संगठित धर्म
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वैसे तो प्रचलित अर्थ में जिसे हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में 'धर्म' कहा जाता, माना तथा समझा जाता है, उस 'Religion' की वास्तव में 'सनातन-धर्म' से कोई तुलना ही नहीं की जा सकती, क्योंकि 'सनातन धर्म' किसी परंपरा, मान्यता या विश्वास का नाम नहीं है।
फिर भी अनेक कारणों से हम उस अर्थ को ढो रहे हैं और ऐसे अनेक तथाकथित 'धर्मों' / religions के बीच सामञ्जस्य स्थापित करने का कठोर श्रम और विफल प्रयत्न करने में जी-जान से लगे हुए हैं। यह नितांत और सर्वथा असंभव कार्य भी है, इसलिए चाहकर या न चाहते हुए भी हम इसमें कभी सफल नहीं हो सकते।
अपने-आपको हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई मान लेने से कोई हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई नहीं हो सकता क्योंकि हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई होना केवल एक वैचारिक मान्यता है न कि ऐसा वास्तविक भौतिक यथार्थ जिसे किसी वैज्ञानिक कसौटी पार कसकर प्रमाणित किया जा सके।
किन्तु चूँकि राजनीति धर्म के बहाने हर मनुष्य को उसका अपना यूटोपिया चुनने का ख़याल देती है, अतः ऐसे अनेक धर्म धरती पर विद्यमान हैं जो परस्पर स्पर्धा में होते हैं। और ऐसा प्रत्येक धर्म आशा करता है, अंततः एकमात्र वही विश्वविजयी होगा। जबकि सबसे बड़ी विसंगति और विडम्बना यही है कि इनमें से कोई भी धर्म किसी ऐसी स्थिर और ठोस बुनियाद पर खड़ा नहीं होता जो क्षण क्षण दरकती, बिखरती, टूटती और क्षरित न होती रहती हो। अपने-अपने यूटोपिया के अंतर्गत हर मनुष्य अपने आपको किसी छोटे या बड़े धर्म से जोड़ कर अपने समूह की सुरक्षा, विस्तार और दूसरों को पराजित करने की आकांक्षा से भरा हुआ, डरा हुआ और हारा हुआ है। यद्यपि समूह से जुड़ने में तात्कालिक तौर से शक्ति और सुरक्षा प्राप्त होती प्रतीत होती है किन्तु पलक झपकते ही वही भय और असुरक्षा में बदल जाती है। ज़रूरी नहीं है कि किसी समूह में संगठित होने से आप अधिक शक्तिशाली और सुरक्षित हो ही जाते हों। क्योंकि दूसरे से आपको होनेवाला डर ही तो आपको संगठित होने के लिए प्रेरित करता है। सरल शब्दों में; - यह भय का अंत नहीं बस समय खरीदने (time borrowing or buying) करने और स्वयं को भ्रमित किए रहने का ही एक तरीका है। अंततः तो आपको जीते-जी पराजित होना ही है, - या क्या आप सोचते हैं कि किसी दिन न किसी आपका धर्म ही अवश्य ही विजयी होगा, और शेष सभी दूसरे मिटकर समाप्त हो जाएँगे ? वैसे भी व्यक्तिगत रूप से तो अंत में मृत्यु तो हर किसी की अवश्यम्भावी है ही। क्या मनुष्य के रूप में, - न कि हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई होने मात्र से, आप वाक़ई सुरक्षित और शक्तिशाली, निर्भय और निश्चिन्त हो सकते हैं ? कौन सी सुरक्षा आप खोज रहे हैं? वास्तव में आप परस्पर एक दूसरे से लगातार प्रतिस्पर्धा, आशंका, अविश्वास और डर में जी रहे हैं और सोचते हैं कि किसी वर्ग, जाति, संप्रदाय, धर्म, राष्ट्रीयता से जुड़कर, उससे अपनी अस्मिता को जोड़कर आप इस सबके बीच सुरक्षा और निश्चिंतता पा लेंगे। पूरी मनुष्य जाति की और हर मनुष्य की यह सामूहिक और वैयक्तिक मानसिकता है। और कोई यूटोपिया आपको तब तक इस मानसिकता से मुक्ति नहीं दिला सकता जब तक कि आप इस तथ्य को इसकी पूरी सच्चाई में नहीं देख लेते ।
सवाल किसी से लड़ने और किसी धर्म से जुड़कर संगठित होने का नहीं, बल्कि यह समझने का है कि किस प्रकार से मनुष्यमात्र में भय और असुरक्षा की भावना जन्म लेती है, और कोई भी धर्म क्या उसे इस भय और असुरक्षा से उबरने में सहायक होता है? यदि सहायक होता भी है तो किस कीमत पर? और, क्या आप वह कीमत चुकाने को तैयार हैं ?
