June 07, 2014

~~अकेलापन~~

क्या हम 'अकेलेपन' को अनुभव करते हैं?

अभी-अभी श्री जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं से उद्धृत यह गद्यांश पढ़ा ।
प्रसंगवश, मेरे मन में यह प्रश्न उठा कि हमने वास्तव में कभी  'अकेलेपन' को जाना या महसूस भी किया होता है? थोड़ा धीरज रखें, मुझे लगता है कि हमने 'अकेलेपन' को कभी ठीक से जानने या महसूस करने की जरुरत ही नहीं समझी। जैसा कि साथ दी गई लिंक में उठाए गए प्रश्न;
'हम अकेलेपन का सामना क्यों नहीं करते?'
से भी हम तत्क्षण राजी हो जाते हैं, कि वास्तव में यह हमारे जीवन से घनिष्ठतः जुड़ा एक ऐसा प्रश्न है, जिसका सामना लगभग हर इंसान कभी न कभी अवश्य ही करता है।
जब हम बस-स्टॉप पर खड़े अपनी आनेवाली बस का इंतज़ार कर रहे हों या फिर उसके आ जाने पर उसमें खड़े-खड़े या बैठकर यात्रा करते समय अपने स्टॉप के आने का  इंतज़ार कर रहे हों जहाँ हमें बस से उतरना है। सवाल यह नहीं है, कि 'हम अकेलेपन का सामना  क्यों नहीं करते?'
सवाल यह भी है कि जिसे हमने 'अकेलेपन' की संज्ञा दी है, क्या वास्तव में वह कोई इन्द्रियगम्य या संवेदनगम्य, बुद्धिगम्य या अनुभवगम्य वस्तु है भी?
ज़ाहिर है कि उसके 'अभाव' में ही हम 'उसे' संज्ञा देते हैं और हमें लगने लगता है कि हम कोई बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न हल करने जा रहे हैं।  मुझे लगता है कि ऐसा सारा प्रयास ही मूलतः इस भूल से शुरू होता है कि हम जिस  'अकेलेपन' का सामना करने की बात कर रहे हैं वह कोई ऐसी इन्द्रियगम्य या संवेदनगम्य, बुद्धिगम्य या अनुभवगम्य वस्तु नहीं है जिसका सामना किया जाना संभव हो।
तात्पर्य यह कि हम जिसे इंगित से 'अकेलापन' कह रहे हैं, उससे  न तो छुटकारा हो सकता है, और न ही उसका सामना करने का प्रश्न उठता है।
फिर भी यह बिलकुल और अवश्य ही संभव है, कि ऐसे किसी 'क्षण', जब हम 'अकेले' होते हैं, -न कि 'अकेलेपन' को जानते, महसूस या परिभाषित कर रहे होते हैं, पलक झपकते ही इस रहस्यपूर्ण तत्व को अनावरित  कर, वह 'क्या नहीं है?' इसका साक्षात्कार कर लें।
चाहे तब भले ही हम बस-स्टॉप पर खड़े अपनी आनेवाली बस का इंतज़ार कर रहे हों, या फिर उसके आ जाने पर उसमें खड़े-खड़े या बैठकर यात्रा करते समय अपने स्टॉप के आने का  इंतज़ार कर रहे हों जहाँ हमें बस से उतरना है।
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