April 29, 2025

COWNPORE

कौनपुर?

वह अंगरेज़ सैनिक घोड़े पर सवार होकर जब पहली ही बार गोमती नदी के तट पर आया था तो किसी स्थानीय निवासी से उस जगह का नाम पूछा, तो उसे जवाब मिला "कर्णपुर"। पास ही खड़े दूसरे उसके स्थानीय मित्र ने कौतूहलमिश्रित आश्चर्य से उसे देखा और मित्र से बोला :

"कानपुर?!"

अंगरेज़ वैसे चालाक और चतुर भी था। उसने पेन्सिल से डायरी में नोट किया :

"COWNPORE".

"हाँ भाई, हम इस जगह को "कानैपुर" तो कहते हैं!"

यह सुनकर मित्र चुप हो गया किन्तु जब उसने अंगरेज़ की डायरी में लिखा "COWNPORE" शब्द पढ़ा तो उसका आश्चर्यमिश्रित कौतूहल और बढ़ गया। उसने सोचा - "इस विदेशी ने क्या लिखा?"

उसने उंगली के इशारे से डायरी पर लिखे शब्द को इंगित करते हुए उससे प्रश्नवाचक दृष्टि से, इशारे से ही पूछा कि उसने क्या लिखा है?

तब अंगरेज़ ने गोमती नदी के तट पर चर रही गायों की ओर इशारा कर कहा : कॉऊ!

भारतीय ने चकित होकर अपने मित्र से कहा : "कोऊ!?"

अंगरेज़ तो चला गया किन्तु वे दोनों मित्र आपस में बातें करने लगे। जो थोड़ा जानकार था, और संस्कृत के साथ थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी वह जान समझ लेता था। उसने उसे समझाया : ये लोग नहीं जानते कि संस्कृत में नदी,  वाणी, और बुद्धि को भी "गौ" कहते हैं। हमारे सामने यह जो नदी बह रही है उसका नाम "गोमती" है। यह नाम दो शब्दों गो और मति से बना है। और "मति" शब्द द्विवचन में "मती" हो जाता है। मति अर्थात् बुद्धि। मित्र ने कहा : ये लोग गौ को कॉऊ बोलते हैं! और बकरी को "गोट" या "गौट"। उन्हें यह भी पता है कि गौ और बकरी भी हमारे लिए ईश्वर या देवता है। और यह उस समय से चला आ रहा है जब इंगलिस्तान से ऋषि शौनक यहाँ आए थे। वे यूरोप में जाने माने विद्वान थे और ज्ञान की खोज और प्रचार प्रसार में संलग्न थे। उनकी बहुत बड़ी पाठशाला थी जिसमें सैकड़ों छात्र लौकिक शिक्षा प्राप्त करते थे।

(तब से इनके द्वारा "भगवान" या "ईश्वर" के लिए  Gott या God शब्द इस्तेमाल किया जाने लगा।)  

ऋषि अङ्गिरा से उन्होंने विधिवत् दीक्षा प्राप्त कर लेने के बाद अपने देश को ऋषि अङ्गिरा के नाम से आँग्र कहना प्रारंभ किया और वही धीरे धीरे आँग्ल की तरह प्रचलित हो गया। यूरोप के ही समीपवर्ती एक देश का नाम "रोम" था जिसे ऋषि लोमश ने बसाया था। रोम का एक और प्राचीन नाम था - इतालिया, जो संस्कृत "इत् अल् ईया" का अपभ्रंश था। कहना न होगा कि यूरोप मूलतः आर्योप ही कहलाता था, और वहाँ भी ज्ञान की खोज और प्रचार प्रसार करनेवाले ऋषि तपस्वी और जिज्ञासु हुआ करते थे। एक ऋषि ने श्रीलिपि / शारदा लिपि / ब्राह्मी लिपि को कुछ रूपान्तरित कर कोई लिपि निर्मित की, और उस लिपि और उस ऋषि का नाम भी अपभ्रंश के रूप में कालान्तर में "सिरिल" की तरह प्रचलित हो गया। और ज्ञान और वेद की उस धारा को, जिसे वेदिकम् या वैदिकं भी कहा जाता था, कठोलिकों ने दुर्भाग्यवश वैटिकन का नाम दिया। ये कठोलिक वही थे जो काठकोपनिषद् या कठोपनिषद् की परंपरा के वैदिक ऋषि ही थे। "सिरिल" / Cyril ने जिस लिपि का आविष्कार किया था उसके और उसके ऋषि (ज्ञान की खोज, अध्ययन, और प्रचार प्रसार करनेवाला) होने के आधार पर उसे और उसकी भाषा को "रूसी"/ "ऋषिकीय" / Русский  नाम प्राप्त हुआ। इन सभी ने बाद में अपनी नई परंपरा और रीति रिवाज स्थापित किए जिनमें "सन्तों" को  Saint  कहा जाने लगा। यहूदियों द्वारा दण्डित और बहिष्कृत किए गए एक व्यक्ति की कहानी को आधार बनाया और उसे "ईशपुत्र" कहकर उसकी बड़ाई की गई। और ईसाई बाइबिल तथा मत की "रचना" की गई। और तब से ही इन तीनों परंपराओं में तथाकथित एकेश्वरवाद, एक ही ईश्वर है इस मत के आग्रह तथा मूर्तिपूजा को पाप कहे जाने के बारे में सहमति है, और इसलिए इन परंपराओं ने राजनैतिक सत्ता संघर्ष का रूप ले लिया है।

