April 19, 2025

Urge or Grace?

What Precedes What?

कृपा या भक्ति?

अध्यात्म के जिज्ञासुओं के लिए यह जानना आवश्यक है कि जब तक संसार अनित्य, अशाश्वत, और अस्थिर है, इसलिए वस्तुतः केवल दुःखरूप ही है ऐसा प्रतीत नहीं होता, तब तक इससे छूटने / मुक्त होने की कामना अर्थात् मुमुक्षा या मोक्ष होने की कल्पना भी मन में कैसे आ सकती है!

क्योंकि तब तक शरीर और शरीर के माध्यम से प्राप्त हो सकनेवाले विविध सुखद और दुःखद दोनों ही प्रकार के भोगों को प्राप्त करने की आशा एवं आशंका भी मन में सतत पैदा होते रहेंगे। यद्यपि किसी न किसी समय शरीर के नष्ट हो जाने पर अपनी मृत्यु हो जाने की संभावना से  भी सभी पूरी तरह से अवगत होते हैं फिर भी शायद ही कोई इस पर गंभीरता से ध्यान दे सकता है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि मृत्यु आने के समय और उस घटना पर किसी का नियंत्रण भी नहीं होता। अनुमान भी हो, तो भी निश्चय नहीं होता। डॉक्टर भी केवल अनुमान ही लगाते हैं और कभी कभी वह अनुमान सत्य भी सिद्ध हो जाते हैं। इसका यह मतलब यह कि यद्यपि मृत्यु कब आएगी हम इसका आकलन तो नहीं कर सकते किन्तु इस बारे में कोई संभावित पूर्वानुमान शायद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए वृद्धावस्था आने या किसी असाध्य रोग से ग्रस्त हो जाने जैसी परिस्थितियाँ आने पर। या, किसी आकस्मिक दुर्घटना में ऐसा हो जाने पर। यद्यपि यह भी देखा जाता है कि जितनी अधिक सुरक्षा की जरूरत प्रायः किसी को अनुभव होती है, वह उतना ही अधिक असुरक्षित भी होता है!

अधिकांश लोग मृत्यु की इस अनिश्चितता के ही कारण किसी न किसी देवता, ईश्वर (जिसे वे अपनी आस्था के अनुसार कोई नाम भी दे दिया करते हैं) आध्यात्मिक या धार्मिक "शक्ति" पर विश्वास भी करने लगते हैं। कभी तो उनका यह विश्वास बहुत दृढ, और कभी कभी डगमगाने भी लगता है। ऐसी स्थिति में तो वे शायद इतने परिपक्व तक नहीं होते हैं कि संसार और उसकी वस्तुओं, शरीर, अनुभवों और संबंधों की क्षणभंगुरता के बारे में सोच भी सकें। मृत्यु के बाद 'अपने' बारे में उनका विश्वास उनकी आस्था के ही अनुरूप होता है और वे इसके लिए उसी आस्था के अनुरूप उनके धार्मिक और पारंपरिक कार्यों का अनुष्ठान करते हैं। प्रायः तो इस प्रश्न से हर किसी की ही बुद्धि इतनी स्तब्ध और कुंठित हो जाती है कि वह इस बारे में कुछ सोच तक नहीं पाता।  दूसरी ओर, कुछ लोग जो 'नित्य-अनित्य' पर ध्यान देकर सावधानी से इस पर सोच विचार कर सकते हैं उन्हें शीघ्र ही संसार और उसकी समस्त ही वस्तुओं, भोगों, इन्द्रियो, इन्द्रियानुभवों, संबंधों और धन संपत्ति आदि यहाँ तक कि मान्यताओं  आस्थाओं, विश्वासों, 'स्मृति' और स्मृति पर आधारित  सभी संबंधों की अनित्यता का आभास होने लगता है।यह बोध स्पष्ट हो जाता है। तब संभवतः उनमें

"यह सब (संसार) क्या है? इस सबसे अंततः ऐसा क्या पाया जा सकता है जिससे कि मृत्यु का सदा के लिए समाप्त हो जाए,"

इस प्रकार की एक गहरी जिज्ञासा पैदा हो सकती है। मृत्यु का भय समाप्त होना एक बात है और मृत्यु के बाद क्या शेष रह जाता होगा, इसे जान या समझ पाना इससे बिलकुल ही भिन्न दूसरी बात। मृत्यु के भय के कारण किसी ईश्वर को बाध्यतावश स्वीकार कर लेना और ऐसी किसी एक दिव्य सत्ता के अस्तित्व पर दृढ और अविचल आस्था होना बिलकुल भिन्न दूसरी बात है। यह भी स्पष्ट ही है कि ऐसी कोई भी आस्था भी अन्ततः 'स्मृति' पर ही आश्रित होती है और अकाट्य सत्य की तरह, यह कभी भी नहीं जाना जा सकता है कि मृत्यु होने पर 'स्मृति' का क्या होता है!

किन्तु उस दिव्य सत्ता के अस्तित्व पर दृढ और अविचल विश्वास होने पर  और क्या उसकी 'कृपा' होने पर उसके प्रति 'भक्ति' पैदा हो सकती है या उसकी 'भक्ति' करने से उसकी कृपा होती है?,

यह प्रश्न तो उठेगा ही।

ऐसी 'भक्ति' के बारे में शास्त्र कहते हैं कि उसकी 'कृपा' के बिना उसकी 'भक्ति' हो पाना भी संभव नहीं है! और 'भक्ति' के अभाव में उसकी 'कृपा' कैसे होगी, यह भी वही जाने!

तो यह एक विचित्र स्थिति है।

क्या इसका कोई सुनिश्चित उत्तर है?

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