June 28, 2014
June 26, 2014
कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 9
कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 9
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अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, ....
यह विचित्र शीर्षक पढ़ा तो मैं चौंका। पहली नज़र में बिलकुल सत्य वचन प्रतीत हुआ। लेकिन फिर प्रश्न ने सर उठा लिया। वह बोला,'अगर व्यक्ति स्वतंत्र है तो वह किसी आस्था से कैसे बँधा हो सकता है? क्या आस्था ही तब एक बंधन, पराश्रितता या गुलामी नहीं हो जाती?'
आस्थाएँ हर किसी की भिन्न भिन्न हो सकती हैं । शुद्ध वैज्ञानिक अर्थ में इसे 'निष्कर्ष' कहा जा सकता है। और निश्चित ही भौतिक सत्यों की उनकी परिभाषाओं के दायरे में यह अवश्य सत्य है कि सभी की आस्थाएँ सर्वसम्मत और सर्वस्वीकृत होती हैं। किन्तु जब आध्यात्मिक जिज्ञासा, खोज, धर्म, ईश्वर और परम सत्य के परिप्रेक्ष्य / संबंध में यह कहा जाता है कि अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, तो एक दुविधा सामने आ खड़ी होती है। हम सौजन्यता के भ्रम में यह सोचकर भले ही अपने आपको और एक-दूसरे को संतुष्ट कर लें कि यह सत्य है, लेकिन क्या लोगों की आस्थाएँ भिन्न-भिन्न और प्रायः विपरीत या विरोधी तक नहीं होतीं ? क्या सत्य को जिस रूप में हम 'आस्था' कहकर स्वीकार लेते हैं क्या वह प्रायः सिर्फ एक 'मत' या 'विचार' मात्र ही नहीं होता? जिसे हर व्यक्ति अपनी सुविधा, भय, लोभ, या जैसी शिक्षा उसे मिली होती है उस सब के अनुसार अपना लिया करता है? या उसे अपनाने से पहले सावधानी से उसकी प्रमाणिकता और विश्वसनीयता को विवेक की कसौटी पर कस लिया जाता है? अगर ऐसा नहीं है तो एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या आस्था कभी कभी हमें कट्टर भी नहीं बना सकती ? क्या आस्था हिंसा के औचित्य को प्रतिपादित नहीं कर सकती? यहाँ तक, कि क्या वह उसे गौरवान्वित तक नहीं कर सकती? क्या आज जो इराक़ या सीरिया, मलेशिया या तमाम दूसरी जगहों पर, भारत में या पाकिस्तान में भी हो रहा है, वह अपनी आस्था के प्रति असीम प्रतिबद्धता का ही परिणाम नहीं है? अगर मेरी किसी आस्था को आपके एक वक्तव्य से ठेस लगती है, तो क्या अपनी आस्था की रक्षा करने के लिए मेरा आप पर हिंसा करना उचित है? क्या आस्थाएँ टूटती-बनती नहीं रहती? क्या ऐसी भंगुर आस्थाएँ जीवन-दर्शन की नींव का स्थान ले सकती हैं?
अपनी आस्थाओं के प्रति हर व्यक्ति अवश्य ही स्वतंत्र है, लेकिन उसे अपनी आस्थाओं की प्रमाणिकता और उनसे जो अर्थ वह ग्रहण करता है, उसके उस अर्थ के वास्तविक यथार्थ की परीक्षा करनी होगी न कि यह आग्रह कि अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, ....
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अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, ....
यह विचित्र शीर्षक पढ़ा तो मैं चौंका। पहली नज़र में बिलकुल सत्य वचन प्रतीत हुआ। लेकिन फिर प्रश्न ने सर उठा लिया। वह बोला,'अगर व्यक्ति स्वतंत्र है तो वह किसी आस्था से कैसे बँधा हो सकता है? क्या आस्था ही तब एक बंधन, पराश्रितता या गुलामी नहीं हो जाती?'
आस्थाएँ हर किसी की भिन्न भिन्न हो सकती हैं । शुद्ध वैज्ञानिक अर्थ में इसे 'निष्कर्ष' कहा जा सकता है। और निश्चित ही भौतिक सत्यों की उनकी परिभाषाओं के दायरे में यह अवश्य सत्य है कि सभी की आस्थाएँ सर्वसम्मत और सर्वस्वीकृत होती हैं। किन्तु जब आध्यात्मिक जिज्ञासा, खोज, धर्म, ईश्वर और परम सत्य के परिप्रेक्ष्य / संबंध में यह कहा जाता है कि अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, तो एक दुविधा सामने आ खड़ी होती है। हम सौजन्यता के भ्रम में यह सोचकर भले ही अपने आपको और एक-दूसरे को संतुष्ट कर लें कि यह सत्य है, लेकिन क्या लोगों की आस्थाएँ भिन्न-भिन्न और प्रायः विपरीत या विरोधी तक नहीं होतीं ? क्या सत्य को जिस रूप में हम 'आस्था' कहकर स्वीकार लेते हैं क्या वह प्रायः सिर्फ एक 'मत' या 'विचार' मात्र ही नहीं होता? जिसे हर व्यक्ति अपनी सुविधा, भय, लोभ, या जैसी शिक्षा उसे मिली होती है उस सब के अनुसार अपना लिया करता है? या उसे अपनाने से पहले सावधानी से उसकी प्रमाणिकता और विश्वसनीयता को विवेक की कसौटी पर कस लिया जाता है? अगर ऐसा नहीं है तो एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या आस्था कभी कभी हमें कट्टर भी नहीं बना सकती ? क्या आस्था हिंसा के औचित्य को प्रतिपादित नहीं कर सकती? यहाँ तक, कि क्या वह उसे गौरवान्वित तक नहीं कर सकती? क्या आज जो इराक़ या सीरिया, मलेशिया या तमाम दूसरी जगहों पर, भारत में या पाकिस्तान में भी हो रहा है, वह अपनी आस्था के प्रति असीम प्रतिबद्धता का ही परिणाम नहीं है? अगर मेरी किसी आस्था को आपके एक वक्तव्य से ठेस लगती है, तो क्या अपनी आस्था की रक्षा करने के लिए मेरा आप पर हिंसा करना उचित है? क्या आस्थाएँ टूटती-बनती नहीं रहती? क्या ऐसी भंगुर आस्थाएँ जीवन-दर्शन की नींव का स्थान ले सकती हैं?