इसी ब्लॉग में या मेरे "स्वाध्याय" ब्लॉग में "हातिमताई" नाम के कल्पित चरित्र के आधार पर "कापालिकों" की परंपरा का वर्णन भी किया गया है।

इस पोस्ट को लिखने का प्रयोजन यही है कि "सनातन" / "धर्म" जो पूरी पृथ्वी पर व्याप्त सबका नैसर्गिक और स्वाभाविक ईश्वरीय विधान होने पर उस तरह से सर्वत्र ही सदा से प्रचलित था और जो सदा ही रहनेवाला लौकिक, पारमार्थिक सत्य है, किस प्रकार से विभिन्न और विपरीत परंपराओं (religions) के रूप में बदल गया और इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिणाम आज के समय में संपूर्ण मानवता को झेलने पड़ रहे हैं।

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April 25, 2025

A K and A I

Question  प्रश्न 116

What Is Thinking?

"सोचना"  क्या है?

संचित ज्ञान और कृत्रिम ज्ञान

Acquired Knowledge  and:

Artificial Intelligence.

"सोचना" भाषा पर आधारित कार्य होता है।

मनुष्य के मस्तिष्क में सोचना "होता" है, जबकि मनुष्य से भिन्न प्रकार के किसी जीव का मस्तिष्क में "सोचना" होता है या नहीं, इस पर ध्यान दें तो समझा जा सकता है कि सोचना यद्यपि भाषा पर निर्भर एक कार्य या प्रक्रिया ही है किन्तु किसी न किसी "संचित ज्ञान" की संरचना और उस विशेष प्रणाली पर ही आश्रित हुआ करता है, जिसे कि "स्मृति" कहा जाता है।

