कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 8
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'सद्दर्शनम्' के ही साथ मैंने श्री रमण महर्षि विरचित संस्कृत ग्रन्थ 'उपदेश-सार' के उस अनुवाद को भी 'एडिट' किया था जिसे ज्योतिर्मठ के श्री स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने ही किया था। उसे उज्जैन में ही मुद्रित किया गया था, लेकिन न तो वह संस्करण (मुद्रण और कागज़) स्तरीय कोटि का था, न उसकी कोई प्रति मेरे पास बची।
फिर मैंने इन दो पुस्तकों के श्री ए.आर.नटराजन् (श्री रमन महर्षि सेंटर फॉर लर्निंग, बैंगलोर ) द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर उन्हें हिंदी में प्रस्तुत किया। जिसे श्री रमन महर्षि सेंटर फॉर लर्निंग, बैंगलोर ने अत्यन्त प्रसन्नता से प्रकाशित किया। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि पूज्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वतीजी के प्रति मेरे हृदय में कितना आदर और सम्मान है।
कल जब शिर्डी के साईं बाबा के प्रति उनके उद्गार अख़बार में पढ़े तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। मैं महसूस कर सकता हूँ, कि सनातन धर्म के शीर्षस्थ पद पर रह चुके व्यक्ति के लिए यह सब कहना कितना कठिन रहा होगा। वे कल या आज भी शायद न भी कहते, तो कोई फ़र्क न पड़ता। शायद वे आज से पचास वर्ष पहले कहते तो बहुत फ़र्क पड़ सकता था। शायद जो समय उन्होंने चुना, वह उपयुक्त न हो। किन्तु उन्होंने सनातन धर्म के हित को ध्यान में रखकर ही कहने की आवश्यकता अनुभव की होगी। मुझे नहीं लगता कि उनका साईं बाबा से या उनके भक्तों / माननेवालों से कोई द्वेष / विरोध है। किन्तु सनातन धर्म के प्रति उनकी चिंता के औचित्य से इंकार नहीं किया जा सकता। मैं इस प्रसंग को इसी परिप्रेक्ष्य में देखता हूँ।
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पुनश्च :
आज इस विषय में पढ़ने को मिला,
'नईदुनिया' इंदौर, गुरुवार पृष्ठ 08 पर प्रकाशित,
अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र
डॉ. अखिलेश बार्चे
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा साईं बाबा के संदर्भ में दिए गए बयानों की बहुत चर्चा है एवं उनका पुतला जलाकर इसका विरोध भी हो रहा है। यदि स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती साईं बाबा को अवतार नहीं मानने या उनके मंदिर नहीं बनाने की बात कहते हैं तो उन्हें ऐसी राय व्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता। उनके अपने तर्क हैं। उनका अपना मत है। हम उनसे सहमत हों या न हों, यह अलग बात है। लेकिन यदि वे आग्रह करते हैं कि साईं बाबा को मानने वाले लोग राम की पूजा न करें, राम के साथ साईं का नाम नहीं जोड़ें, गंगा में स्नान नहीं करें तो यह उपयुक्त नहीं लगता। श्रद्धा या भक्ति का मामला व्यक्ति की स्वयं की सोच और आस्था का नतीजा होता है। हमारे देश में व्यक्ति-पूजा का चलन युगों से रहा है। हालांकि एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि धर्म के मामले में कई बार श्रद्धा अंधश्रद्धा बनी और इसकी आड़ में भोले-भाले श्रद्धालुजन मठाधीशों के शोषण का शिकार भी हुए। यह भी देखा गया है कि हिंदू धर्म से जुड़े देवी-देवताओं, साधु-संतों, मंदिरों में कोई भी अपना हस्तक्षेप कर देता है, नया पंथ चालू कर देता है, मंदिर या धर्म-स्थल बना लेता है। स्वामीजी ने यदि कोई बात कही है तो उसका तर्कसंगत उत्तर दिया जाना चाहिए, न कि पुतले जलाने जैसी अतिवादी कार्रवाई की जानी चाहिए। तथ्य यह भी है कि जब भी कोई व्यक्ति यथास्थिति से हटकर कुछ बोलने का साहस करता है, तो उसे तुरंत विवादस्पद ठहरा दिया जाता है। (प्राध्यापक)
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इस संतुलित टिप्पणी के लिए धन्यवाद अखिलेश जी ! प्रासंगिक प्रतीत होने से बिना पूर्व अनुमति लिए इसे अपने ब्लॉग में प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है आपको इस पर आपत्ति नहीं होगी।