अपनी आस्थाओं के प्रति हर व्यक्ति अवश्य ही स्वतंत्र है, लेकिन उसे अपनी आस्थाओं की प्रमाणिकता और उनसे जो अर्थ वह ग्रहण करता है, उसके उस अर्थ के वास्तविक यथार्थ की परीक्षा करनी होगी न कि यह आग्रह कि अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, ....
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June 25, 2014
कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 8
कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 8
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'सद्दर्शनम्' के ही साथ मैंने श्री रमण महर्षि विरचित संस्कृत ग्रन्थ 'उपदेश-सार' के उस अनुवाद को भी 'एडिट' किया था जिसे ज्योतिर्मठ के श्री स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने ही किया था। उसे उज्जैन में ही मुद्रित किया गया था, लेकिन न तो वह संस्करण (मुद्रण और कागज़) स्तरीय कोटि का था, न उसकी कोई प्रति मेरे पास बची।
फिर मैंने इन दो पुस्तकों के श्री ए.आर.नटराजन् (श्री रमन महर्षि सेंटर फॉर लर्निंग, बैंगलोर ) द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर उन्हें हिंदी में प्रस्तुत किया। जिसे श्री रमन महर्षि सेंटर फॉर लर्निंग, बैंगलोर ने अत्यन्त प्रसन्नता से प्रकाशित किया। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि पूज्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वतीजी के प्रति मेरे हृदय में कितना आदर और सम्मान है।
कल जब शिर्डी के साईं बाबा के प्रति उनके उद्गार अख़बार में पढ़े तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। मैं महसूस कर सकता हूँ, कि सनातन धर्म के शीर्षस्थ पद पर रह चुके व्यक्ति के लिए यह सब कहना कितना कठिन रहा होगा। वे कल या आज भी शायद न भी कहते, तो कोई फ़र्क न पड़ता। शायद वे आज से पचास वर्ष पहले कहते तो बहुत फ़र्क पड़ सकता था। शायद जो समय उन्होंने चुना, वह उपयुक्त न हो। किन्तु उन्होंने सनातन धर्म के हित को ध्यान में रखकर ही कहने की आवश्यकता अनुभव की होगी। मुझे नहीं लगता कि उनका साईं बाबा से या उनके भक्तों / माननेवालों से कोई द्वेष / विरोध है। किन्तु सनातन धर्म के प्रति उनकी चिंता के औचित्य से इंकार नहीं किया जा सकता। मैं इस प्रसंग को इसी परिप्रेक्ष्य में देखता हूँ।
--
पुनश्च :
आज इस विषय में पढ़ने को मिला,
'नईदुनिया' इंदौर, गुरुवार पृष्ठ 08 पर प्रकाशित,
अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र
डॉ. अखिलेश बार्चे
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा साईं बाबा के संदर्भ में दिए गए बयानों की बहुत चर्चा है एवं उनका पुतला जलाकर इसका विरोध भी हो रहा है। यदि स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती साईं बाबा को अवतार नहीं मानने या उनके मंदिर नहीं बनाने की बात कहते हैं तो उन्हें ऐसी राय व्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता। उनके अपने तर्क हैं। उनका अपना मत है। हम उनसे सहमत हों या न हों, यह अलग बात है। लेकिन यदि वे आग्रह करते हैं कि साईं बाबा को मानने वाले लोग राम की पूजा न करें, राम के साथ साईं का नाम नहीं जोड़ें, गंगा में स्नान नहीं करें तो यह उपयुक्त नहीं लगता। श्रद्धा या भक्ति का मामला व्यक्ति की स्वयं की सोच और आस्था का नतीजा होता है। हमारे देश में व्यक्ति-पूजा का चलन युगों से रहा है। हालांकि एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि धर्म के मामले में कई बार श्रद्धा अंधश्रद्धा बनी और इसकी आड़ में भोले-भाले श्रद्धालुजन मठाधीशों के शोषण का शिकार भी हुए। यह भी देखा गया है कि हिंदू धर्म से जुड़े देवी-देवताओं, साधु-संतों, मंदिरों में कोई भी अपना हस्तक्षेप कर देता है, नया पंथ चालू कर देता है, मंदिर या धर्म-स्थल बना लेता है। स्वामीजी ने यदि कोई बात कही है तो उसका तर्कसंगत उत्तर दिया जाना चाहिए, न कि पुतले जलाने जैसी अतिवादी कार्रवाई की जानी चाहिए। तथ्य यह भी है कि जब भी कोई व्यक्ति यथास्थिति से हटकर कुछ बोलने का साहस करता है, तो उसे तुरंत विवादस्पद ठहरा दिया जाता है। (प्राध्यापक)
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इस संतुलित टिप्पणी के लिए धन्यवाद अखिलेश जी ! प्रासंगिक प्रतीत होने से बिना पूर्व अनुमति लिए इसे अपने ब्लॉग में प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है आपको इस पर आपत्ति नहीं होगी।
सादर,
