क्या मुसलमान मोदी पर यक़ीन करते हैं ?
क्या मुसलमानों को डरा रहे हैं ओवैसी ?
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सवाल यह नहीं है, कि मुसलमानों को मोदी पर यक़ीन है या नहीं,
सवाल यह है कि जब तक क़ुरान और इस्लाम में,
इस्लाम को न माननेवालों के लिए और उनसे संबंधित :
जिहाद, जज़िया, काफ़िर, दार-उल-हर्ब, धिम्मी,
जैसे घृणासूचक, अपमानजनक और निन्दात्मक शब्द मौजूद हैं,
तब तक सिर्फ़ हिन्दू ही नहीं, दूसरे सभी ग़ैर-मुस्लिम भी,
-मुसलमानों और इस्लाम की नीयत और इरादों पर कैसे यक़ीन कर सकते हैं ?
यही है शक की बुनियाद। इसलिए यह शक बेवजह तो नहीं है, और ज़्यादा अच्छा तो यही होगा कि इस्लाम और मुसलमान यह मौक़ा ही न आने दें कि उन्हें कोई आरोपों / शक के कटघरे में खड़ा भी कर सके ।
लेकिन सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में आज यह सवाल उठने लगा है ।
जब तक आतंकवाद की बुनियाद क्या है यह तय नहीं किया जाता, आतंकवाद का संबंध किसी धर्म-विशेष से है या नहीं, यह भी तय नहीं हो सकता । इसलिए आतंकवाद का सामना भी तब तक असरदार तरीके से नहीं किया जा सकता । यही बुनियादी सवाल मुसलमानों (की नीयत और इरादों) पर सच्चा या झूठा शक पैदा होने की सबसे बड़ी वज़ह है, जिसे दूर किए जाने की जवाबदारी और ज़्यादा ज़रूरत भी सिर्फ़ इस्लाम की, और सिर्फ़ मुसलमानों की ही है । यह भी हो सकता है कि यह शक पूरी तरह बिलकुल ग़ैर-वाज़िब और बेबुनियाद हो, लेकिन इसे मिटाए जाने पर ही यह मुद्दा हमेशा के लिए हल हो सकता है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक यह मुद्दा उछाला जाता रहेगा। कुछ देर के लिए अगर यह भी मान लिया जाए कि किसी दिन पूरी दुनिया इस्लाम के परचम तले आ जाएगी, -तो भी, क्या गारंटी है कि इसके बाद इस्लाम की अलग अलग व्याख्या करने वालों के बीच के आपसी सभी मतभेद और संघर्ष समाप्त हो जाएँगे ? क्या आज भी इस्लाम की अलग-अलग व्याख्याओं के बीच टकराहट नहीं है?
इसलिए यह सिर्फ इस्लाम के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के हित में ज़रूरी है कि इस शक को सही तरीके से मिटाया जाए। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक दूसरों के न चाहते हुए भी कुछ न कुछ लोग आतंकवाद को इस्लाम से जोड़कर देखते रहेंगे। और न चाहते हुए भी इसका हर्ज़ाना सभी को भुगतना पडेगा।
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पहले बहुत बार सोचा कि इस पोस्ट को प्रकाशित न करूँ, फिर लगा कि ऐसा करना डर की वजह से अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने जैसा और दूसरों से उनका 'जानने का' हक़ छीनने जैसा भी होगा, इसलिए अब अंततः प्रस्तुत है।
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क्या मुसलमानों को डरा रहे हैं ओवैसी ?
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सवाल यह नहीं है, कि मुसलमानों को मोदी पर यक़ीन है या नहीं,
सवाल यह है कि जब तक क़ुरान और इस्लाम में,
इस्लाम को न माननेवालों के लिए और उनसे संबंधित :
जिहाद, जज़िया, काफ़िर, दार-उल-हर्ब, धिम्मी,
जैसे घृणासूचक, अपमानजनक और निन्दात्मक शब्द मौजूद हैं,
तब तक सिर्फ़ हिन्दू ही नहीं, दूसरे सभी ग़ैर-मुस्लिम भी,
-मुसलमानों और इस्लाम की नीयत और इरादों पर कैसे यक़ीन कर सकते हैं ?
यही है शक की बुनियाद। इसलिए यह शक बेवजह तो नहीं है, और ज़्यादा अच्छा तो यही होगा कि इस्लाम और मुसलमान यह मौक़ा ही न आने दें कि उन्हें कोई आरोपों / शक के कटघरे में खड़ा भी कर सके ।
लेकिन सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में आज यह सवाल उठने लगा है ।
जब तक आतंकवाद की बुनियाद क्या है यह तय नहीं किया जाता, आतंकवाद का संबंध किसी धर्म-विशेष से है या नहीं, यह भी तय नहीं हो सकता । इसलिए आतंकवाद का सामना भी तब तक असरदार तरीके से नहीं किया जा सकता । यही बुनियादी सवाल मुसलमानों (की नीयत और इरादों) पर सच्चा या झूठा शक पैदा होने की सबसे बड़ी वज़ह है, जिसे दूर किए जाने की जवाबदारी और ज़्यादा ज़रूरत भी सिर्फ़ इस्लाम की, और सिर्फ़ मुसलमानों की ही है । यह भी हो सकता है कि यह शक पूरी तरह बिलकुल ग़ैर-वाज़िब और बेबुनियाद हो, लेकिन इसे मिटाए जाने पर ही यह मुद्दा हमेशा के लिए हल हो सकता है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक यह मुद्दा उछाला जाता रहेगा। कुछ देर के लिए अगर यह भी मान लिया जाए कि किसी दिन पूरी दुनिया इस्लाम के परचम तले आ जाएगी, -तो भी, क्या गारंटी है कि इसके बाद इस्लाम की अलग अलग व्याख्या करने वालों के बीच के आपसी सभी मतभेद और संघर्ष समाप्त हो जाएँगे ? क्या आज भी इस्लाम की अलग-अलग व्याख्याओं के बीच टकराहट नहीं है?
इसलिए यह सिर्फ इस्लाम के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के हित में ज़रूरी है कि इस शक को सही तरीके से मिटाया जाए। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक दूसरों के न चाहते हुए भी कुछ न कुछ लोग आतंकवाद को इस्लाम से जोड़कर देखते रहेंगे। और न चाहते हुए भी इसका हर्ज़ाना सभी को भुगतना पडेगा।
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पहले बहुत बार सोचा कि इस पोस्ट को प्रकाशित न करूँ, फिर लगा कि ऐसा करना डर की वजह से अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने जैसा और दूसरों से उनका 'जानने का' हक़ छीनने जैसा भी होगा, इसलिए अब अंततः प्रस्तुत है।
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