बेटा!
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।४५।।
(गीता अध्याय १)
"बत" - संस्कृत भाषा के व्याकरण के अनुसार अव्यय पद है, जिसके रूप सदा अविकारी रहते हैं।
उपरोक्त श्लोक में "बत" पद का प्रयोग खेद प्रकट करने के अर्थ में किया गया है। यह "बत" पुनः "वत्" पद का समानार्थी है। "वत्" शतृ शानच् प्रत्यय है जिसका प्रयोग "वान्" के अर्थ में किया जाता है। इससे व्युत्पन्न "वत् स" / "वत् स" / "वत्स" पद का प्रयोग संतान या पुत्र के अर्थ में किया जाता है। इससे ही "वात्सल्य" शब्द प्राप्त होता है जो संतान के प्रति स्नेह का द्योतक है।
भाव ही भाषा का जनक और भावना ही भाषा की माता है। और इसलिए तमाम भाषाओं में मूलतः समानता पाई जाती है। भाषा के प्रयोजन के अनुसार यह संस्कृत या प्राकृत हो जाती है और भाव तथा भावना ही भाषा के पिता और माता हैं। इसलिए यह धारणा कि किस भाषा की उत्पत्ति किस दूसरी भाषा से हुई है, मूलतः भ्रामक है। अक्षरसमाम्नाय संस्कृत-व्याकरण का आधार है, और पालि तथा प्राकृत व्याकरण अन्य सभी भाषाओं का।
अभी हम "बत" पद पर विचार करें -
यह संयोगमात्र नहीं है कि अंग्रेजी भाषा के But और What शब्द जो क्रमशः समुच्चयबोधक और सर्वनाम पद हैं इसी "बत" के
अपभ्रंश /सजात / सज्ञात / cognate हैं -
समुच्चयबोधक अर्थात् - conjunction,
सर्वनाम अर्थात् pronoun.
इसी वत् से व्युत्पन्न वत्स का रूपान्तरण हिन्दी में बच्चा
तथा वत्स से व्युत्पन्न "वत्सल" का लैटिन भाषा में -
Bachelor में हुआ।
gradus baccalaurei
(Bachelor degree)
तात्पर्य यह नहीं कि सभी भाषाओं का उद्गम संस्कृत से हुआ और संस्कृत ही सब भाषाओं की जननी है। जिन्हें अधिक जिज्ञासा है वे देवी अथर्वशीर्ष का अध्ययन कर सकते हैं।
चूँकि वेद श्रुतिपरक हैं अर्थात् ध्वनि का तत्व ही उनका मर्म और आधार है इसलिए वेदमंत्र विशिष्ट ध्वनियों के विशिष्ट संयोजन हैं जिनके उच्चारण की शुद्धता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि किसी कंप्यूटर के किसी प्रोग्राम के लिए किसी कंप्यूटर भाषा का कोडिंग और डिकोडिंग होता है। एक भी संकेत / कोड की त्रुटि पूरे प्रोग्राम को नष्ट कर देती है। इसलिए वेदमंत्रों के शुद्ध उच्चारण पर ध्यान देना सर्वाधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है।
परंपरा के अनुसार वेदमंत्रों की शिक्षा आचार्य के द्वारा छात्र को वाणी के माध्यम से दी जाती है जिसे अपनी सुविधा के लिए लिपिबद्ध कर सकता है। इस रीति से लिपि का प्रयोग भाषा को स्मृतिबद्ध करने के लिए किया गया। लिपियों का विकास ब्राह्मी, देवनागरी और द्राविड इन तीन प्रकारों में हुआ । ब्राह्मी जो ब्रह्मा और ब्रह्माणी शारदा / सरस्वती है, श्रीलिपि जो लक्ष्मी है और नागरी या देवनागरी जो नागवदन गणपति है। श्रीलिपि से ही ऋषि भाषा का उद्भव हुआ जिसका अपभ्रंश रूसी की सिरिल / Cyril लिपि में हुआ जिससे पुनः ग्रीक और फिर हिब्रू भाषाएँ क्रमशः अस्तित्व में आईं। अरबी भाषा मूलतः पर्शियन / पहलवी के ही प्रयोग का विस्तार है, जबकि भ्रान्तिवश समझा यह जाता है कि पर्शियन / पहलवी का उद्गम अरबी से हुआ।
जहाँ तक द्राविड भाषा और लिपि का प्रश्न है, उसके भी दो प्रकार हैं जिनमें प्रथम है प्रचलित लोकभाषा के रूप में தமிழ், తెలుగు, ಕನ್ನಡ और മലയാളം - अर्थात् तमिष़, तेलुगू, कन्नड और मलयालम, जो सभी द्राविड ही हैं। इसमें एक विशेष और महत्वपूर्ण बात यह है कि यद्यपि वेदमंत्रों को தமிழ் के अलावा इन सभी भाषाओं की लिपियों में यथासंभव शुद्धतापूर्वक लिखा जा सकता है और इसलिए द्राविड को தமிழ் लिपि में लिखे जाने के लिए ग्रन्थलिपि का अविष्कार ऋषियों ने ही किया। ग्रन्थलिपि में समस्त वेदमंत्रों को वैसा ही पढ़ा जाता है और वैसा ही उच्चारण भी किया जाता है जैसा कि उन्हें लिखा जाता है, जबकि लोकभाषा के रूप में प्रचलित தமிழ் द्राविड लिपि के प्रयोग में यह नहीं किया जा सकता है।
अतः निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि हिन्दी में प्रचलित संतान / पुत्र के अर्थ में प्रयुक्त "बेटा" शब्द का उद्भव और लोकभाषा में प्रचलन इसी "बत" / "वत्" से हुआ।
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