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'सद्दर्शनम्' के ही साथ मैंने श्री रमण महर्षि विरचित संस्कृत ग्रन्थ 'उपदेश-सार' के उस अनुवाद को भी 'एडिट' किया था जिसे ज्योतिर्मठ के श्री स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने ही किया था। उसे उज्जैन में ही मुद्रित किया गया था, लेकिन न तो वह संस्करण (मुद्रण और कागज़) स्तरीय कोटि का था, न उसकी कोई प्रति मेरे पास बची।
फिर मैंने इन दो पुस्तकों के श्री ए.आर.नटराजन् (श्री रमन महर्षि सेंटर फॉर लर्निंग, बैंगलोर ) द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर उन्हें हिंदी में प्रस्तुत किया। जिसे श्री रमन महर्षि सेंटर फॉर लर्निंग, बैंगलोर ने अत्यन्त प्रसन्नता से प्रकाशित किया। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि पूज्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वतीजी के प्रति मेरे हृदय में कितना आदर और सम्मान है।
कल जब शिर्डी के साईं बाबा के प्रति उनके उद्गार अख़बार में पढ़े तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। मैं महसूस कर सकता हूँ, कि सनातन धर्म के शीर्षस्थ पद पर रह चुके व्यक्ति के लिए यह सब कहना कितना कठिन रहा होगा। वे कल या आज भी शायद न भी कहते, तो कोई फ़र्क न पड़ता। शायद वे आज से पचास वर्ष पहले कहते तो बहुत फ़र्क पड़ सकता था। शायद जो समय उन्होंने चुना, वह उपयुक्त न हो। किन्तु उन्होंने सनातन धर्म के हित को ध्यान में रखकर ही कहने की आवश्यकता अनुभव की होगी। मुझे नहीं लगता कि उनका साईं बाबा से या उनके भक्तों / माननेवालों से कोई द्वेष / विरोध है। किन्तु सनातन धर्म के प्रति उनकी चिंता के औचित्य से इंकार नहीं किया जा सकता। मैं इस प्रसंग को इसी परिप्रेक्ष्य में देखता हूँ।
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पुनश्च :
आज इस विषय में पढ़ने को मिला,
'नईदुनिया' इंदौर, गुरुवार पृष्ठ 08 पर प्रकाशित,
अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र
डॉ. अखिलेश बार्चे
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा साईं बाबा के संदर्भ में दिए गए बयानों की बहुत चर्चा है एवं उनका पुतला जलाकर इसका विरोध भी हो रहा है। यदि स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती साईं बाबा को अवतार नहीं मानने या उनके मंदिर नहीं बनाने की बात कहते हैं तो उन्हें ऐसी राय व्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता। उनके अपने तर्क हैं। उनका अपना मत है। हम उनसे सहमत हों या न हों, यह अलग बात है। लेकिन यदि वे आग्रह करते हैं कि साईं बाबा को मानने वाले लोग राम की पूजा न करें, राम के साथ साईं का नाम नहीं जोड़ें, गंगा में स्नान नहीं करें तो यह उपयुक्त नहीं लगता। श्रद्धा या भक्ति का मामला व्यक्ति की स्वयं की सोच और आस्था का नतीजा होता है। हमारे देश में व्यक्ति-पूजा का चलन युगों से रहा है। हालांकि एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि धर्म के मामले में कई बार श्रद्धा अंधश्रद्धा बनी और इसकी आड़ में भोले-भाले श्रद्धालुजन मठाधीशों के शोषण का शिकार भी हुए। यह भी देखा गया है कि हिंदू धर्म से जुड़े देवी-देवताओं, साधु-संतों, मंदिरों में कोई भी अपना हस्तक्षेप कर देता है, नया पंथ चालू कर देता है, मंदिर या धर्म-स्थल बना लेता है। स्वामीजी ने यदि कोई बात कही है तो उसका तर्कसंगत उत्तर दिया जाना चाहिए, न कि पुतले जलाने जैसी अतिवादी कार्रवाई की जानी चाहिए। तथ्य यह भी है कि जब भी कोई व्यक्ति यथास्थिति से हटकर कुछ बोलने का साहस करता है, तो उसे तुरंत विवादस्पद ठहरा दिया जाता है। (प्राध्यापक)
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इस संतुलित टिप्पणी के लिए धन्यवाद अखिलेश जी ! प्रासंगिक प्रतीत होने से बिना पूर्व अनुमति लिए इसे अपने ब्लॉग में प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है आपको इस पर आपत्ति नहीं होगी।
सादर,
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आजकल,
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु,
प्रसंगवश
कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -7,
कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -7,
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ध्वंस के उत्सव में पिछला बहुत कुछ भस्म हो चुका है। लेकिन क्षति कोई नहीं हुई।
बल्कि विस्तार, विकास, समृद्धि, उन्नति और उत्कर्ष ही उत्कर्ष होता चला गया है।
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कल सोच रहा था एक ज्वलन्त मुद्दे पर लिखूँ, जिसमें मेरा राष्ट्र पिछले हज़ार वर्षों से जल रहा है। हाँ डर तो लगता है कि कहीं इसमें उंगलियाँ न जला बैठूँ !
