कौन है आपका ईश्वर?
ऋषि शौनक ने अपने लिए यह उपनाम शायद इसलिए चुना क्योंकि इसकी प्रेरणा उन्हें अपने पारमार्थिक सत्य की खोज में संलग्न रहते हुए जिस श्लोक से प्राप्त हुई, वह एक नीतिवाक्य :
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे हस्तिनि गवि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।
इस प्रकार से था। शायद इस वाक्य का उल्लेख बाद में श्रीमद्भगवद्गीता में महर्षि वेदव्यास ने किया होगा। चूँकि वैदिक ज्ञान सनातन शाश्वत् और नित्य है इसलिए ऋषि किसी वैदिक वचन या उक्ति के अपने द्वारा रचित किए जाने के भ्रम से ग्रस्त नहीं होते।
मुण्डकोपनिषद् के प्रारंभिक छः सात मंत्रों में उल्लेख है कि वही ऋषि शौनक महाशाल, जो किसी विश्वविख्यात विश्वविद्यालय का संचालन करते थे, अपने विश्वविद्यालय में समस्त लौकिक और भौतिक ज्ञान अपने शिष्यों को दिया करते थे। विधिवत् ऋषि अङ्गिरा / अङ्गिरस् के पास समिधा हाथों में लिए दीक्षा प्राप्त करने की कामना और अभिलाषा से पहुँचे और उनसे प्रश्न किया :
भगवन् वह (विद्या) क्या है जिसकी शिक्षा प्राप्त करने से, जिसे जान लेने से समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है?
तब महर्षि अङ्गिरा ने उनसे कहा :
समस्त विद्याएँ दो ही प्रकार की होती हैं अपरा और परा। अपरा विद्या वह है जिसे सीख लेने पर समस्त लौकिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है जैसे वेद, पुराण, ज्योतिष, व्याकरण, इतिहास आदि। दूसरी ओर, परा विद्या वह है जिसे ब्रह्मविद्या कहते हैं। 'परा' शब्द का अर्थ बौद्धिक या जिसे स्मृति में संचित किया जा सकता है वह जानकारी नहीं, बल्कि वह उपाय है जिसके माध्यम से पारमार्थिक सत्य का बोध प्राप्त किया जा सकता है।
जब ऋषि शौनक महाशाल पश्चिम से पूर्व की दिशा में लौटे और इस प्रकार ऋषि अङ्गिरा से उन्होंने विधिवत् उनसे दीक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की तब ऋषि अङ्गिरा ने उनसे प्रश्न किया :
"वत्स! तुम्हारा गोत्र क्या है?"
तब ऋषि शौनक ने कहा :
"भगवन् मेरा प्रचलित लौकिक नाम महाशाल है, क्योंकि यह मेरी कुल परंपरा से मुझे प्राप्त हुआ है। और मेरे कुल की परंपरा में ऋषि श्वान प्रथम थे, जिन्हें उनका यह नाम वात्सल्य और प्रेम से उनके द्वारा पाले गए श्वान के एक शावक के उनके साथ रहने से मिला था, और इसलिए मुझे भी पर्याय से यह नाम प्राप्त हो गया।
यही मेरा गोत्र है।"
तब ऋषि अङ्गिरा ने उन्हें कहा :
"वत्स! मनुष्य लोक में जन्म लेनेवाले समस्त मनुष्यों के दो ही गोत्र होते हैं - वे हैं ब्रह्मा की चार मानसिक संतानों और सात ऋषियों की संतानों से होनेवाले समस्त वैदिक गोत्र, तथा इनसे भिन्न क्षत्रिय कुल-विशेष में उत्पन्न अन्य सभी। इन्हें ही द्विज कहा जाता है।
क्षत्रिय कुल विशेष में उत्पन्न वाजश्रवा, उशनस् आदि ऋषि, भृगु की परंपरा में होने से भार्गव कहे जाते हैं और ये काठकीय परम्परा अर्थात् कठोपनिषद् की शिक्षाओं का अनुशीलन करते हैं। और शौनक भी इसी परम्परा में हैं। इनसे भिन्न दूसरे अर्थात् वैदिक परम्परा के छान्दोग्य उपनिषद् की परम्परा के हैं इसलिए यजुर्वेद के अनुसार यजन करनेवाले।
अंग्रेजी शब्द "God", तथा ग्रीक और जर्मन भाषाओं में प्रयुक्त "Gott" का उद्भव भी मूलतः संस्कृत "गोत्र" से ही हुआ है। कालान्तर में इसे "ईश्वर" की तरह और उस अर्थ में भी ग्रहण किया जाने लगा।
इससे बहुत बाद में यह प्रश्न उत्पन्न हुआ -
ईश्वर है या नहीं?, या
ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं?
और इस प्रकार 'ईश्वर' के अस्तित्व को माननेवाले और न माननेवाले, इस प्रकार के दो मत बाद प्रचलित हो गए। इन दोनों मतों के माननेवालों को क्रमशः आस्तिक और नास्तिक कहा जाने लगा।
आस्तिक अर्थात् ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करनेवालों में पुनः यह प्रश्न पूछा गया :
'ईश्वर' एक है या अनेक?
इस प्रश्न के उत्तर में आस्तिकों में पुनः दो प्रकार के मत, और उनके मतावलम्बी दो वर्गों में बँट गए।
इस प्रकार आस्तिक एकेश्वरवाद और वैदिक एकेश्वरवाद को भ्रमवश भिन्न भिन्न मान लिया गया, जबकि वस्तुतः वे दोनों एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं।
वैदिक एकेश्वरवाद में उसी एवमेव अद्वितीय पारमार्थिक सत्ता को आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक इन तीन रूपों में ग्रहण किया जाने पर वैदिक देवताओं के अस्तित्व की मान्यता स्थापित हुई, जिसका प्रयोजन और अर्थ है उस एकमेव अद्वितीय परमेश्वर की उपासना इन तीनों ही स्तरों पर की जा सकना।
चूँकि यज्ञ के माध्यम से ही उन देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है जिससे संतुष्ट होने पर वे मनुष्यों को उनके इष्टभोगों की प्राप्ति करने में सहायक होते हैं और जो भी उन्हें, उन देवताओं को प्रसन्न किए बिना उनकी सहायता से प्राप्त हुए उन इष्टभोगों का अनधिकृत रूप से उपभोग करता है, वह ईश्वरीय विधान का उल्लंघन करता है, पाप का भागी होता है और नियत समय तक नरक में रहने के लिए बाध्य होता है। वेदसम्मत ईश्वरीय विधान का पालन करना सभी का स्वाभाविक परम आवश्यक कर्तव्य है।
इस प्रकार :
ईश्वर क्या है?
इस मौलिक प्रश्न की उपेक्षा कर
ईश्वर है या नहीं?
ईश्वर एक है अनेक?
जैसे कृत्रिम प्रश्नों को अधिक और अनावश्यक महत्व दिया गया जिससे मनुष्यमात्र का न केवल बहुत अहित ही हुआ बल्कि मनुष्यों के बीच परस्पर मतभेद, ईर्ष्या द्वेष और वैमनस्य भी पैदा हुआ। मताग्रह विशेष के प्रति कट्टरता और दूसरे मतावलम्बियों के प्रति असहिष्णुता का ही परिणाम है आज के संसार की अराजकता और अशान्ति, हिंसात्मक उपद्रव और बढ़ता असन्तोष।
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