कौनपुर?
वह अंगरेज़ सैनिक घोड़े पर सवार होकर जब पहली ही बार गोमती नदी के तट पर आया था तो किसी स्थानीय निवासी से उस जगह का नाम पूछा, तो उसे जवाब मिला "कर्णपुर"। पास ही खड़े दूसरे उसके स्थानीय मित्र ने कौतूहलमिश्रित आश्चर्य से उसे देखा और मित्र से बोला :
"कानपुर?!"
अंगरेज़ वैसे चालाक और चतुर भी था। उसने पेन्सिल से डायरी में नोट किया :
"COWNPORE".
"हाँ भाई, हम इस जगह को "कानैपुर" तो कहते हैं!"
यह सुनकर मित्र चुप हो गया किन्तु जब उसने अंगरेज़ की डायरी में लिखा "COWNPORE" शब्द पढ़ा तो उसका आश्चर्यमिश्रित कौतूहल और बढ़ गया। उसने सोचा - "इस विदेशी ने क्या लिखा?"
उसने उंगली के इशारे से डायरी पर लिखे शब्द को इंगित करते हुए उससे प्रश्नवाचक दृष्टि से, इशारे से ही पूछा कि उसने क्या लिखा है?
तब अंगरेज़ ने गोमती नदी के तट पर चर रही गायों की ओर इशारा कर कहा : कॉऊ!
भारतीय ने चकित होकर अपने मित्र से कहा : "कोऊ!?"
अंगरेज़ तो चला गया किन्तु वे दोनों मित्र आपस में बातें करने लगे। जो थोड़ा जानकार था, और संस्कृत के साथ थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी वह जान समझ लेता था। उसने उसे समझाया : ये लोग नहीं जानते कि संस्कृत में नदी, वाणी, और बुद्धि को भी "गौ" कहते हैं। हमारे सामने यह जो नदी बह रही है उसका नाम "गोमती" है। यह नाम दो शब्दों गो और मति से बना है। और "मति" शब्द द्विवचन में "मती" हो जाता है। मति अर्थात् बुद्धि। मित्र ने कहा : ये लोग गौ को कॉऊ बोलते हैं! और बकरी को "गोट" या "गौट"। उन्हें यह भी पता है कि गौ और बकरी भी हमारे लिए ईश्वर या देवता है। और यह उस समय से चला आ रहा है जब इंगलिस्तान से ऋषि शौनक यहाँ आए थे। वे यूरोप में जाने माने विद्वान थे और ज्ञान की खोज और प्रचार प्रसार में संलग्न थे। उनकी बहुत बड़ी पाठशाला थी जिसमें सैकड़ों छात्र लौकिक शिक्षा प्राप्त करते थे।
(तब से इनके द्वारा "भगवान" या "ईश्वर" के लिए Gott या God शब्द इस्तेमाल किया जाने लगा।)
ऋषि अङ्गिरा से उन्होंने विधिवत् दीक्षा प्राप्त कर लेने के बाद अपने देश को ऋषि अङ्गिरा के नाम से आँग्र कहना प्रारंभ किया और वही धीरे धीरे आँग्ल की तरह प्रचलित हो गया। यूरोप के ही समीपवर्ती एक देश का नाम "रोम" था जिसे ऋषि लोमश ने बसाया था। रोम का एक और प्राचीन नाम था - इतालिया, जो संस्कृत "इत् अल् ईया" का अपभ्रंश था। कहना न होगा कि यूरोप मूलतः आर्योप ही कहलाता था, और वहाँ भी ज्ञान की खोज और प्रचार प्रसार करनेवाले ऋषि तपस्वी और जिज्ञासु हुआ करते थे। एक ऋषि ने श्रीलिपि / शारदा लिपि / ब्राह्मी लिपि को कुछ रूपान्तरित कर कोई लिपि निर्मित की, और उस लिपि और उस ऋषि का नाम भी अपभ्रंश के रूप में कालान्तर में "सिरिल" की तरह प्रचलित हो गया। और ज्ञान और वेद की उस धारा को, जिसे वेदिकम् या वैदिकं भी कहा जाता था, कठोलिकों ने दुर्भाग्यवश वैटिकन का नाम दिया। ये कठोलिक वही थे जो काठकोपनिषद् या कठोपनिषद् की परंपरा के वैदिक ऋषि ही थे। "सिरिल" / Cyril ने जिस लिपि का आविष्कार किया था उसके और उसके ऋषि (ज्ञान की खोज, अध्ययन, और प्रचार प्रसार करनेवाला) होने के आधार पर उसे और उसकी भाषा को "रूसी"/ "ऋषिकीय" / Русский नाम प्राप्त हुआ। इन सभी ने बाद में अपनी नई परंपरा और रीति रिवाज स्थापित किए जिनमें "सन्तों" को Saint कहा जाने लगा। यहूदियों द्वारा दण्डित और बहिष्कृत किए गए एक व्यक्ति की कहानी को आधार बनाया और उसे "ईशपुत्र" कहकर उसकी बड़ाई की गई। और ईसाई बाइबिल तथा मत की "रचना" की गई। और तब से ही इन तीनों परंपराओं में तथाकथित एकेश्वरवाद, एक ही ईश्वर है इस मत के आग्रह तथा मूर्तिपूजा को पाप कहे जाने के बारे में सहमति है, और इसलिए इन परंपराओं ने राजनैतिक सत्ता संघर्ष का रूप ले लिया है।
इसी ब्लॉग में या मेरे "स्वाध्याय" ब्लॉग में "हातिमताई" नाम के कल्पित चरित्र के आधार पर "कापालिकों" की परंपरा का वर्णन भी किया गया है।
इस पोस्ट को लिखने का प्रयोजन यही है कि "सनातन" / "धर्म" जो पूरी पृथ्वी पर व्याप्त सबका नैसर्गिक और स्वाभाविक ईश्वरीय विधान होने पर उस तरह से सर्वत्र ही सदा से प्रचलित था और जो सदा ही रहनेवाला लौकिक, पारमार्थिक सत्य है, किस प्रकार से विभिन्न और विपरीत परंपराओं (religions) के रूप में बदल गया और इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिणाम आज के समय में संपूर्ण मानवता को झेलने पड़ रहे हैं।
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