--
वर्ष 2004 में उज्जैन में सिंहस्थ के समय किताबों की जिस दुकान पर काम करता था वहाँ रखने / विक्रय के लिए कुछ पुस्तकें श्री रमणाश्रमम् तिरुवन्नामलाई मँगवाईं थीं। चूँकि 'सद्दर्शन' उनके पास उपलब्ध नहीं था (आउट ऑफ़ प्रिंट था) , तो मुझे मौका मिला कि इसी बहाने से इस पुस्तक के हिंदी अनुवाद को 'एडिट' कर प्रेस से नया संस्करण छपवा लिया जाए।
महर्षि की असीम कृपा से श्री रमणाश्रमम् तिरुवन्नामलाई के सर्वाधिकारी महोदय ने इसके लिए मुझे अनुमति प्रदान कर दी। (अभी भी मेरे पास इस संस्करण की दो सौ के क़रीब प्रतियाँ हैं।) चूँकि पुराना संस्करण तीस साल पहले छपा था, इसलिए उसमें वर्तनी की भूलें होना स्वाभाविक ही था। नए संस्करण को मेरे परिचित श्री रामकिशनजी तायल 'फ़ौजी' ने पूरे उत्साह और प्रसन्नता से उनकी प्रेस में कंप्यूटर-सेट और मुद्रित भी करवाया।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण उल्लेखनीय बात यह थी कि यह अनुवाद हिमालय प्रदेश के ज्योतिर्मठ के श्री स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने किया था। पहला संस्करण 1955 में प्रकाशित हुआ था।
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उक्त ग्रन्थ की 'भूमिका' यथावत् यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ :
भूमिका
यह ग्रन्थ भगवान् रमण महर्षि ने तमिष् में लिखा था। इसका श्री वासिष्ठ गणपति मुनि ने संस्कृत में अनुवाद किया। अनुवाद का यह काम उन्होंने उस समय पूरा किया जब वे सिरसी, उत्तर कर्नाटक में तीव्र तपश्चर्या कर रहे थे।
श्री भारद्वाज कपाली श्री गणपति मुनि के प्रसिद्ध शिष्य थे। वे काफी समय तक अपने गुरु के साथ रहते थे। उन्होंने ही उसका संस्कृत भाष्य लिखा और अंग्रेजी अनुवाद भी किया। उन दोनों पुस्तकों को हमने प्रकाशित किया है।
हिमालय प्रदेश के ज्योतिर्मठ के श्री स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने श्री कपाली शास्त्री के संस्कृत अनुवाद के आधार पर अपनी गंभीर प्रस्तावना सहित यह हिंदी भाष्य तैयार कर अनुग्रहीत किया है। हमारा दृढ विश्वास है की इस छोटी सी बहुमूल्य पुस्तक से हिन्दी भाषी साधकों को मार्गदर्शन के साथ साथ प्रेरणा भी प्राप्त होगी।
यथा-क्रम इस पुस्तक के प्रकाशन में श्री भगवान् व आश्रम के परम भक्त श्री हरिहर शर्मा ने पूरा सहयोग दिया है।
श्री रमणाश्रमम्
1-3-'55 प्रकाशक
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(क्रमशः ...... कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 8 )
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ध्वंस के उत्सव में पिछला बहुत कुछ भस्म हो चुका है। लेकिन क्षति कोई नहीं हुई।
बल्कि विस्तार, विकास, समृद्धि, उन्नति और उत्कर्ष ही उत्कर्ष होता चला गया है।
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कल सोच रहा था एक ज्वलन्त मुद्दे पर लिखूँ, जिसमें मेरा राष्ट्र पिछले हज़ार वर्षों से जल रहा है। हाँ डर तो लगता है कि कहीं इसमें उंगलियाँ न जला बैठूँ !
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वर्ष 2004 में उज्जैन में सिंहस्थ के समय किताबों की जिस दुकान पर काम करता था वहाँ रखने / विक्रय के लिए कुछ पुस्तकें श्री रमणाश्रमम् तिरुवन्नामलाई मँगवाईं थीं। चूँकि 'सद्दर्शन' उनके पास उपलब्ध नहीं था (आउट ऑफ़ प्रिंट था) , तो मुझे मौका मिला कि इसी बहाने से इस पुस्तक के हिंदी अनुवाद को 'एडिट' कर प्रेस से नया संस्करण छपवा लिया जाए।
महर्षि की असीम कृपा से श्री रमणाश्रमम् तिरुवन्नामलाई के सर्वाधिकारी महोदय ने इसके लिए मुझे अनुमति प्रदान कर दी। (अभी भी मेरे पास इस संस्करण की दो सौ के क़रीब प्रतियाँ हैं।) चूँकि पुराना संस्करण तीस साल पहले छपा था, इसलिए उसमें वर्तनी की भूलें होना स्वाभाविक ही था। नए संस्करण को मेरे परिचित श्री रामकिशनजी तायल 'फ़ौजी' ने पूरे उत्साह और प्रसन्नता से उनकी प्रेस में कंप्यूटर-सेट और मुद्रित भी करवाया।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण उल्लेखनीय बात यह थी कि यह अनुवाद हिमालय प्रदेश के ज्योतिर्मठ के श्री स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने किया था। पहला संस्करण 1955 में प्रकाशित हुआ था।
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उक्त ग्रन्थ की 'भूमिका' यथावत् यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ :
भूमिका
यह ग्रन्थ भगवान् रमण महर्षि ने तमिष् में लिखा था। इसका श्री वासिष्ठ गणपति मुनि ने संस्कृत में अनुवाद किया। अनुवाद का यह काम उन्होंने उस समय पूरा किया जब वे सिरसी, उत्तर कर्नाटक में तीव्र तपश्चर्या कर रहे थे।
श्री भारद्वाज कपाली श्री गणपति मुनि के प्रसिद्ध शिष्य थे। वे काफी समय तक अपने गुरु के साथ रहते थे। उन्होंने ही उसका संस्कृत भाष्य लिखा और अंग्रेजी अनुवाद भी किया। उन दोनों पुस्तकों को हमने प्रकाशित किया है।
हिमालय प्रदेश के ज्योतिर्मठ के श्री स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने श्री कपाली शास्त्री के संस्कृत अनुवाद के आधार पर अपनी गंभीर प्रस्तावना सहित यह हिंदी भाष्य तैयार कर अनुग्रहीत किया है। हमारा दृढ विश्वास है की इस छोटी सी बहुमूल्य पुस्तक से हिन्दी भाषी साधकों को मार्गदर्शन के साथ साथ प्रेरणा भी प्राप्त होगी।
यथा-क्रम इस पुस्तक के प्रकाशन में श्री भगवान् व आश्रम के परम भक्त श्री हरिहर शर्मा ने पूरा सहयोग दिया है।
श्री रमणाश्रमम्
1-3-'55 प्रकाशक
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(क्रमशः ...... कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 8 )
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आषाढ़ का एक दिन,
तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु,
प्रसंगवश
June 23, 2014
June 22, 2014
कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 6
कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 6
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आज आषाढ़ कृष्ण पक्ष की दसवीं तिथि है ।
आषाढ़ में वर्षा शुरू हो जाती है ।
आषाढ़ आशा और आढ्यता का संगम है । जब ग्रीष्म अपने चरम पर होता है और काले कजरारे मेघा धरती का सर्वेक्षण करते हैं । मुझे नहीं पता, कि वे जानते हैं या नहीं कि उन्हें किस राह से बचना है और किस छत को भिगोना है!
