कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 9
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अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, ....
यह विचित्र शीर्षक पढ़ा तो मैं चौंका। पहली नज़र में बिलकुल सत्य वचन प्रतीत हुआ। लेकिन फिर प्रश्न ने सर उठा लिया। वह बोला,'अगर व्यक्ति स्वतंत्र है तो वह किसी आस्था से कैसे बँधा हो सकता है? क्या आस्था ही तब एक बंधन, पराश्रितता या गुलामी नहीं हो जाती?'
आस्थाएँ हर किसी की भिन्न भिन्न हो सकती हैं । शुद्ध वैज्ञानिक अर्थ में इसे 'निष्कर्ष' कहा जा सकता है। और निश्चित ही भौतिक सत्यों की उनकी परिभाषाओं के दायरे में यह अवश्य सत्य है कि सभी की आस्थाएँ सर्वसम्मत और सर्वस्वीकृत होती हैं। किन्तु जब आध्यात्मिक जिज्ञासा, खोज, धर्म, ईश्वर और परम सत्य के परिप्रेक्ष्य / संबंध में यह कहा जाता है कि अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, तो एक दुविधा सामने आ खड़ी होती है। हम सौजन्यता के भ्रम में यह सोचकर भले ही अपने आपको और एक-दूसरे को संतुष्ट कर लें कि यह सत्य है, लेकिन क्या लोगों की आस्थाएँ भिन्न-भिन्न और प्रायः विपरीत या विरोधी तक नहीं होतीं ? क्या सत्य को जिस रूप में हम 'आस्था' कहकर स्वीकार लेते हैं क्या वह प्रायः सिर्फ एक 'मत' या 'विचार' मात्र ही नहीं होता? जिसे हर व्यक्ति अपनी सुविधा, भय, लोभ, या जैसी शिक्षा उसे मिली होती है उस सब के अनुसार अपना लिया करता है? या उसे अपनाने से पहले सावधानी से उसकी प्रमाणिकता और विश्वसनीयता को विवेक की कसौटी पर कस लिया जाता है? अगर ऐसा नहीं है तो एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या आस्था कभी कभी हमें कट्टर भी नहीं बना सकती ? क्या आस्था हिंसा के औचित्य को प्रतिपादित नहीं कर सकती? यहाँ तक, कि क्या वह उसे गौरवान्वित तक नहीं कर सकती? क्या आज जो इराक़ या सीरिया, मलेशिया या तमाम दूसरी जगहों पर, भारत में या पाकिस्तान में भी हो रहा है, वह अपनी आस्था के प्रति असीम प्रतिबद्धता का ही परिणाम नहीं है? अगर मेरी किसी आस्था को आपके एक वक्तव्य से ठेस लगती है, तो क्या अपनी आस्था की रक्षा करने के लिए मेरा आप पर हिंसा करना उचित है? क्या आस्थाएँ टूटती-बनती नहीं रहती? क्या ऐसी भंगुर आस्थाएँ जीवन-दर्शन की नींव का स्थान ले सकती हैं?
अपनी आस्थाओं के प्रति हर व्यक्ति अवश्य ही स्वतंत्र है, लेकिन उसे अपनी आस्थाओं की प्रमाणिकता और उनसे जो अर्थ वह ग्रहण करता है, उसके उस अर्थ के वास्तविक यथार्थ की परीक्षा करनी होगी न कि यह आग्रह कि अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, ....
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अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, ....
यह विचित्र शीर्षक पढ़ा तो मैं चौंका। पहली नज़र में बिलकुल सत्य वचन प्रतीत हुआ। लेकिन फिर प्रश्न ने सर उठा लिया। वह बोला,'अगर व्यक्ति स्वतंत्र है तो वह किसी आस्था से कैसे बँधा हो सकता है? क्या आस्था ही तब एक बंधन, पराश्रितता या गुलामी नहीं हो जाती?'
आस्थाएँ हर किसी की भिन्न भिन्न हो सकती हैं । शुद्ध वैज्ञानिक अर्थ में इसे 'निष्कर्ष' कहा जा सकता है। और निश्चित ही भौतिक सत्यों की उनकी परिभाषाओं के दायरे में यह अवश्य सत्य है कि सभी की आस्थाएँ सर्वसम्मत और सर्वस्वीकृत होती हैं। किन्तु जब आध्यात्मिक जिज्ञासा, खोज, धर्म, ईश्वर और परम सत्य के परिप्रेक्ष्य / संबंध में यह कहा जाता है कि अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, तो एक दुविधा सामने आ खड़ी होती है। हम सौजन्यता के भ्रम में यह सोचकर भले ही अपने आपको और एक-दूसरे को संतुष्ट कर लें कि यह सत्य है, लेकिन क्या लोगों की आस्थाएँ भिन्न-भिन्न और प्रायः विपरीत या विरोधी तक नहीं होतीं ? क्या सत्य को जिस रूप में हम 'आस्था' कहकर स्वीकार लेते हैं क्या वह प्रायः सिर्फ एक 'मत' या 'विचार' मात्र ही नहीं होता? जिसे हर व्यक्ति अपनी सुविधा, भय, लोभ, या जैसी शिक्षा उसे मिली होती है उस सब के अनुसार अपना लिया करता है? या उसे अपनाने से पहले सावधानी से उसकी प्रमाणिकता और विश्वसनीयता को विवेक की कसौटी पर कस लिया जाता है? अगर ऐसा नहीं है तो एक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या आस्था कभी कभी हमें कट्टर भी नहीं बना सकती ? क्या आस्था हिंसा के औचित्य को प्रतिपादित नहीं कर सकती? यहाँ तक, कि क्या वह उसे गौरवान्वित तक नहीं कर सकती? क्या आज जो इराक़ या सीरिया, मलेशिया या तमाम दूसरी जगहों पर, भारत में या पाकिस्तान में भी हो रहा है, वह अपनी आस्था के प्रति असीम प्रतिबद्धता का ही परिणाम नहीं है? अगर मेरी किसी आस्था को आपके एक वक्तव्य से ठेस लगती है, तो क्या अपनी आस्था की रक्षा करने के लिए मेरा आप पर हिंसा करना उचित है? क्या आस्थाएँ टूटती-बनती नहीं रहती? क्या ऐसी भंगुर आस्थाएँ जीवन-दर्शन की नींव का स्थान ले सकती हैं?
अपनी आस्थाओं के प्रति हर व्यक्ति अवश्य ही स्वतंत्र है, लेकिन उसे अपनी आस्थाओं की प्रमाणिकता और उनसे जो अर्थ वह ग्रहण करता है, उसके उस अर्थ के वास्तविक यथार्थ की परीक्षा करनी होगी न कि यह आग्रह कि अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र है, ....
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