बाल समय रवि भक्ष लियो तब,
तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।
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ॐ हं हनुमते नमः
वैसे तो यू-ट्यूब पर ज्योतिष से संबंधित विडिओ कम ही देखता हूँ, लेकिन संयोगवश एक ऐसा
वीडिओ देखने को मिला जो अवश्य ही प्रेक्षणीय लगा।
विशेष यह कि प्रस्तुतकर्ता ने जिस प्रकार भारत के सन्दर्भ में ग्रहों की गति के अनुसार भारत पर उसके प्रभाव की विवेचना की है, वह प्रशंसनीय है।
ग्रह-नक्षत्रों की प्रवृत्ति उनके आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सन्दर्भों के अनुसार स्थूल, सूक्ष्म और कारण स्तरों पर समझी और विवेचित की जा सकती है।
हनु का अर्थ इसमें बिजित दो वर्णाक्षरों 'ह' तथा 'न' के आधार पर देखा जा सकता है।
संस्कृत व्याकरण में ये दोनों प्रत्यय की तरह अनेक अर्थों में परस्पर स्वतंत्र दो शब्दों की तरह प्रयुक्त किए जाते हैं। कारण-स्तर पर 'हनु' इस प्रकार मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासा का नाम है।
सूक्ष्म स्तर पर यह उस देवता का नाम है जो मुख्यतः प्राण-तत्व है और इसलिए :
सूक्ष्म-रूप धरि सियहिं दिखावा,
विकट रूप धरि लंक जरावा,
भीम रूप धरि असुर संहारे,
तथा
ज्यों ज्यों सुरसा बदन बढ़ावा,
तासु दून कपि रूप दिखावा,
में श्री हनुमान जी के इसी लक्षणों का दर्शन होता है।
स्थूल आधिभौतिक स्तर से देखें तो वे राहु और शनि जैसे ग्रहों को भी पछाड़ देते हैं।
शनि सूर्य-पुत्र हैं, राहु सिंहिकागर्भसम्भूत हैं।
शनि छाया के पुत्र हैं, यम संज्ञा के पुत्र हैं।
इस प्रकार आध्यात्मिक अर्थ में दोनों क्रमशः कृत्रिम ज्ञान तथा चेतना-रूपी जीव के स्व-संवेदन रूपी ज्ञान के निदर्शक हैं। वहीँ राहु राक्षसरूपी तमोगुण का लक्षण है।
भारत के सन्दर्भ में यदि निकट अतीत, वर्त्तमान और निकट भविष्य में ग्रह-गति का अवलोकन करें तो बृहस्पति / गुरु अस्त है। बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं, जबकि गुरु ग्रह पृथ्वी की भाँति वह स्थूल पिंड है जो पृथ्वी की तरह सूर्य की परिक्रमा करता है।
पृथ्वी स्वयं भी अपने अक्ष पर सूर्य के प्रति सिर झुकाकर प्रदक्षिणा करती है।
पृथ्वी को अपने अक्ष पर प्रदक्षिणा / परिक्रमा करने में जहाँ पूरे चौबीस घंटे का समय लगता है, वहीँ गुरु को लगभग केवल दस घंटे का समय लगता है।
किन्तु दोनों ही सूर्य की प्रदक्षिणा / परिक्रमा भी करते हैं।
किसी देवता की परिक्रमा / प्रदक्षिणा करने का तांत्रिक अर्थ है उसे अपने दाहिनी ओर रखते हुए उसके चारों ओर चलना। दूसरी ओर प्रदक्षिणा का एक तरीका और भी है, और जो प्रायः इसके बाद किया जाता है, - वह है अपने स्थान पर खड़े होकर स्वयं के ही चारों और परिभ्रमण करना। यह भी दो प्रकार से किया जा सकता है। किन्तु मुख्यतः इसे भी इस प्रकार किया जाता है कि शरीर के दाहिने हिस्से को केंद्र में रखा जाए और बाँए को परिधि पर। इसमें भी सूक्ष्म-कारण यही है कि मनुष्य का भौतिक (शारीरिक) हृदय यद्यपि शरीर के बाँए हिस्से में होता है, उसका आध्यात्मिक हृदय शरीर के दाहिने हिस्से में। तात्पर्य यह कि जीवात्मा का स्थान यद्यपि शरीर के भौतिक (शारीरिक) हृदय में है, किन्तु परमात्मा का स्थान उसके आध्यात्मिक हृदय में होता है।
गीता में इस बारे में अध्याय 18 में कहा गया है:
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानां यन्त्रारूढानि मायया।।61
इस प्रकार प्राणी या तो माया के द्वारा परिभ्रामित हुआ संसार के चक्र में घूमता रहता है या अपनी ही आत्मा के चतुर्दिक घूमकर ईश्वर की प्रदक्षिणा कर सकता है।
श्री रमण महर्षि विशेष रूप से उपरोक्त सिद्धांत का वर्णन करते हैं की किस प्रकार ईश्वर को अपने ही भीतर पाया जा सकता है, और उसका संकेत करते हुए स्थूल भौतिक और आधिदैविक तथा आध्यात्मिक हृदय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं।
पुनः हनुमान जी के सन्दर्भ में :
"बाल-समय रवि भक्ष लियो" का दर्शन इस अर्थ में भी किया जा सकता है कि मन, जो कि 'मैं' का ही समानार्थी और समलक्षण है, हनुमान (देवता-तत्व) है जो क्रमशः जागृत स्वप्न तथा सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं / लोकों से गुजरता रहता है। वही मन जब अपने ही प्रकाशक (सूर्य) को ग्रस लेता है तो उसके तीनों लोकों में अन्धकार व्याप्त हो जाता है। इसी प्रकार स्थूल स्तर पर भी, जब राहु सूर्य को ग्रास लेता है तो जगत / संसार अंधकारमय हो जाता है।
चूँकि 26 दिसंबर 2019 को होनेवाले सूर्यग्रहण में बृहस्पति भारत में अस्त प्रतीत होंगे इसलिए यह ग्रहण भारत के लिए तथा विश्व में भी जहाँ जहाँ देखा जा सकेगा, वहाँ वहाँ अनिष्टप्रद होगा।
भारत में चल रहा दौर इसी का द्योतक है और आशा की जा सकती है कि बृहस्पति के उदय के बाद वर्तमान उपद्रव, अशांति, हिंसा आदि का यह दौर समाप्त हो जाएगा।
चूँकि बृहस्पति के साथ सूर्य और शनि पर भी राहु की दृष्टि है, इसलिए यह दौर राजनीतिक घटनाक्रम की दृष्टि से भी उथल-पुथल पैदा करेगा।
इस दृष्टि से यह संयोग अवश्य ही रोचक और बहुआयामी अनेक संकेत देता है।
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