उदाहरण के लिए किसी अत्यन्त सरल साधारण "घटना" की "स्मृति"। जैसे पेड़ से फल का टूटकर गिरना। वैसे तो पेड़ की शाखाएँ या पत्तियाँ आदि भी टूटकर गिरती रहती हैं, लेकिन पत्तियाँ हवा के जोर से इधर उधर बिखर भी सकती हैं, और उसे "गिरना" नहीं कहा जा सकता। वैसे ही किसी पक्षी का हवा में उड़ना भी ऐसी किसी घटना का एक उदाहरण हो सकता है। किसी "घटना" के होने का मुख्य तत्व है "कालक्रम" और उसके साथ बदलती हुई स्थितियाँ। स्थितियों के बदलते क्रम से "कालक्रम" का अनुमान किया जाता है या "कालक्रम" की गति और प्रकार के अनुसार किसी कार्य या प्रक्रिया के होने और बदलने का अनुमान किया जाना संभव होता है, यह तय नहीं है। वैसे दोनों सहवर्ती होते हैं यह तो स्पष्ट ही है। तो, मनुष्येतर प्राणी किसी भी छोटी से छोटी एक "घटना" या अपेक्षाकृत बड़ी अनेक "घटनाओं" के अनुभव को क्रमबद्घ कर किसी "घटना" की "स्मृति" और ऐसी ही अनेक स्मृतियों के क्रम की पहचान स्थापित कर उस आधार पर एक भाषा निर्मित कर सके / सकते होंगे यह कहा जा सकता है। और शायद आदिम मनुष्य भी ऐसी ही "भाषा" का प्रयोग करता रहा होगा। इसी प्रकार से भिन्न भिन्न "संकेतों" को "घटना-विशेष" की तरह से परिभाषित कर उनके सार्थक तात्पर्य को संयोजित किए जाने से कोई "भाषा" बनती होगी जिसे प्रारंभ में सभी प्राणी अनायास सीख और विकसित कर लेते हैं और फिर उसे विस्तार देकर / समृद्ध कर उस "भाषा" में "सोचने" का कार्य करने लगते हैं। क्या मानव निर्मित कंप्यूटर इसका ही प्रत्यक्ष उदाहरण नहीं है! क्या इसे भी गणना करने और सोचने के लिए किसी "भाषा" का ही सहारा नहीं लेना होता है? सिद्धान्ततः, क्या इस प्रकार की असंख्य "भाषाएँ" नहीं विकसित की जा सकती हैं? क्या इस प्रकार से "सोचना" वस्तुतः "संचित ज्ञान" पर आश्रित कार्य ही नहीं होता? इसलिए जब कोई (मनुष्य) "सोचता" है, अर्थात् जब उसके मस्तिष्क में कोई कार्य घटित होता है, तो क्या यह कार्य भी "संचित ज्ञान" पर आश्रित एक कार्य नहीं होता? क्या इस तरह के किसी कार्य का होना एक स्वचालित या प्राकृतिक प्रक्रिया ही नहीं होता? और क्या ऐसी किसी वस्तु के अस्तित्व का कोई प्रमाण हो सकता है जो इस प्रक्रिया को "घटित" करता हो? क्या किसी कंप्यूटर या सोचनेवाली मशीन, जैसे किसी रोबोट में भी ऐसा कोई "संचालनकर्ता" या monitor  होता है? तो क्या यह अनुमान किया जाना संभव है कि किसी भी प्राणी या मनुष्य में भी ऐसा कोई "संचालनकर्ता" होता होगा? और यदि ऐसा "कोई" होता भी हो तो क्या "जैव-प्रणाली" में ही वह एक उप उत्पाद (by-product) के रूप में घटित एक कल्पना ही नहीं होता होगा? 

इस "सोचने" से यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि किसी भी जीव या मनुष्य में "सोचना" यद्यपि एक नितान्त स्वसंचालित प्राकृतिक कार्य ही होता है, किन्तु  जिसके एक "उप उत्पाद" / by-product के रूप में "स्वयं" को उस कार्य का करनेवाला मान लिया जाता है। क्या इस पूरी घटना को श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय तीन के निम्नलिखित श्लोक 

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। 

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

के परिप्रेक्ष्य में देखने पर यही स्पष्ट नहीं हो जाता है, कि किसी भी कार्य का होना एक प्राकृतिक कार्य है जो कि प्रकृति के गुणों के माध्यम से -

through the attributes of nature

ही घटित होता है और उसे संचालित करनेवाला प्रकृति से पृथक् और भिन्न किसी और स्वतंत्र संचालनकर्ता के अस्तित्व की कल्पना एक असंगत और मिथ्या विचार ही है, न कि वास्तविकता।

प्रकृति के तीन गुणों - 

क्रमशः सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। और उनका ही अध्ययन भौतिक विज्ञान Physics  के अन्तर्गत  क्रमशः  potential, kinetic and inertia  या  light, energy and matter  इन तीन आधारभूत तत्वों के  रूप में और उस आधार पर किया जाता है। 

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April 23, 2025

The Real Yogi?

पञ्चवटी

पञ्चवटी की छाया में है,

सुन्दर पर्णकुटीर बना। 

जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर,

धीर वीर निर्भीक-मना।

जाग रहा यह कौन धनुर्धर,

जबकि भुवन भर सोता है।

भोगी कुसुमायुध योगी सा,

बना दृष्टिगत होता है।।

(मैथिलीशरण गुप्त : पञ्चवटी)

April 22, 2025

Who is Your God?

कौन है आपका ईश्वर?