मेरे चर्यापथ पर लगे बिल्वमंगल / बनखोर के वृक्ष ध्वंस के उल्लास से गुज़रकर नए फलों से लद रहे हैं। हरे कच्चे फल जिनमें अभी बीज भी नहीं पड़े । वहीँ उनके साथ कुछ पुराने भी अपने दाँत दिखाते हुए पत्तों के बीच नज़र आ जाते हैं ।
--
एक वृक्ष और है, मेरे घर के सामने के उपेक्षित से पार्क में । जिसमें शेविंग-ब्रश जैसे फूल आते हैं, गूगल-सर्च किया, लेकिन नहीं मिला उसका नाम । बचपन से उसकी भीनी भीनी महक अच्छी लगती थी । लेकिन अधिक देर तक साथ रहे तो सर दर्द होता है ।
--
हम सुख को सहेजने लगते हैं और वह क्लेश हो जाता है ।
आशा और आढ्यता का संगम कभी कभी क्लेश भी बन जाता है ।
--
बहरहाल, वर्षा की प्रतीक्षा है !
आओ देवि ! बरसाओ कृपा !
अभी तो सूरज बरसा रहा है,
ताप, उत्ताप, संताप, प्रताप, …
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ध्वंस का उल्लास जारी है, और मैं उल्लसित हूँ ।
जहाँ न सुख है, न दुःख, बस शांति है और उल्लास भी ।
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आज आषाढ़ कृष्ण पक्ष की दसवीं तिथि है ।
आषाढ़ में वर्षा शुरू हो जाती है ।
आषाढ़ आशा और आढ्यता का संगम है । जब ग्रीष्म अपने चरम पर होता है और काले कजरारे मेघा धरती का सर्वेक्षण करते हैं । मुझे नहीं पता, कि वे जानते हैं या नहीं कि उन्हें किस राह से बचना है और किस छत को भिगोना है!
मेरे चर्यापथ पर लगे बिल्वमंगल / बनखोर के वृक्ष ध्वंस के उल्लास से गुज़रकर नए फलों से लद रहे हैं। हरे कच्चे फल जिनमें अभी बीज भी नहीं पड़े । वहीँ उनके साथ कुछ पुराने भी अपने दाँत दिखाते हुए पत्तों के बीच नज़र आ जाते हैं ।
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एक वृक्ष और है, मेरे घर के सामने के उपेक्षित से पार्क में । जिसमें शेविंग-ब्रश जैसे फूल आते हैं, गूगल-सर्च किया, लेकिन नहीं मिला उसका नाम । बचपन से उसकी भीनी भीनी महक अच्छी लगती थी । लेकिन अधिक देर तक साथ रहे तो सर दर्द होता है ।
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हम सुख को सहेजने लगते हैं और वह क्लेश हो जाता है ।
आशा और आढ्यता का संगम कभी कभी क्लेश भी बन जाता है ।
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बहरहाल, वर्षा की प्रतीक्षा है !
आओ देवि ! बरसाओ कृपा !
अभी तो सूरज बरसा रहा है,
ताप, उत्ताप, संताप, प्रताप, …
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ध्वंस का उल्लास जारी है, और मैं उल्लसित हूँ ।
जहाँ न सुख है, न दुःख, बस शांति है और उल्लास भी ।
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June 17, 2014
June 14, 2014
June 11, 2014
June 08, 2014
~~ कल का सपना - ध्वंस का उल्लास 5 ~~
~~ कल का सपना - ध्वंस का उल्लास 5 ~~
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पाँच वर्ष से अधिक हो गए 'नेट' पर !
इस बीच 'ध्वंस' और 'सृजन', 'सृजन' और 'ध्वंस' तथा 'ध्वंस के उल्लास' का नृत्य अविरल सतत निरंतर चलता रहा। अनहद नाद सा।
--
भारत राष्ट्र की 'सत्ता' के सूत्रधार बदल गए। 'ध्वंस', और 'सृजन', 'सृजन' और 'ध्वंस' तथा 'ध्वंस के उल्लास' का नृत्य अविरल सतत निरंतर चलता रहा। अनहद नाद सा।
--
एक छोटी सी कविता कुछ दिनों पहले लिखी थी :
अपने लिए,
निराश हूँ,
लेकिन दुःखी नहीं।
तुम्हारे लिए,
दुःखी हूँ,
लेकिन निराश नहीं।
--
बहुत-बहुत संतुष्ट हूँ अपने इस संक्षिप्त से, सारगर्भित वक्तव्य से।
वैसे तो यह किसी एक परिचित को लिखी गई 4 (या 6) पंक्तियाँ थीं, लेकिन इसे मैं मेरी सम्पूर्ण आत्मकथा ही समझता हूँ। जिसे पूरे जगत के प्रति भी समर्पित करना चाहूंगा।
--
सोचता हूँ वक्त कहकर नहीं आता। ध्वंस और सृजन विपरीत या विरोधी नहीं एक-दूसरे के प्रतिपूरक हैं। दोनों वह बल-युग्म है, जो जीवन है। जन्म और मृत्यु भी ऐसा ही एक बल-युग्म है।
--
बचपन से यह बल-युग्म मेरे जीवन के पहिए को संतुलित रखता चला आया है। हर दिन, हर बार ऐसा लगता है कि अब यह पहिया इधर या उधर गिर जाएगा, लेकिन फिर फिर संतुलित हो जाता रहा है । अध्यात्म, धर्म, शिक्षा, राजनीति, सामाजिक दबावों और व्यक्तिगत गुण-दोषों बावज़ूद !
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हर रोज़, हर घड़ी कुछ न कुछ अनपेक्षित होता है, ख़ुशी या दुःख या बस रोज़मर्रा का रूटीन !
