किंकर्तव्यविमूढ
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मनुष्य (का मन) बँटा हुआ (विखंडित) है।
मनुष्य चाहे किसी भी देश, स्थान का हो, किसी भी भाषा को प्रयोग करता हो, पुरुष या स्त्री, गरीब या अमीर हो, शिक्षित या अशिक्षित, धार्मिक या अधार्मिक हो, आस्तिक या नास्तिक, सुसंस्कृत या असंस्कृत हो, धर्मगुरु या किसी धर्म का अनुयायी हो, देश या समूह / समाज का नेता हो या आमजन, किंकर्तव्यविमूढ़ है। यह किंकर्तव्य-विमूढता मानव जाति का स्थायी चरित्र है।
अधिकाँश लोगों को लगता है कि संसार को बदला जाना चाहिए, शोषण और अन्याय ख़त्म होना चाहिए और प्रत्येक मनुष्य को सुखी और स्वस्थ होना चाहिए, किन्तु इने-गिने लोग ही सोचते-समझते हैं कि वे समाज को और संसार को बदल सकते हैं। इनमें से कुछ लोग किन्हीं कारणों से इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने के प्रति इतने अधिक उत्कंठित होते हैं कि अपने तरीके बलपूर्वक भी दूसरों पर थोपने लगते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि उनमें से बहुत से, संसार को बदलकर कौन सा रूप दिया जाना है, इस बारे में बहुत स्पष्ट, सुनिश्चित और अत्यंत आश्वस्त होते हैं कि उनका तरीका ही अंततः सफल होगा। यह उनका अति-उत्साह ही होता है जिसे वे स्वयं ही लगातार बनाये रखते हैं।
इसमें सबसे बड़ी विसंगति यही है कि 'संसार' को 'बदलकर' वे उसे जो नया रूप देना चाहते हैं, वह रूप केवल उनकी कल्पना और विचार में ही होता है और कल्पना और विचार सदा अमूर्त होते हैं तथा क्षण-क्षण अपना रूप स्वयं ही बदल लेते हैं। आपकी कल्पना और विचार को कितने लोग जानते हैं? यहाँ तक कि जो कल्पना और विचार आपको एक समय अभिभूत कर लेता है, आकर्षित कर जिसे आप जीवन का एकमात्र ध्येय और प्राप्तव्य समझ बैठते हैं वही पल दो पल बाद स्वप्न सा तिरोहित हो जाता है जिसका कोई चिन्ह तक ढूँढ़ने से भी पुनः नहीं मिल पाता।
इसकी बजाय वे लोग जो 'संसार' को 'बदलने' के किसी स्वप्न से मोहित नहीं होते और किसी स्थूल भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं व्यावहारिक रूप से किसी हद तक अपने आपको कभी-कभी संतुष्ट और शायद 'सुखी' भी अनुभव करने लगते हैं। हालाँकि यह संतोष और सुख भी क्षणिक होता है किन्तु इससे उन्हें जीवन में निरंतर 'आगे बढ़ते रहने' की प्रेरणा तब तक मिलती रहती है जब तक कोई अप्रत्याशित दुर्घटना या दुर्भाग्य उन्हें झकझोर नहीं देता। इसके बाद वे या तो फिर संभलकर उठ खड़े होते हैं किसी और नए उत्साह (आशा) से भरकर 'आगे बढ़ते रहने' के लिए प्रयत्न करने लगते हैं, या येन-केन-प्रकारेण सुखी-दुखी, चिंतित, निश्चिन्त, परेशान, भयभीत, यहाँ तक कि पागल तक हो जाते हुए अंततः समाप्त हो जाते हैं।
और जो बहुत इने-गिने जीवन में किसी स्तर पर 'सफल' भी हो जाते हैं उनके जीवन में भी एक ऐसा शून्य प्रायः उभर आता है जिसका वे न तो सामना कर पाते हैं, न करना चाहते हैं। शायद उससे पलायन करने के लिए ही वे 'संसार' को बदलने के किसी प्रकल्प के भागीदार हो जाते हैं। स्पष्ट है कि यह प्रायः अपने-आपको दी जानेवाली सांत्वना ही अधिक होता है न कि कोई 'साहसिक' संकल्प।