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वैसे तो प्रचलित अर्थ में जिसे हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में 'धर्म' कहा जाता, माना तथा समझा जाता है, उस 'Religion' की वास्तव में 'सनातन-धर्म' से कोई तुलना ही नहीं की जा सकती, क्योंकि 'सनातन धर्म' किसी परंपरा, मान्यता या विश्वास का नाम नहीं है।
फिर भी अनेक कारणों से हम उस अर्थ को ढो रहे हैं और ऐसे अनेक तथाकथित 'धर्मों' / religions के बीच सामञ्जस्य स्थापित करने का कठोर श्रम और विफल प्रयत्न करने में जी-जान से लगे हुए हैं। यह नितांत और सर्वथा असंभव कार्य भी है, इसलिए चाहकर या न चाहते हुए भी हम इसमें कभी सफल नहीं हो सकते।
अपने-आपको हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई मान लेने से कोई हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई नहीं हो सकता क्योंकि हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई होना केवल एक वैचारिक मान्यता है न कि ऐसा वास्तविक भौतिक यथार्थ जिसे किसी वैज्ञानिक कसौटी पार कसकर प्रमाणित किया जा सके।
किन्तु चूँकि राजनीति धर्म के बहाने हर मनुष्य को उसका अपना यूटोपिया चुनने का ख़याल देती है, अतः ऐसे अनेक धर्म धरती पर विद्यमान हैं जो परस्पर स्पर्धा में होते हैं। और ऐसा प्रत्येक धर्म आशा करता है, अंततः एकमात्र वही विश्वविजयी होगा। जबकि सबसे बड़ी विसंगति और विडम्बना यही है कि इनमें से कोई भी धर्म किसी ऐसी स्थिर और ठोस बुनियाद पर खड़ा नहीं होता जो क्षण क्षण दरकती, बिखरती, टूटती और क्षरित न होती रहती हो। अपने-अपने यूटोपिया के अंतर्गत हर मनुष्य अपने आपको किसी छोटे या बड़े धर्म से जोड़ कर अपने समूह की सुरक्षा, विस्तार और दूसरों को पराजित करने की आकांक्षा से भरा हुआ, डरा हुआ और हारा हुआ है। यद्यपि समूह से जुड़ने में तात्कालिक तौर से शक्ति और सुरक्षा प्राप्त होती प्रतीत होती है किन्तु पलक झपकते ही वही भय और असुरक्षा में बदल जाती है। ज़रूरी नहीं है कि किसी समूह में संगठित होने से आप अधिक शक्तिशाली और सुरक्षित हो ही जाते हों। क्योंकि दूसरे से आपको होनेवाला डर ही तो आपको संगठित होने के लिए प्रेरित करता है। सरल शब्दों में; - यह भय का अंत नहीं बस समय खरीदने (time borrowing or buying) करने और स्वयं को भ्रमित किए रहने का ही एक तरीका है। अंततः तो आपको जीते-जी पराजित होना ही है, - या क्या आप सोचते हैं कि किसी दिन न किसी आपका धर्म ही अवश्य ही विजयी होगा, और शेष सभी दूसरे मिटकर समाप्त हो जाएँगे ? वैसे भी व्यक्तिगत रूप से तो अंत में मृत्यु तो हर किसी की अवश्यम्भावी है ही। क्या मनुष्य के रूप में, - न कि हिन्दू, मुसलमान, पारसी, सिख, यहूदी या ईसाई होने मात्र से, आप वाक़ई सुरक्षित और शक्तिशाली, निर्भय और निश्चिन्त हो सकते हैं ? कौन सी सुरक्षा आप खोज रहे हैं? वास्तव में आप परस्पर एक दूसरे से लगातार प्रतिस्पर्धा, आशंका, अविश्वास और डर में जी रहे हैं और सोचते हैं कि किसी वर्ग, जाति, संप्रदाय, धर्म, राष्ट्रीयता से जुड़कर, उससे अपनी अस्मिता को जोड़कर आप इस सबके बीच सुरक्षा और निश्चिंतता पा लेंगे। पूरी मनुष्य जाति की और हर मनुष्य की यह सामूहिक और वैयक्तिक मानसिकता है। और कोई यूटोपिया आपको तब तक इस मानसिकता से मुक्ति नहीं दिला सकता जब तक कि आप इस तथ्य को इसकी पूरी सच्चाई में नहीं देख लेते ।
सवाल किसी से लड़ने और किसी धर्म से जुड़कर संगठित होने का नहीं, बल्कि यह समझने का है कि किस प्रकार से मनुष्यमात्र में भय और असुरक्षा की भावना जन्म लेती है, और कोई भी धर्म क्या उसे इस भय और असुरक्षा से उबरने में सहायक होता है? यदि सहायक होता भी है तो किस कीमत पर? और, क्या आप वह कीमत चुकाने को तैयार हैं ?
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