अख़बार पढ़ना मज़बूरी है, आज के अख़बार में ISIS के विरोध में कलकत्ता की मुस्लिम युवतियों के प्रदर्शन के फ़ोटो पर नज़र पड़ती है, दूसरी खबरें भी हैं, रुश्दी को मिला pen -pinter पुरस्कार या केदारनाथ सिंह को मिला ज्ञानपीठ, रेल-भाड़े में वृद्धि जिसे सदानंद गौड़ा पिछली u . p . a . सरकार की सौगात कहते हैं।
वास्तव में मेरा सोचना है कि हमें हर चीज़ की क़ीमत देनी ही होगी। तथाकथित विकास, समृद्धि, प्रगति, उन्नति, आदि की क़ीमत तो चुकानी ही होगी उससे कहीं बहुत अधिक क़ीमत अपने लोभ, भयों जीवन-मूल्यों आदर्शों, विचारधाराओं, धर्म (?), परंपरा, सामाजिक सरोकारों की भी।
लेकिन शायद ही कोई क़ीमत चुकाने को तैयार है।
'ध्वंस' भी क़ीमत है, और मैं उल्लसित हूँ !
वे चार पंक्तियाँ फिर से उद्धृत कर रहा हूँ :
अपने लिए,
निराश हूँ,
लेकिन दुःखी नहीं।
तुम्हारे लिए,
दुःखी हूँ,
लेकिन निराश नहीं।
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और एक संशोधन :
तुम्हारे लिए,
या अपने लिए,
भले ही मैं निराश या दुःखी होऊँ,
हैरत नहीं होगी मुझे,
अगर कल के अख़बार में,
तुम्हारे / मेरे / हमारे बारे में छपी,
कोई और डरावनी खबर,
मुझसे 'हॅलो' कहे !
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पाँच वर्ष से अधिक हो गए 'नेट' पर !
इस बीच 'ध्वंस' और 'सृजन', 'सृजन' और 'ध्वंस' तथा 'ध्वंस के उल्लास' का नृत्य अविरल सतत निरंतर चलता रहा। अनहद नाद सा।
--
भारत राष्ट्र की 'सत्ता' के सूत्रधार बदल गए। 'ध्वंस', और 'सृजन', 'सृजन' और 'ध्वंस' तथा 'ध्वंस के उल्लास' का नृत्य अविरल सतत निरंतर चलता रहा। अनहद नाद सा।
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एक छोटी सी कविता कुछ दिनों पहले लिखी थी :
अपने लिए,
निराश हूँ,
लेकिन दुःखी नहीं।
तुम्हारे लिए,
दुःखी हूँ,
लेकिन निराश नहीं।
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बहुत-बहुत संतुष्ट हूँ अपने इस संक्षिप्त से, सारगर्भित वक्तव्य से।
वैसे तो यह किसी एक परिचित को लिखी गई 4 (या 6) पंक्तियाँ थीं, लेकिन इसे मैं मेरी सम्पूर्ण आत्मकथा ही समझता हूँ। जिसे पूरे जगत के प्रति भी समर्पित करना चाहूंगा।
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सोचता हूँ वक्त कहकर नहीं आता। ध्वंस और सृजन विपरीत या विरोधी नहीं एक-दूसरे के प्रतिपूरक हैं। दोनों वह बल-युग्म है, जो जीवन है। जन्म और मृत्यु भी ऐसा ही एक बल-युग्म है।
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बचपन से यह बल-युग्म मेरे जीवन के पहिए को संतुलित रखता चला आया है। हर दिन, हर बार ऐसा लगता है कि अब यह पहिया इधर या उधर गिर जाएगा, लेकिन फिर फिर संतुलित हो जाता रहा है । अध्यात्म, धर्म, शिक्षा, राजनीति, सामाजिक दबावों और व्यक्तिगत गुण-दोषों बावज़ूद !
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हर रोज़, हर घड़ी कुछ न कुछ अनपेक्षित होता है, ख़ुशी या दुःख या बस रोज़मर्रा का रूटीन !
अख़बार पढ़ना मज़बूरी है, आज के अख़बार में ISIS के विरोध में कलकत्ता की मुस्लिम युवतियों के प्रदर्शन के फ़ोटो पर नज़र पड़ती है, दूसरी खबरें भी हैं, रुश्दी को मिला pen -pinter पुरस्कार या केदारनाथ सिंह को मिला ज्ञानपीठ, रेल-भाड़े में वृद्धि जिसे सदानंद गौड़ा पिछली u . p . a . सरकार की सौगात कहते हैं।
वास्तव में मेरा सोचना है कि हमें हर चीज़ की क़ीमत देनी ही होगी। तथाकथित विकास, समृद्धि, प्रगति, उन्नति, आदि की क़ीमत तो चुकानी ही होगी उससे कहीं बहुत अधिक क़ीमत अपने लोभ, भयों जीवन-मूल्यों आदर्शों, विचारधाराओं, धर्म (?), परंपरा, सामाजिक सरोकारों की भी।
लेकिन शायद ही कोई क़ीमत चुकाने को तैयार है।
'ध्वंस' भी क़ीमत है, और मैं उल्लसित हूँ !
वे चार पंक्तियाँ फिर से उद्धृत कर रहा हूँ :
अपने लिए,
निराश हूँ,
लेकिन दुःखी नहीं।
तुम्हारे लिए,
दुःखी हूँ,
लेकिन निराश नहीं।
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और एक संशोधन :
तुम्हारे लिए,
या अपने लिए,
भले ही मैं निराश या दुःखी होऊँ,
हैरत नहीं होगी मुझे,
अगर कल के अख़बार में,
तुम्हारे / मेरे / हमारे बारे में छपी,
कोई और डरावनी खबर,
मुझसे 'हॅलो' कहे !
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~~ अकेलापन -2 ~~
~~ अकेलापन -2 ~~
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'अकेलापन', 'क्या नहीं है?'
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जब हम 'अकेलेपन' का विचार करते हैं, केवल तभी यह इस रूप में अस्तित्वमान प्रतीत होता है, जिसे 'इस्तेमाल' भी किया जाता है ! है न परम आश्चर्य की बात?
