October 27, 2025

Attachment/Detatchment.

जुड़ना-टूटना

किसी से जुड़ना किसी माध्यम / बहाने से होता है।

और टूटना भी।

कभी किसी एक से जुड़ने के लिए किसी दूसरे से टूटना भी पड़ सकता है।

प्रकृति और पुरुष का संबंध भी ऐसा ही है।

वैसे समष्टि प्रकृति और समष्टि पुरुष का संबंध, जुड़ाव और अलगाव काल्पनिक ही है, और प्रकृति तथा पुरुष दोनों एक ही वास्तविकता के दो पक्ष हैं किन्तु जैसे ही किसी व्यक्तिगत सत्ता का अस्तित्व एक या अनेक व्यक्त रूपों में अभिव्यक्त होता है, यह उस "मैं" की कल्पना में "मैं" और उस "मैं" भिन्न उसके संसार की तरह परस्पर  अविभाज्य होते हुए भी उससे जुड़ा भी होता ही है। उस "मैं" की दृष्टि में उसके उस संसार में उसके जैसे और भी दूसरे असंख्य मानव और मानवेतर व्यक्ति होते हैं, और वह "मैं" उन सब जैसा फिर भी सबसे विलक्षण होता है। संसार और संसार के असंख्य व्यक्ति, वस्तुएँ और उनसे जुड़ी उसकी प्रतिक्रियाएँ "मैं" के भीतर स्मृति के रूप में  एकत्र होकर उन सबकी कोई एक या अनेक प्रतिमाओं का निर्माण करती हैं, जिसका विस्तार और सीमा भी उस "मैं" की कल्पना करने की क्षमता तक ही संभव होता है। इन सभी "मैं" का ऐसा कोई संसार कहीं नहीं होता जो सबके लिए समान हो सकता है। प्रत्येक "मैं" और उस "मैं"-रूपी व्यक्ति का संसार अन्य सभी ऐसे दूसरे सभी "मैं"-रूपी व्यक्तियों से कुछ अंशों में समान या असमान होते हुए भी नितान्त भिन्न होता है और ऐसे किसी संसार का तो अस्तित्व ही नहीं हो सकता जो संपूर्ण रूप से सब के लिए समान और एक हो सकता है। फिर भी बातचीत में हर कोई संसार को सबके लिए समान एक वस्तु मान लेता है और इस पर किसी का ध्यान तक नहीं जाता कि ऐसे किसी सर्वसामान्य संसार का अस्तित्व होना संभव ही नहीं है। इसलिए जिसका अस्तित्व ही संभव नहीं है,  उससे जुड़ने या अलग होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

हर व्यक्ति फिर भी अपने अनुभवों की स्मृतियों से निर्मित अपने संसार की विभिन्न वस्तुओं और व्यक्तियों से अपनी इच्छा या आवश्यकता के अनुसार संबद्ध होता है या फिर उनसे अलगाव होना चाहता है।

