ठात्री देवता हैं। संस्कृत भाषा में 'देवता' शब्द / पद को पुल्लिंग या स्त्रीलिंग दोनों ही तरह से प्रयुक्त किया जाता है। इसी तरह, 'अधिष्ठाता' शब्द को भी। अंग्रेजी भाषा में इस शब्द का अनुवाद   'Presiding'  किया जाता है, और प्रचलित रूप में अधिष्ठाता देवता को त्रुटिवश  Presiding Deities कहा जाता है, जो भ्रामक है। क्योंकि  Deity  शब्द  "दिति" से व्युत्पन्न सज्ञात या सजात  cognate  है। दिति और अदिति दोनों बहनें ऋषि कश्यप की पत्नियाँ हैं। दिति से दैत्यों और अदिति से १२ आदित्य / देवताओं का उद्भव हुआ। यह पौराणिक विवेचना है, जबकि वेद और वैदिक आधार पर दैत्य, देवता, यक्ष, गंधर्व, दानव, मनुष्य, राक्षस, किंनर, विद्याधर, अप्सरा आदि भिन्न भिन्न प्रजातियाँ हैं जो दस प्रजापतियों की संतानें हैं। सुर और असुर गुण-कर्म रूपी संपत्तियाँ हैं जिनका दैवासुर संपत्ति के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लेख है।

गणपति और सरस्वती के अतिरिक्त पराक्रम के रूप में जिन देवता का उल्लेख वेदों और पुराणों में पाया जाता है उनका नाम है स्कन्द, कुमार, कार्तिकेय, या षडानन। वैदिक ज्यौतिष् के अनुसार स्कन्द को 'षाण्मातुर' कहा जाता है। जब पृथ्वी तारकासुर नामक असुर से त्रस्त थी तो पृथ्वी के उद्धार के कार्य के लिए भगवान् शिव और माता पार्वती के पुत्र कुमार / स्कन्द का अवतार होने का विधान ब्रह्मा ने सुनिश्चित किया था और तब देवताओं ने भगवान् शिव और माता पार्वती को संतानोत्पत्ति के कार्य में प्रवृत्त करने के लिए कामदेव को नियोजित किया। तब कामदेव को शिव ने तृतीय नेत्र खोलकर जलाकर भस्म कर दिया। और भगवान् शिव और माता पार्वती ब्रह्मा के विधान के अनुसार कितने ही दिव्य वर्षों तक सुरत क्रीडा में संलग्न हो गए। जब अत्यन्त देर तक वे इस क्रीडा में संलग्न रहे तो उनकी क्रीडा को किसी ने बाधित किया और  भगवान् शिव के तेजस् वीर्य के उत्सर्जन होने पर पार्वती ने उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया। तब गंगा के जल से कुमार का जन्म हुआ। जन्म लेते ही उछलकर वह खड़ा हो गया। उस दिव्य संतान के छः मुख थे और तब कृत्तिका नक्षत्र की छः तारकाओं / मातृकाओं ने उसे स्तनपान कराया। इसलिए उसका नाम 'कार्तिकेय' हुआ। दिव्य आधिदैविक  घटना का उल्लेख स्कन्द-पुराण और  (संभवतः) श्रीरामचरितमानस में भी है। 

महाकवि कालीदास ने इसी विषय पर "कुमारसंभव" नामक कृति की रचना की जिसमें भगवान् शिव और माता पार्वती के बीच की सुरत क्रीडा का श्रँगारात्मक  वर्णन किया जिससे उन्हें शाप प्राप्त हुआ। 

एक छोटा सा प्रश्न सुबह किसी ने पूछा था :

क्या स्कन्द के षडानन नाम को खड़ानन कहने में कोई दोष है? 

इसका उत्तर यही होगा कि कथा के वाचन में जिस भाषा में कथा है, उस भाषा में प्रयुक्त शब्द को उस तरह कहने में कोई दोष नहीं है, किन्तु वेद में वर्णित भगवान् स्कन्द के मंत्र में इस प्रकार से प्रयुक्त करने में अवश्य दोष है। उदाहरण के लिए -

शिव अथर्वशीर्ष और गणपति अथर्वशीर्ष में स्कन्द को ही गणपति, रुद्र, इन्द्र, वरुण, बृहस्पति, अग्नि, सूर्य, वायु आदि भी कहा गया है। किन्तु षडानन शब्द का अन्यत्र जहाँ प्रयोग किया गया है, वहाँ इस शब्द का उच्चारण इसी प्रकार से किया जाना चाहिए, न कि खड़ानन के रूप में।

Y H V H  य ह्वः

प्रकारान्तर से ऋग्वेद में जहाँ यह्व पद का प्रयोग है और जिसे उसी प्रकार से यहूदी मत में यथावत् स्वीकार कर लिया गया है, षडानन या स्कन्द ही यह्व हैं, इसमें कोई संशय नहीं हो सकता है। यहूदी राष्ट्र इसरायल और उस परंपरा  के उद्भव को इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो इससे भी इसकी पुष्टि हो जाती है। इसरायल के राष्ट्रीय ध्वज पर षट्कोणीय चिह्न भी इसका ही द्योतक है। इस विषय पर पहले भी अनेक पोस्ट्स में विस्तार से लिख चुका हूँ। 

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