स्थितियाँ असह्य हो जाने पर सहसा साहसी हो जाना, और निर्भयता से स्थितियों का आकलन कर जो किया जाना अपेक्षित है उसे करने के लिए उद्यमशील होना दो परस्पर बहुत भिन्न बातें हैं। किसी आदर्श या धर्म के नाम पर मरने-मिटने या मारने-मिटाने का साहस तो दुस्साहस ही होता है। जबकि स्थिति को उसके यथार्थ स्वरूप में, उसकी सच्चाई में और निर्भयतापूर्वक देखने में, -इसे इस प्रकार से समझने के लिए, जिसमें किसी काल्पनिक आदर्श या धर्म की कोई भूमिका नहीं होती, उसके आकलन से क्या किया जाना अपेक्षित है, जिससे उसका उचित ढंग से सामना किया जा सके, अधिक सामर्थ्य की ज़रूरत होती है।
और प्रायः यह स्थिति से संबंधित प्रश्न और समस्या की व्यापकता से भी तय होता है। समस्या जितनी अधिक या कम व्यापक होगी उसे व्यापकता के उसी स्तर पर देखा जाना ज़रूरी है। किन्तु जब किसी समस्या को उसके व्यापक स्वरूप में देखा जाता है तो उसका कोई ऐसा समाधान ढूँढना प्रायः असंभव ही होता है जो व्यक्तिगत स्तर पर भी सर्वसम्मत हो सके।
इसका एक उदाहरण है धर्म की राजनीति।
पहले तो यही कि 'धर्म' का तात्पर्य प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने तरीके से तय करता है इसलिए ऐसा 'धर्म' अनेक प्रकार का अनेक रंग-रूपों में होता है और सामाजिक मान्यता ही होता है। इसलिए जब राजनीति इस विषय में कोई निर्णय करती है तो वह नकारात्मक ही होता है।
किन्तु ऐसे अनेक 'धर्मों' की परस्पर तुलना की जाना और उनके उन तत्वों की खोज करना जो सभी के लिए हानिकारक और घातक हैं और उन्हें प्रतिबंधित किया जाना तो अवश्य ही संभव है। जिन्हें हम रूढ़ि, परंपरा या रिवाज या रस्म कहें उनमें से भी कुछ अवश्य ही ऐसे होते हैं जो पूरे मानव समाज के लिए अन्यायपूर्ण होते हैं और 'धर्म' के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेद करते हैं।
व्यापकता की दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो कुछ इस्लामी देशों में हिन्दू, बौद्ध यहाँ तक कि यहूदी एवं ईसाई 'धर्म' का आचरण कानूनन अपराध है जबकि इन तीनों धर्मों में प्रकटतः ऐसी कोई शिक्षा नहीं दी जाती है कि इन्हें न माननेवाले को क़त्ल कर दिया जाना धर्मसंगत है। जबकि इस्लाम में अवश्य ही खुले तौर पर ऐसी शिक्षा दी जाती है।
ऐसी स्थिति में यही उचित है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसा
'समान नागरिक क़ानून'
[Universal and Uniform Civil Code],
जो व्यक्ति-व्यक्ति में भेद न करता हो लागू किया जाए, जिस पर किसी 'धर्म' या रूढ़ि, परंपरा या रिवाज या रस्म का वर्चस्व न हो।
'धर्म' की राजनीति करनेवाले इससे असहमत होंगे और इसके विरोध में दलील देंगे। इस प्रकार की दलील वैसे भी राष्ट्र-विरोधी होने से सबके लिए ग्राह्य नहीं होने से अस्वीकार्य ही है।