इन्हीं अनेक इच्छाओं, आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वह विभिन्न समूह बनाता है और ऐसे तमाम समूह जो आगे चलकर और भी विशिष्ट स्वरूप ग्रहण करते हैं, परस्पर जुड़ते और टूटते भी रहते हैं। जैसे कि परिवार और विशेष व्यावसायिक या राजनीतिक समूह या वर्ग। जैसे बौद्धिक और श्रमजीवी, कलाकार, साहित्यकारों के समूह। जैसे भाषा, परंपराओं पर आधारित समूह। रोचक तथ्य यह भी है कि इनमें से प्रत्येक समूह का एक अंश किसी रूप में दूसरे किसी समूह के कुछ अंशों से जुड़ा हो सकता है। जैसे कि कृषि कार्यों में संलग्न व्यक्ति भाषा के आधार पर भिन्न भिन्न समूहों से जुड़े हो सकते हैं। पढ़े लिखे लोग भी सामाजिक परंपराओं से जुड़े होने पर भी एक दूसरे से अलग अलग समूहों से संबद्ध हो सकते हैं। उदाहरण के लिए व्यवसाय के क्षेत्र में एक ही व्यवसाय में संलग्न होते हुए भी परस्पर भिन्न भिन्न रुचियों और परंपराओं के अनुयायी। इन सबसे एक सर्वाधिक विशिष्ट प्रकार शारीरिक संरचना के आधार पर पुरुष और स्त्री के बीच होनेवाले जुड़ाव और अलगाव का। यदि समूह का अर्थ ऐसे परिवार के रूप में ग्रहण किया जाए जहाँ पर केवल वंशवृद्धि ही एकमात्र प्रयोजन होता हो, तो ऐसे समूह या परिवार पशु-पक्षियों आदि के भी होते हैं, जो कि ऋतु-काल के अनुसार बनते, बिखरते और टूटते भी रहते हैं। जिसे आजकल "live in relationship" कहा जाता है, वह अवश्य ही इसी प्राकृतिक ऋतु-काल पर निर्भर जुड़ाव और अलगाव का सर्वाधिक विकृत रूप हो सकता है क्योंकि इस व्यवस्था में यौन-सुख को तृप्त करने के व्यक्तिगत 'अधिकार' को वंशवृद्धि के प्राकृतिक उत्तरदायित्व से ऊपर रखा जाता है। क्योंकि जैसे ही इसे स्वीकार कर लिया जाता है, संतानोत्पत्ति और संतान के पावन पोषण और उसकी सुरक्षा के अधिकार की उपेक्षा कर दी जाती है। मनुष्यों के किसी भी समाज में इसीलिए विवाह नामक संस्था की आवश्यकता सर्वत्र ही अनुभव की जाती रही है। आज के तथाकथित प्रगतिशील, उन्नत समाज में आधुनिकता के नाम पर इसीलिए विवाह का औचित्य और प्रासंगिकता संदिग्ध हो गए हैं। मानवीय नैतिकता के आधार पर इसलिए भी, विवाह के औचित्य और अपरिहार्यता की आवश्यकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। संसार के विभिन्न स्थानों पर विवाह की आवश्यकता को अनुभव करने के बाद परंपराओं ने इसे भिन्न भिन्न रूपों में अपनाया। और दुर्भाग्यवश भिन्न भिन्न परंपराओं ने इसे भी भिन्न भिन्न आधार पर तय भी किया। विभिन्न परंपराओं में, जिन्हें religion कहा गया इस प्रकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के आधार पर या उसकी अवहेलना करते हुए समाज में शक्तिशाली लोगों के द्वारा तय किए गए नियमों के आधार पर बलपूर्वक उस अपने अपने समाज पर आरोपित कर दिया गया। इस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया कि किस और कैसे किसी जाने-अनजाने षडयंत्र या भूल से, परंपराओं को "धर्म" कहकर वास्तविक "धर्म" क्या है, इस पर किसी ने गंभीरता से खोजबीन नहीं की। 

विवाह के संबंध में एक ऐतिहासिक सच्चाई यह है कि "धर्म" की सनातन परंपरा प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त पर आधारित है, न कि मनुष्य के यौन-सुख की कामना और निर्बाध भोग-लिप्सा को तृप्त करते रहने पर। सभी परंपराओं में इस प्रकार विवाह की व्यवस्था जिस आधार पर स्थापित हुई, उनमें प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त को आधारभूत महत्व दिया गया या फिर भूल से, जानबूझ कर या अन्य किन्हीं कारणों से इस सिद्धान्त की न सिर्फ अवहेलना की गई बल्कि इसके संभावित परिणामों तक पर ध्यान नहीं दिया गया। यह भी महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य है कि इसलिए सनातन (धर्म) में विवाह-विच्छेद या तलाक की वैधानिता या औचित्य का प्रश्न भी पैदा नहीं हुआ। 

क्या आज की सामाजिक व्यवस्था में इन सारे प्रश्नों का कोई समाधान या उत्तर है? 

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