July 11, 2025

THE BETA VERSION

बेटा! 

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्। 

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।४५।।

(गीता अध्याय १)

"बत" - संस्कृत भाषा के व्याकरण के अनुसार अव्यय पद है, जिसके रूप सदा अविकारी रहते हैं। 

उपरोक्त श्लोक में "बत" पद का प्रयोग खेद प्रकट करने के अर्थ में किया गया है। यह "बत" पुनः "वत्" पद का समानार्थी है। "वत्" शतृ शानच् प्रत्यय है जिसका प्रयोग "वान्" के अर्थ में किया जाता है। इससे व्युत्पन्न "वत् स" / "वत् स" / "वत्स" पद का प्रयोग संतान या पुत्र के अर्थ में किया जाता है। इससे ही "वात्सल्य" शब्द प्राप्त होता है जो संतान के प्रति स्नेह का द्योतक है।

भाव ही भाषा का जनक और भावना ही भाषा की माता है। और इसलिए तमाम भाषाओं में मूलतः समानता पाई जाती है। भाषा के प्रयोजन के अनुसार यह संस्कृत या प्राकृत हो जाती है और भाव तथा भावना ही भाषा के पिता और माता हैं। इसलिए यह धारणा कि किस भाषा की उत्पत्ति किस दूसरी भाषा से हुई है, मूलतः भ्रामक है। अक्षरसमाम्नाय संस्कृत-व्याकरण का आधार है, और पालि तथा प्राकृत व्याकरण अन्य सभी भाषाओं का।

अभी हम "बत" पद पर विचार करें -

यह संयोगमात्र नहीं है कि अंग्रेजी भाषा के But और What शब्द जो क्रमशः समुच्चयबोधक और सर्वनाम पद हैं इसी "बत" के

अपभ्रंश /सजात / सज्ञात /  cognate हैं -

समुच्चयबोधक अर्थात् - conjunction,

सर्वनाम अर्थात्  pronoun.

इसी वत् से व्युत्पन्न वत्स का रूपान्तरण हिन्दी में बच्चा 

तथा वत्स से व्युत्पन्न "वत्सल" का लैटिन भाषा में -

Bachelor  में हुआ।

gradus baccalaurei 

(Bachelor degree) 

तात्पर्य यह नहीं कि सभी भाषाओं का उद्गम संस्कृत से हुआ और संस्कृत ही सब भाषाओं की जननी है। जिन्हें अधिक जिज्ञासा है वे देवी अथर्वशीर्ष का अध्ययन कर सकते हैं।

चूँकि वेद श्रुतिपरक हैं अर्थात् ध्वनि का तत्व ही उनका मर्म और आधार है इसलिए वेदमंत्र विशिष्ट ध्वनियों के विशिष्ट संयोजन हैं जिनके उच्चारण की शुद्धता उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी कि किसी कंप्यूटर के किसी प्रोग्राम के लिए किसी कंप्यूटर भाषा का कोडिंग और डिकोडिंग होता है। एक भी संकेत / कोड की त्रुटि पूरे प्रोग्राम को नष्ट कर देती है। इसलिए वेदमंत्रों के शुद्ध उच्चारण पर ध्यान देना सर्वाधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है। 

परंपरा के अनुसार वेदमंत्रों की शिक्षा आचार्य के द्वारा छात्र को वाणी के माध्यम से दी जाती है जिसे अपनी सुविधा के लिए लिपिबद्ध कर सकता है। इस रीति से लिपि का प्रयोग भाषा को स्मृतिबद्ध करने के लिए किया गया। लिपियों का विकास ब्राह्मी, देवनागरी और द्राविड इन तीन प्रकारों में हुआ । ब्राह्मी जो ब्रह्मा और ब्रह्माणी शारदा / सरस्वती है, श्रीलिपि जो लक्ष्मी है और नागरी या देवनागरी जो नागवदन गणपति है। श्रीलिपि से ही ऋषि भाषा का उद्भव हुआ जिसका अपभ्रंश रूसी की सिरिल / Cyril  लिपि में हुआ जिससे पुनः ग्रीक और फिर हिब्रू भाषाएँ क्रमशः अस्तित्व में आईं। अरबी भाषा मूलतः पर्शियन / पहलवी के ही प्रयोग का विस्तार है, जबकि भ्रान्तिवश समझा यह जाता है कि पर्शियन / पहलवी का उद्गम अरबी से हुआ।

जहाँ तक द्राविड भाषा और लिपि का प्रश्न है, उसके भी दो प्रकार हैं जिनमें प्रथम है प्रचलित लोकभाषा के रूप में  தமிழ்,  తెలుగు, ಕನ್ನಡ  और  മലയാളം - अर्थात् तमिष़, तेलुगू, कन्नड और मलयालम, जो सभी द्राविड ही हैं। इसमें एक विशेष और महत्वपूर्ण बात यह है कि यद्यपि वेदमंत्रों को  தமிழ்  के अलावा इन सभी भाषाओं की लिपियों में यथासंभव शुद्धतापूर्वक लिखा जा सकता है और इसलिए द्राविड को  தமிழ்  लिपि में लिखे जाने के लिए ग्रन्थलिपि का अविष्कार ऋषियों ने ही किया। ग्रन्थलिपि में समस्त वेदमंत्रों को वैसा ही पढ़ा जाता है और वैसा ही उच्चारण भी किया जाता है जैसा कि उन्हें लिखा जाता है, जबकि लोकभाषा के रूप में प्रचलित  தமிழ்  द्राविड लिपि के प्रयोग में यह नहीं किया जा सकता है।

अतः निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि हिन्दी में प्रचलित संतान / पुत्र के अर्थ में प्रयुक्त "बेटा" शब्द का उद्भव और लोकभाषा में प्रचलन इसी "बत" / "वत्" से हुआ।

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Widow and Widower

विधवा और विधुर

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कोई उम्मीद बर नहीं आती,

कोई सूरत नजर नहीं आती!