किसी तथाकथित धर्म-स्थल के स्वामित्व के प्रश्न पर भी इसी दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए और इतिहास की भूलों को दुहराया नहीं, उनका निराकरण कर उन्हें सुधारा भी जाना चाहिए।
सवाल बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की बजाय राष्ट्र और मनुष्यमात्र के हितों पर ध्यान देने का है।
सवाल तुष्टिकरण की ऐतिहासिक भूल को दुरुस्त करने का है जिससे भारत राष्ट्र टूटा और पुनः टूटने की कगार पर आ खड़ा हुआ है।
यह समय है इस्लाम नामक धर्म की उन शिक्षाओं पर प्रश्न उठाए जाने का, जिनके कारण अन्य धर्मावलांबियों पर अन्याय होता आया है। तुष्टिकरण की नीति, जिसने इस तुष्टिकरण के बहाने देश के विभिन्न समुदायों में परस्पर अविश्वास, घृणा, वैमनस्य और भय को बढ़ाया।
इसके लिए साहस चाहिए, -न कि दुस्साहस, विवेक चाहिए, -न कि कट्टरता।
जब तक इस्लाम में 'जेहाद', 'काफ़िर वाजिब-उल-क़त्ल', 'जिज़िया', 'धिम्मी', 'दार-उल-इस्लाम', 'दार-उल उलूम', 'दार-उल-हर्ब',
हदूद (ईश-निंदा क़ानून -'Blasphemy' -Law), जैसे शब्द (और आदर्श) हैं, तब तक इस्लाम को दूसरे धर्मों से समान कहना कहाँ तक ठीक है? क्या यह दूसरे धर्मों और मतों का अपमान नहीं है?
इसका यह अर्थ नहीं कि इस्लाम और उस मत के अनुयायियों पर बलपूर्वक उस तरह का प्रतिबन्ध लगा दिया जाए, -प्रतिबन्ध लगा दिया जाए, जैसा कि इस्लामिक देशों में दूसरे मतों पर लगाया गया है ।
बल्कि इससे पहले होना यह चाहिए कि इस्लाम और उसके मतावलंबी स्वयं ही अपने आपका, तथा अपने मत की शिक्षाओं का मानव-मात्र के हित को ध्यान में रखकर मूल्याँकन और आत्मावलोकन करें।
तलाक़ या हलाला जैसे प्रश्न तो अपेक्षाकृत गौण मुद्दे हैं। क्योंकि स्वयं इस्लामी देशों में भी इस बारे में अलग अलग क़ानून हैं।
क्या इस्लाम के विरोध के लिए ज़रूरी है कि हिन्दू या अन्य धर्मावलंबी 'संगठित' हों ही?
क्या इस्लाम या किसी भी मत में हो रहे किसी अन्याय का विरोध करना और उसे दूर करना ही सर्वाधिक ज़रूरी और पर्याप्त नहीं है?
क्योंकि जैसे ही किसी धर्म / मत के नाम पर संगठन बनाया जाता है परस्पर अविश्वास और वैमनस्य ही पैदा होता है जो और भी बढ़ता भी है।
इसलिए यहाँ सभी के लिए यही ठीक है कि राष्ट्रहित में जो उचित है उसे प्रथम स्थान देकर धर्म की राजनीति को बीच में लाए बिना ही परस्पर सौहार्द्रपूर्ण होकर इन प्रश्नों पर गौर करें।
यही वास्तविक साहस है।
यदि हम ऐसा नहीं कर सकते तो लगातार लड़ते-झगड़ते रहेंगे और मरकर जन्नत में जाएँ न जाएँ जीते-जी तो जहन्नुम में ही पड़े रहेंगे।
चलते-चलते :
बहरहाल
श्री तुफ़ैल चतुर्वेदी के इस विडिओ को देखने के बाद ही मुझे इसे लिखने की हिम्मत हुई।
पता नहीं मेरा यह पोस्ट धृष्टता है, साहस है, दुस्साहस है या निर्भयता !
लेकिन चूँकि इसे पोस्ट करना मुझे मेरा पावन कर्तव्य और अधिकार भी अनुभव हो रहा है,
इसलिए अंततः अब करने जा रहा हूँ ताकि अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान कर सकूँ
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