सातत्य और सत्य
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संसार का सातत्य, स्मृति से परे होता कहाँ,
कल्पना से परे क्या, होती है स्मृति की सत्यता?
चेतना में ही विषय-विषयी, दो भासमान हो रहे,
चेतना में ही है परस्पर है, दोनों की अखण्डता ।
चेतना वैसे सदा तो, निर्विषयी निर्विषय तथा,
विषय-विषयी के द्वन्द्व में, प्रतीत होती है व्यथा ।
विषय-विषयी से रहित, जब स्वयं को है जानती,
स्वयं को जब नहीं, किसी पहचान से पहचानती,
प्रकृति भी विषय-विषयी-क्रीड़ा का आभास है,
नित सनातन प्रेम पुरुष-प्रकृति का उल्लास है ।
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कविता, चेतना, पुरुष, प्रकृति,
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संसार का सातत्य, स्मृति से परे होता कहाँ,
कल्पना से परे क्या, होती है स्मृति की सत्यता?
चेतना में ही विषय-विषयी, दो भासमान हो रहे,
चेतना में ही है परस्पर है, दोनों की अखण्डता ।
चेतना वैसे सदा तो, निर्विषयी निर्विषय तथा,
विषय-विषयी के द्वन्द्व में, प्रतीत होती है व्यथा ।
विषय-विषयी से रहित, जब स्वयं को है जानती,
स्वयं को जब नहीं, किसी पहचान से पहचानती,
प्रकृति भी विषय-विषयी-क्रीड़ा का आभास है,
नित सनातन प्रेम पुरुष-प्रकृति का उल्लास है ।
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कविता, चेतना, पुरुष, प्रकृति,
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