तात्पर्य यह, कि 'अकेलेपन' को तो नहीं, 'अकेलेपन' के विचार को ही वस्तुतः 'जाना' जाता है, न कि 'उस' वस्तु को जिसे 'अकेलापन' यह नाम दिया जाता है। हमारी यही एकमात्र समस्या है। 'विचार' उस वस्तु का विकल्प बन जाता है, जिसका अस्तित्व तक संदिग्ध है, लेकिन 'विचार' के माध्यम से 'ठोस-यथार्थ' बन जाता है।
और यह बात सिर्फ 'अकेलेपन' पर ही नहीं, बल्कि उन सब अधिकांश बातों पर भी लागू होती हैं, जिन्हें 'मस्तिष्क' पैदा करता और स्मृति के माध्यम से सहेजकर भी रखता है।
अगर इस पर और ध्यान दें तो यह समझना आसान है कि यद्यपि 'मस्तिष्क' विचार का जन्मदाता और संरक्षक भी है, वह एक नितांत यंत्र-मात्र है, और अपनी पूर्ण या आंशिक, त्रुटिपूर्ण या त्रुटिरहित क्षमता से अपना कार्य करता रहता है, जब तक शरीर में 'जीवन' है। इसे ऐसा भी समझ सकते हैं कि जब तक यह यंत्र कार्यरत रहता है, तब तक ही शरीर में 'जीवन' है, -ऐसा समझा / कहा जाता है।
किन्तु इस सबमें इस ओर ध्यान नहीं जा पाता, कि जिसे हम 'मन' कहते हैं, जो सिर्फ 'जानता' भर है, और 'मस्तिष्क', हृदय, और देह के दूसरे किसी भी अंग के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता, -आप ही स्वयं अपना प्रमाण है।
'विचार' इस 'जानने' को आवरित कर लेता है, और इस 'जानने' को कभी नहीं जान सकता। 'विचार' सदा 'जड' है, जबकि 'जानना' 'चेतन' है। हम (?) 'विचार' से इस बुरी तरह अभिभूत होते हैं कि उसके अभाव में भयभीत, एकदम असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। और यह भी नहीं देख पाते, कि यही तो हमें 'जानने' से दूर और विच्छिन्न रखता है। और यही 'सारतत्व' है 'अकेलेपन' का।
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© विनय वैद्य, उज्जैन / 07 /06 /2014.
(© का प्रयोग सिर्फ यह स्पष्ट करने के लिए, कि उपरोक्त पोस्ट / आलेख, कहीं और से 'उद्धृत' नहीं गया।)
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'अकेलापन', 'क्या नहीं है?'
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जब हम 'अकेलेपन' का विचार करते हैं, केवल तभी यह इस रूप में अस्तित्वमान प्रतीत होता है, जिसे 'इस्तेमाल' भी किया जाता है ! है न परम आश्चर्य की बात?
तात्पर्य यह, कि 'अकेलेपन' को तो नहीं, 'अकेलेपन' के विचार को ही वस्तुतः 'जाना' जाता है, न कि 'उस' वस्तु को जिसे 'अकेलापन' यह नाम दिया जाता है। हमारी यही एकमात्र समस्या है। 'विचार' उस वस्तु का विकल्प बन जाता है, जिसका अस्तित्व तक संदिग्ध है, लेकिन 'विचार' के माध्यम से 'ठोस-यथार्थ' बन जाता है।
और यह बात सिर्फ 'अकेलेपन' पर ही नहीं, बल्कि उन सब अधिकांश बातों पर भी लागू होती हैं, जिन्हें 'मस्तिष्क' पैदा करता और स्मृति के माध्यम से सहेजकर भी रखता है।
अगर इस पर और ध्यान दें तो यह समझना आसान है कि यद्यपि 'मस्तिष्क' विचार का जन्मदाता और संरक्षक भी है, वह एक नितांत यंत्र-मात्र है, और अपनी पूर्ण या आंशिक, त्रुटिपूर्ण या त्रुटिरहित क्षमता से अपना कार्य करता रहता है, जब तक शरीर में 'जीवन' है। इसे ऐसा भी समझ सकते हैं कि जब तक यह यंत्र कार्यरत रहता है, तब तक ही शरीर में 'जीवन' है, -ऐसा समझा / कहा जाता है।
किन्तु इस सबमें इस ओर ध्यान नहीं जा पाता, कि जिसे हम 'मन' कहते हैं, जो सिर्फ 'जानता' भर है, और 'मस्तिष्क', हृदय, और देह के दूसरे किसी भी अंग के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता, -आप ही स्वयं अपना प्रमाण है।
'विचार' इस 'जानने' को आवरित कर लेता है, और इस 'जानने' को कभी नहीं जान सकता। 'विचार' सदा 'जड' है, जबकि 'जानना' 'चेतन' है। हम (?) 'विचार' से इस बुरी तरह अभिभूत होते हैं कि उसके अभाव में भयभीत, एकदम असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। और यह भी नहीं देख पाते, कि यही तो हमें 'जानने' से दूर और विच्छिन्न रखता है। और यही 'सारतत्व' है 'अकेलेपन' का।
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© विनय वैद्य, उज्जैन / 07 /06 /2014.
(© का प्रयोग सिर्फ यह स्पष्ट करने के लिए, कि उपरोक्त पोस्ट / आलेख, कहीं और से 'उद्धृत' नहीं गया।)
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~~~ 'विचार' और 'ध्यान' ~~~,
J.Krishnamurti,
अज्ञात,
प्रसंगवश
June 07, 2014
~~अकेलापन~~
क्या हम 'अकेलेपन' को अनुभव करते हैं?