इस शे'र में एक शब्द है "बर", जिसे मराठी में "बरऽ" कहा जाता है और गुजराती में  "સારુ"।  यह "बर" शब्द संस्कृत के "वर" का पर्याय है और  "સારુ"  संस्कृत के "चारु" का। वैसे उर्दू भाषा में, जैसा कि उपरोक्त उद्धृत शे'र में है, यह संस्कृत के "वर", "ज्वर" और "ज्वल" का अपभ्रंश है।

एक मराठी भजन याद आया -

"तो हा विट्ठल बरवा, तो हा माधव बरवा .."

तात्पर्य यह कि वह जो विट्ठल के नाम से प्रसिद्ध है, वही यह माधव के नाम से भी प्रसिद्ध है।

माधव शब्द में दो पद हैं - मा और धव। 

मा का अर्थ है जिसे मापा जा सकता है, अंग्रेजी में कहें तो  measurable. यह कहना अनुचित न होगा कि अनुभव की दृष्टि से, -

measurable  और  miserable पर्याय हैं। जो भी measurable है वह miserable होगा ही, और जो भी  miserable  होगा  उसका कष्ट असीमित तो नहीं होगा, फिर वह कितना भी  miser  या miserly हो! 

दूसरा पद है "धव"। धव का अर्थ है - पति या स्वामी। इसलिए माधव का अर्थ हुआ मायापति। माया अर्थात् ऐश्वर्य / लक्ष्मी, और मायापति का अर्थ हुआ ईश्वर।

विधवा का अर्थ हुआ वह स्त्री जिसके पति की मृत्यु हो चुकी है। स्त्री ही गृह और गृहस्थी की धुरी है। इसलिए जिस पुरुष की स्त्री की मृत्यु हो जाती है, उसे विधुर कहा जाता है।

बहुत संभव है कि अंग्रेजी भाषा के शब्द :

widow और widower

इन्हीं दोनों शब्दों के अपभ्रंश हों!

प्रसंगवश,

हालाँकि मैंने कभी विवाह नहीं किया किन्तु जिन्होंने भी किया और एक सुदीर्घ और सुखद वैवाहिक जीवन जिया और दुर्भाग्यवश जिनके जीवन साथी की मृत्यु हो गई, संतानें अपने अपने परिवार बसाकर उनमें रच बस गईं, ऐसे भी मेरे कुछ मित्र और सगे संबंधी हैं, जिनके बारे में लगता है कि वे एक नया जीवन साथी चुन लें तो उनका जीवन सुचारु और सुव्यवस्थित हो सकता है। उनमें से अधिकतर इतने अधिक निराश और दुःखी हो जाते हैं,  depression में चले जाते हैं, कि इस दिशा में न तो सोच पाते हैं, न पारिवारिक और सामाजिक दबावों में संकोचवश आगे बढ़ पाते हैं। यहाँ तक कि इस बारे में बातचीत तक करने में उन्हें हिचकिचाहट होती है। यह तो समझा जा सकता है कि ऐसे जीवन में अकेलापन और भी अधिक बोझिल हो जाता है और तब वे तथाकथित आध्यात्मिक या धार्मिक संस्थाओं या क्रियाकलापों से जुड़कर अपने अकेलेपन और खालीपन को भरने की असफल प्रयत्न करने लगते हैं जबकि उन्हें आवश्यकता होती है सामाजिक और पारिवारिक सहारे की। वृद्धाश्रम में भी 'समय बिताने का प्रश्न' तो होता ही है। अपना कोई जब तक ऐसा न हो जिससे कि आत्मीयता हो, तब तक मनुष्य का अकेलापन और खालीपन दूर नहीं हो सकता। अपने बारे में कहूँ, तो मुझे बचपन से ही एकाकीपन से अत्यन्त लगाव रहा है। अपना अकेलापन और खालीपन हमेशा ही इतना अद्भुत् लगता रहा है कि किसी से मिलने तक की आवश्यकता अनुभव नहीं होती। यहाँ तक कि लोगों से संवाद संभव न हो पाने पर केवल समय बिताने के लिए किसी बातचीत करना भी असुविधाजनक और व्यर्थ का एक अनावश्यक उपद्रव ही लगता है। मनोरंजन के किसी भी साधन और सामग्री को मैं अपनी निजता और एकाकीपन में बाधा ही अनुभव करता हूँ। मैं मानता हूँ कि और लोगों से कुछ भिन्न, कुछ विचित्र, असामान्य भी हूँ मैं, किन्तु किसी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता, और न किसी से यह अपेक्षा करता हूँ कि वह मेरे जीवन में हस्तक्षेप करे। जिन किन्हीं भी जड चेतन प्राणियों से मेरा संपर्क होता है उनसे मुझे आत्मीयता तो अनुभव होती है, परिचय और परिचय की स्मृति भी बनती और मिटती रहती है, किन्तु संबंध किसी से हो, यह मेरे लिए  संभव ही नहीं है। मेरी दृष्टि में, समस्त संबंध ही स्मृतिगत संबंध धारणाएँ मात्र होती हैं जिनका व्यावहारिक उपयोग अवश्य हो सकता है किन्तु उन्हें कभी भी छोड़ दिया जा सकता है और हर कोई ही परिस्थितियों के अनुसार या स्वेच्छा से भी ऐसा करता भी है। यह सब स्वाभाविक है। किसी किसी के लिए जीवन साथी से संबंध / आत्मीयता भी ऐसी ही एक तत्कालिक व्यावहारिक आवश्यकता है सकती है।

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