April 17, 2025

The Conjugal Love.

In The SanAtana-Dharma Perspective.

सनातन-धर्म के परिप्रेक्ष्य में दाम्पत्य-प्रेम

सनातन वैदिक धर्म की परम्परा में विवाह का उद्देश्य है वंश और वर्ण परम्परा की शुद्धता बनाए रखना। तात्पर्य है कि सुयोग्य संतान की प्राप्ति के द्वारा कुल का संवर्धन करना तो इसका प्रमुख उद्देश्य है जबकि वैवाहिक-सुख का महत्व गौण है।

वैवाहिक जीवन का प्रारंभ ब्रह्मचर्य आश्रम में 25 वर्षों तक विद्याध्ययन करते हुए बल, बुद्धि तथा आजीविका के लिए उचित व्यावसायिक दक्षता प्राप्त करने के बाद ही होना चाहिए। यह 25 वर्षों का समय केवल ब्राह्मण वर्ण के लिए निर्धारित किया गया है और अन्य वर्णों के लिए स्वैच्छिक होता है। यदि अन्य वर्ण का कोई व्यक्ति  इसके पूर्व ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहे तो यह उसकी स्वतंत्रता है। वैसे यह नियम कठोर नहीं है फिर भी एक सामान्य निर्देश के रूप में अलग अलग व्यक्तियों पर उनकी रुचि, परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार इसे स्वीकार किया जा सकता है। 

जैसा पहले कहा जा चुका है, गृहस्थ आश्रम का प्रमुख उद्देश्य तो अच्छी और सुयोग्य संतति की उत्पत्ति करने के माध्यम से कुल, वंश और समुदाय का संवर्धन करना ही है और गौण उद्देश्य यह भी है कि एक सुखी वैवाहिक जीवन का उपभोग भी संभव हो। और समाजिक जीवन में भी यह महत्वपूर्ण तो है ही क्योंकि गृहस्थ आश्रम और सामाजिक जीवन की परस्पर निर्भरता है।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न वैवाहिक जीवन में काम-भावना के साथ साथ प्रेम के स्थान और व्यवहार का भी है ही। वह' मर्यादा क्या और कितनी है जिससे कि काम-संबंध और व्यवहार तथा प्रेम के बीच स्वस्थ संतुलन संभव हो। वैसे तो आदर्श सनातन धर्म की परम्परा में सामान्य मनुष्य के लिए एकनिष्ठता पर बल दिया जाता है जिसका अर्थ है कि किसी भी पुरुष के साथ एक ही स्त्री का विवाह हो। यही नियम स्त्री के लिए भी है कि स्त्री का एक ही पति हो। चूँकि विवाह की व्यवस्था प्रमुख रूप से अपने कुल, वंश और समाज के संवर्धन के उद्देश्य से स्थापित की गई है और यौन-सुख उससे जुड़ा हुआ गौण महत्व का तत्व है इसलिए विवाहेतर यौन-संबंध निन्दित और निषिद्ध भी है। इसी प्रकार वैवाहिक और विवाहेतर प्रेम के संबंध में भी मर्यादा सुनिश्चित की जाती है। वैवाहिक प्रेम में यौन-सुख -विचार के रूप में मानसिक चिन्तन का विषय नहीं होना चाहिए, जबकि विवाहेतर पारस्परिक संबंधों में तो  यौन-सुख पूर्णतः निषिद्ध और अकल्पनीय समझा जाना चाहिए। वस्तुतः यौन क्रियाकलाप का विषय न तो हँसी मजाक, और न निन्दा भय या घृणा के साथ देखा जाना चाहिए। हमारे समय की सबसे बड़ी विडम्बना यही तो है! बलात्कार के समाचारों पर जितना ही अधिक ध्यान दिया जाता है उतना ही परस्पर वाद-विवाद बढ़ने लगता है। किशोर आयु वर्ग के बालक बालिकाओं के मन में यौन व्यवहार के बारे में उत्सुकता होना स्वाभाविक ही है और यदि उन्हें धीरे धीरे इस प्राकृतिक प्रवृत्ति के महत्व और इससे सामञ्जस्य कैसे करें, इस संबंध में कल्पना और स्मृति के माध्यम से काम-भावना को अवांछित रीति से उद्दीप्त करने के खतरों से कैसे बचें, समय रहते इस बारे में उन्हें सतर्क और सावधान रहने के महत्व को स्पष्ट किया जाए, तो इस बारे में स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित हो सकता है। यह जानना जरूरी है कि काम-व्यवहार और परस्पर प्रेम दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न दो प्रकार की क्रमशः शारीरिक और मानसिक गतिविधियाँ हैं और उन्हें भूल से भी एक दूसरे से मिला दिया जाना अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण और अनिष्टप्रद है। 

याद आता है श्री जे कृष्णमूर्ति के  Second Penguin Krishnamurti Reader  के आखिरी दो पृष्ठ, जहाँ उन्होंने  engender  शब्द का प्रयोग किया है।मानसिक काम-चिन्तन किसी भी रूप में क्यों न हो, ऐसा दुष्चक्र बन जाता है जिससे निकलना असंभव ही होता है। 

गीता में इसे "मिथ्याचारः स उच्यते" के माध्यम से कहा गया है। समय रहते ही इस दुविधा से मुक्ति हो जाए तो ही अच्छा है। प्रायः तो होता यही है कि मनुष्य निरन्तर कल्पनाओं में तो काम-चिन्तन करता रहता है, अपराध-बोध से ग्रस्त रहने लगता है, दुराचार या अप्राकृतिक यौन संबंध में संलग्न होने लगता है और कभी कभी तो अबोध बच्चों के माध्यम से भी paedeofile बनकर भी अपनी उत्तेजनाओं को शान्त करने की चेष्टा करने लगता है। स्वयं तो विक्षिप्त, मूढ और अपराध की प्रवृत्ति का गुलाम हो जाता है, और समाज में दूसरों को भी इस जाल में फँसाने लगता है। समाज के लिए तो यह अत्यन्त ही चिन्ताजनक है। तमाम सूचना-साधन-तंत्र प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हर किशोर, अवयस्क और वयस्कों के मन में भी यह विष फैला रहे हैं। मनोरंजन के बहाने कुत्सित और वीभत्स जानकारियाँ हर किसी के ही लिए आसानी से उपलब्ध हैं। यहाँ तक कि वयोवृद्ध भी इस सबमें रस लेते रहते हैं। पढ़े लिखे, अनपढ़, सुशिक्षित और प्रसिद्धि के किसी भी क्षेत्र में बहुत ऊँचाई पर पहुँचे हुए लोग, टी वी और फिल्मों से जुड़े, आसानी से बहुत पैसा कमाने की लालसा से व्याकुल लोग, प्रसिद्धि पाने के लिए कुछ भी करने और किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार लोग। समाज इतना सड़ चुका है और पाखंड इतना स्वाभाविक हो चुका है जैसे हमारे शरीर में बहता हुआ खून। और, तथाकथित धर्मगुरु भी इसका अपवाद नहीं हैं। जो इने-गिने इस पूरे दुष्चक्र को समझ पाते हैं वे समय रहते ही इस पूरे प्रचार तंत्र से दूर हो जाते हैं।

बिरला ही कोई इससे बाहर निकल पाता है।

और चूँकि मैं भी भुक्तभोगी हूँ, तो स्वयं के दूध का धुला होने का दावा कैसे कर सकता हूँ!

और फिर दाग लगने से कोई बच भी कैसे सकता है!

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