सादर,
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'सद्दर्शनम्' के ही साथ मैंने श्री रमण महर्षि विरचित संस्कृत ग्रन्थ 'उपदेश-सार' के उस अनुवाद को भी 'एडिट' किया था जिसे ज्योतिर्मठ के श्री स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वती ने ही किया था। उसे उज्जैन में ही मुद्रित किया गया था, लेकिन न तो वह संस्करण (मुद्रण और कागज़) स्तरीय कोटि का था, न उसकी कोई प्रति मेरे पास बची।
फिर मैंने इन दो पुस्तकों के श्री ए.आर.नटराजन् (श्री रमन महर्षि सेंटर फॉर लर्निंग, बैंगलोर ) द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर उन्हें हिंदी में प्रस्तुत किया। जिसे श्री रमन महर्षि सेंटर फॉर लर्निंग, बैंगलोर ने अत्यन्त प्रसन्नता से प्रकाशित किया। यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि पूज्य स्वामी स्वरूपानंद जी सरस्वतीजी के प्रति मेरे हृदय में कितना आदर और सम्मान है।
कल जब शिर्डी के साईं बाबा के प्रति उनके उद्गार अख़बार में पढ़े तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। मैं महसूस कर सकता हूँ, कि सनातन धर्म के शीर्षस्थ पद पर रह चुके व्यक्ति के लिए यह सब कहना कितना कठिन रहा होगा। वे कल या आज भी शायद न भी कहते, तो कोई फ़र्क न पड़ता। शायद वे आज से पचास वर्ष पहले कहते तो बहुत फ़र्क पड़ सकता था। शायद जो समय उन्होंने चुना, वह उपयुक्त न हो। किन्तु उन्होंने सनातन धर्म के हित को ध्यान में रखकर ही कहने की आवश्यकता अनुभव की होगी। मुझे नहीं लगता कि उनका साईं बाबा से या उनके भक्तों / माननेवालों से कोई द्वेष / विरोध है। किन्तु सनातन धर्म के प्रति उनकी चिंता के औचित्य से इंकार नहीं किया जा सकता। मैं इस प्रसंग को इसी परिप्रेक्ष्य में देखता हूँ।
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पुनश्च :
आज इस विषय में पढ़ने को मिला,
'नईदुनिया' इंदौर, गुरुवार पृष्ठ 08 पर प्रकाशित,
अपनी आस्था के प्रति हर व्यक्ति स्वतंत्र
डॉ. अखिलेश बार्चे
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा साईं बाबा के संदर्भ में दिए गए बयानों की बहुत चर्चा है एवं उनका पुतला जलाकर इसका विरोध भी हो रहा है। यदि स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती साईं बाबा को अवतार नहीं मानने या उनके मंदिर नहीं बनाने की बात कहते हैं तो उन्हें ऐसी राय व्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता। उनके अपने तर्क हैं। उनका अपना मत है। हम उनसे सहमत हों या न हों, यह अलग बात है। लेकिन यदि वे आग्रह करते हैं कि साईं बाबा को मानने वाले लोग राम की पूजा न करें, राम के साथ साईं का नाम नहीं जोड़ें, गंगा में स्नान नहीं करें तो यह उपयुक्त नहीं लगता। श्रद्धा या भक्ति का मामला व्यक्ति की स्वयं की सोच और आस्था का नतीजा होता है। हमारे देश में व्यक्ति-पूजा का चलन युगों से रहा है। हालांकि एक नकारात्मक पक्ष यह भी है कि धर्म के मामले में कई बार श्रद्धा अंधश्रद्धा बनी और इसकी आड़ में भोले-भाले श्रद्धालुजन मठाधीशों के शोषण का शिकार भी हुए। यह भी देखा गया है कि हिंदू धर्म से जुड़े देवी-देवताओं, साधु-संतों, मंदिरों में कोई भी अपना हस्तक्षेप कर देता है, नया पंथ चालू कर देता है, मंदिर या धर्म-स्थल बना लेता है। स्वामीजी ने यदि कोई बात कही है तो उसका तर्कसंगत उत्तर दिया जाना चाहिए, न कि पुतले जलाने जैसी अतिवादी कार्रवाई की जानी चाहिए। तथ्य यह भी है कि जब भी कोई व्यक्ति यथास्थिति से हटकर कुछ बोलने का साहस करता है, तो उसे तुरंत विवादस्पद ठहरा दिया जाता है। (प्राध्यापक)
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इस संतुलित टिप्पणी के लिए धन्यवाद अखिलेश जी ! प्रासंगिक प्रतीत होने से बिना पूर्व अनुमति लिए इसे अपने ब्लॉग में प्रस्तुत कर रहा हूँ। आशा है आपको इस पर आपत्ति नहीं होगी।
सादर,
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