~~ अकेलापन -2 ~~
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'अकेलापन', 'क्या नहीं है?'
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जब हम 'अकेलेपन' का विचार करते हैं, केवल तभी यह इस रूप में अस्तित्वमान प्रतीत होता है, जिसे 'इस्तेमाल' भी किया जाता है ! है न परम आश्चर्य की बात?
तात्पर्य यह, कि 'अकेलेपन' को तो नहीं, 'अकेलेपन' के विचार को ही वस्तुतः 'जाना' जाता है, न कि 'उस' वस्तु को जिसे 'अकेलापन' यह नाम दिया जाता है। हमारी यही एकमात्र समस्या है। 'विचार' उस वस्तु का विकल्प बन जाता है, जिसका अस्तित्व तक संदिग्ध है, लेकिन 'विचार' के माध्यम से 'ठोस-यथार्थ' बन जाता है।
और यह बात सिर्फ 'अकेलेपन' पर ही नहीं, बल्कि उन सब अधिकांश बातों पर भी लागू होती हैं, जिन्हें 'मस्तिष्क' पैदा करता और स्मृति के माध्यम से सहेजकर भी रखता है।
अगर इस पर और ध्यान दें तो यह समझना आसान है कि यद्यपि 'मस्तिष्क' विचार का जन्मदाता और संरक्षक भी है, वह एक नितांत यंत्र-मात्र है, और अपनी पूर्ण या आंशिक, त्रुटिपूर्ण या त्रुटिरहित क्षमता से अपना कार्य करता रहता है, जब तक शरीर में 'जीवन' है। इसे ऐसा भी समझ सकते हैं कि जब तक यह यंत्र कार्यरत रहता है, तब तक ही शरीर में 'जीवन' है, -ऐसा समझा / कहा जाता है।
किन्तु इस सबमें इस ओर ध्यान नहीं जा पाता, कि जिसे हम 'मन' कहते हैं, जो सिर्फ 'जानता' भर है, और 'मस्तिष्क', हृदय, और देह के दूसरे किसी भी अंग के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता, -आप ही स्वयं अपना प्रमाण है।
'विचार' इस 'जानने' को आवरित कर लेता है, और इस 'जानने' को कभी नहीं जान सकता। 'विचार' सदा 'जड' है, जबकि 'जानना' 'चेतन' है। हम (?) 'विचार' से इस बुरी तरह अभिभूत होते हैं कि उसके अभाव में भयभीत, एकदम असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। और यह भी नहीं देख पाते, कि यही तो हमें 'जानने' से दूर और विच्छिन्न रखता है। और यही 'सारतत्व' है 'अकेलेपन' का।
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© विनय वैद्य, उज्जैन / 07 /06 /2014.
(© का प्रयोग सिर्फ यह स्पष्ट करने के लिए, कि उपरोक्त पोस्ट / आलेख, कहीं और से 'उद्धृत' नहीं गया।)
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'अकेलापन', 'क्या नहीं है?'
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जब हम 'अकेलेपन' का विचार करते हैं, केवल तभी यह इस रूप में अस्तित्वमान प्रतीत होता है, जिसे 'इस्तेमाल' भी किया जाता है ! है न परम आश्चर्य की बात?
तात्पर्य यह, कि 'अकेलेपन' को तो नहीं, 'अकेलेपन' के विचार को ही वस्तुतः 'जाना' जाता है, न कि 'उस' वस्तु को जिसे 'अकेलापन' यह नाम दिया जाता है। हमारी यही एकमात्र समस्या है। 'विचार' उस वस्तु का विकल्प बन जाता है, जिसका अस्तित्व तक संदिग्ध है, लेकिन 'विचार' के माध्यम से 'ठोस-यथार्थ' बन जाता है।
और यह बात सिर्फ 'अकेलेपन' पर ही नहीं, बल्कि उन सब अधिकांश बातों पर भी लागू होती हैं, जिन्हें 'मस्तिष्क' पैदा करता और स्मृति के माध्यम से सहेजकर भी रखता है।
अगर इस पर और ध्यान दें तो यह समझना आसान है कि यद्यपि 'मस्तिष्क' विचार का जन्मदाता और संरक्षक भी है, वह एक नितांत यंत्र-मात्र है, और अपनी पूर्ण या आंशिक, त्रुटिपूर्ण या त्रुटिरहित क्षमता से अपना कार्य करता रहता है, जब तक शरीर में 'जीवन' है। इसे ऐसा भी समझ सकते हैं कि जब तक यह यंत्र कार्यरत रहता है, तब तक ही शरीर में 'जीवन' है, -ऐसा समझा / कहा जाता है।
किन्तु इस सबमें इस ओर ध्यान नहीं जा पाता, कि जिसे हम 'मन' कहते हैं, जो सिर्फ 'जानता' भर है, और 'मस्तिष्क', हृदय, और देह के दूसरे किसी भी अंग के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता, -आप ही स्वयं अपना प्रमाण है।
'विचार' इस 'जानने' को आवरित कर लेता है, और इस 'जानने' को कभी नहीं जान सकता। 'विचार' सदा 'जड' है, जबकि 'जानना' 'चेतन' है। हम (?) 'विचार' से इस बुरी तरह अभिभूत होते हैं कि उसके अभाव में भयभीत, एकदम असुरक्षित महसूस करने लगते हैं। और यह भी नहीं देख पाते, कि यही तो हमें 'जानने' से दूर और विच्छिन्न रखता है। और यही 'सारतत्व' है 'अकेलेपन' का।
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© विनय वैद्य, उज्जैन / 07 /06 /2014.
(© का प्रयोग सिर्फ यह स्पष्ट करने के लिए, कि उपरोक्त पोस्ट / आलेख, कहीं और से 'उद्धृत' नहीं गया।)
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