अभी-अभी श्री जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं से उद्धृत यह गद्यांश पढ़ा ।
प्रसंगवश, मेरे मन में यह प्रश्न उठा कि हमने वास्तव में कभी 'अकेलेपन' को जाना या महसूस भी किया होता है? थोड़ा धीरज रखें, मुझे लगता है कि हमने 'अकेलेपन' को कभी ठीक से जानने या महसूस करने की जरुरत ही नहीं समझी। जैसा कि साथ दी गई लिंक में उठाए गए प्रश्न;
'हम अकेलेपन का सामना क्यों नहीं करते?'
से भी हम तत्क्षण राजी हो जाते हैं, कि वास्तव में यह हमारे जीवन से घनिष्ठतः जुड़ा एक ऐसा प्रश्न है, जिसका सामना लगभग हर इंसान कभी न कभी अवश्य ही करता है।
जब हम बस-स्टॉप पर खड़े अपनी आनेवाली बस का इंतज़ार कर रहे हों या फिर उसके आ जाने पर उसमें खड़े-खड़े या बैठकर यात्रा करते समय अपने स्टॉप के आने का इंतज़ार कर रहे हों जहाँ हमें बस से उतरना है। सवाल यह नहीं है, कि 'हम अकेलेपन का सामना क्यों नहीं करते?'
सवाल यह भी है कि जिसे हमने 'अकेलेपन' की संज्ञा दी है, क्या वास्तव में वह कोई इन्द्रियगम्य या संवेदनगम्य, बुद्धिगम्य या अनुभवगम्य वस्तु है भी?
ज़ाहिर है कि उसके 'अभाव' में ही हम 'उसे' संज्ञा देते हैं और हमें लगने लगता है कि हम कोई बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न हल करने जा रहे हैं। मुझे लगता है कि ऐसा सारा प्रयास ही मूलतः इस भूल से शुरू होता है कि हम जिस 'अकेलेपन' का सामना करने की बात कर रहे हैं वह कोई ऐसी इन्द्रियगम्य या संवेदनगम्य, बुद्धिगम्य या अनुभवगम्य वस्तु नहीं है जिसका सामना किया जाना संभव हो।
तात्पर्य यह कि हम जिसे इंगित से 'अकेलापन' कह रहे हैं, उससे न तो छुटकारा हो सकता है, और न ही उसका सामना करने का प्रश्न उठता है।
फिर भी यह बिलकुल और अवश्य ही संभव है, कि ऐसे किसी 'क्षण', जब हम 'अकेले' होते हैं, -न कि 'अकेलेपन' को जानते, महसूस या परिभाषित कर रहे होते हैं, पलक झपकते ही इस रहस्यपूर्ण तत्व को अनावरित कर, वह 'क्या नहीं है?' इसका साक्षात्कार कर लें।
चाहे तब भले ही हम बस-स्टॉप पर खड़े अपनी आनेवाली बस का इंतज़ार कर रहे हों, या फिर उसके आ जाने पर उसमें खड़े-खड़े या बैठकर यात्रा करते समय अपने स्टॉप के आने का इंतज़ार कर रहे हों जहाँ हमें बस से उतरना है।
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अभी-अभी श्री जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं से उद्धृत यह गद्यांश पढ़ा ।
प्रसंगवश, मेरे मन में यह प्रश्न उठा कि हमने वास्तव में कभी 'अकेलेपन' को जाना या महसूस भी किया होता है? थोड़ा धीरज रखें, मुझे लगता है कि हमने 'अकेलेपन' को कभी ठीक से जानने या महसूस करने की जरुरत ही नहीं समझी। जैसा कि साथ दी गई लिंक में उठाए गए प्रश्न;
'हम अकेलेपन का सामना क्यों नहीं करते?'
से भी हम तत्क्षण राजी हो जाते हैं, कि वास्तव में यह हमारे जीवन से घनिष्ठतः जुड़ा एक ऐसा प्रश्न है, जिसका सामना लगभग हर इंसान कभी न कभी अवश्य ही करता है।
जब हम बस-स्टॉप पर खड़े अपनी आनेवाली बस का इंतज़ार कर रहे हों या फिर उसके आ जाने पर उसमें खड़े-खड़े या बैठकर यात्रा करते समय अपने स्टॉप के आने का इंतज़ार कर रहे हों जहाँ हमें बस से उतरना है। सवाल यह नहीं है, कि 'हम अकेलेपन का सामना क्यों नहीं करते?'
सवाल यह भी है कि जिसे हमने 'अकेलेपन' की संज्ञा दी है, क्या वास्तव में वह कोई इन्द्रियगम्य या संवेदनगम्य, बुद्धिगम्य या अनुभवगम्य वस्तु है भी?
ज़ाहिर है कि उसके 'अभाव' में ही हम 'उसे' संज्ञा देते हैं और हमें लगने लगता है कि हम कोई बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न हल करने जा रहे हैं। मुझे लगता है कि ऐसा सारा प्रयास ही मूलतः इस भूल से शुरू होता है कि हम जिस 'अकेलेपन' का सामना करने की बात कर रहे हैं वह कोई ऐसी इन्द्रियगम्य या संवेदनगम्य, बुद्धिगम्य या अनुभवगम्य वस्तु नहीं है जिसका सामना किया जाना संभव हो।
तात्पर्य यह कि हम जिसे इंगित से 'अकेलापन' कह रहे हैं, उससे न तो छुटकारा हो सकता है, और न ही उसका सामना करने का प्रश्न उठता है।
फिर भी यह बिलकुल और अवश्य ही संभव है, कि ऐसे किसी 'क्षण', जब हम 'अकेले' होते हैं, -न कि 'अकेलेपन' को जानते, महसूस या परिभाषित कर रहे होते हैं, पलक झपकते ही इस रहस्यपूर्ण तत्व को अनावरित कर, वह 'क्या नहीं है?' इसका साक्षात्कार कर लें।
चाहे तब भले ही हम बस-स्टॉप पर खड़े अपनी आनेवाली बस का इंतज़ार कर रहे हों, या फिर उसके आ जाने पर उसमें खड़े-खड़े या बैठकर यात्रा करते समय अपने स्टॉप के आने का इंतज़ार कर रहे हों जहाँ हमें बस से उतरना है।
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