ऋषि शौनक ने अपने लिए यह उपनाम शायद इसलिए चुना क्योंकि इसकी प्रेरणा उन्हें अपने पारमार्थिक सत्य की खोज में संलग्न रहते हुए जिस श्लोक से प्राप्त हुई, वह एक नीतिवाक्य :

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे हस्तिनि गवि। 

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।

इस प्रकार से था। शायद इस वाक्य का उल्लेख बाद में श्रीमद्भगवद्गीता में महर्षि वेदव्यास ने किया होगा। चूँकि वैदिक ज्ञान सनातन शाश्वत् और नित्य है इसलिए ऋषि किसी वैदिक वचन या उक्ति के अपने द्वारा रचित किए जाने के भ्रम से ग्रस्त नहीं होते।

मुण्डकोपनिषद् के प्रारंभिक छः सात मंत्रों में उल्लेख है कि वही ऋषि शौनक महाशाल, जो किसी विश्वविख्यात विश्वविद्यालय का संचालन करते थे, अपने विश्वविद्यालय में समस्त लौकिक और भौतिक ज्ञान अपने शिष्यों को दिया करते थे। विधिवत् ऋषि अङ्गिरा / अङ्गिरस् के पास समिधा हाथों में लिए दीक्षा प्राप्त करने की कामना और अभिलाषा से पहुँचे और उनसे प्रश्न किया :

भगवन् वह (विद्या) क्या है जिसकी शिक्षा प्राप्त करने से, जिसे जान लेने से समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है?

तब महर्षि अङ्गिरा ने उनसे कहा :

समस्त विद्याएँ दो ही प्रकार की होती हैं अपरा और परा। अपरा विद्या वह है जिसे सीख लेने पर समस्त लौकिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है जैसे वेद, पुराण, ज्योतिष, व्याकरण, इतिहास आदि। दूसरी ओर, परा विद्या वह है जिसे ब्रह्मविद्या कहते हैं। 'परा' शब्द का अर्थ बौद्धिक या जिसे स्मृति में संचित किया जा सकता है वह जानकारी नहीं, बल्कि वह उपाय है जिसके माध्यम से पारमार्थिक सत्य का बोध प्राप्त किया जा सकता है।

जब ऋषि शौनक महाशाल पश्चिम से पूर्व की दिशा में लौटे और इस प्रकार ऋषि अङ्गिरा से उन्होंने विधिवत् उनसे दीक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की तब ऋषि अङ्गिरा ने उनसे प्रश्न किया  :

"वत्स! तुम्हारा गोत्र क्या है?"

तब ऋषि शौनक ने कहा :

"भगवन् मेरा प्रचलित लौकिक नाम महाशाल है, क्योंकि यह मेरी कुल परंपरा से मुझे प्राप्त हुआ है। और मेरे कुल की परंपरा में ऋषि श्वान प्रथम थे, जिन्हें उनका यह नाम  वात्सल्य और प्रेम से उनके द्वारा पाले गए श्वान के एक शावक के उनके साथ रहने से मिला था, और इसलिए मुझे भी पर्याय से यह नाम प्राप्त हो गया।

यही मेरा गोत्र है।"

तब ऋषि अङ्गिरा ने उन्हें कहा :

"वत्स! मनुष्य लोक में जन्म लेनेवाले समस्त मनुष्यों के दो ही गोत्र होते हैं - वे हैं ब्रह्मा की चार मानसिक संतानों और सात ऋषियों की संतानों से होनेवाले समस्त वैदिक गोत्र, तथा इनसे भिन्न क्षत्रिय कुल-विशेष में उत्पन्न अन्य सभी। इन्हें ही द्विज कहा जाता है।

क्षत्रिय कुल विशेष में उत्पन्न वाजश्रवा, उशनस् आदि ऋषि, भृगु की परंपरा में होने से भार्गव कहे जाते हैं और ये काठकीय परम्परा अर्थात् कठोपनिषद् की शिक्षाओं का अनुशीलन करते हैं। और शौनक भी इसी परम्परा में हैं। इनसे भिन्न दूसरे अर्थात् वैदिक परम्परा के छान्दोग्य उपनिषद् की परम्परा के हैं इसलिए यजुर्वेद के अनुसार यजन करनेवाले। 

अंग्रेजी शब्द "God", तथा ग्रीक और जर्मन भाषाओं में प्रयुक्त "Gott" का उद्भव भी मूलतः संस्कृत "गोत्र" से ही हुआ है। कालान्तर में इसे "ईश्वर" की तरह और उस अर्थ में भी ग्रहण किया जाने लगा।

इससे बहुत बाद में यह प्रश्न  उत्पन्न हुआ -

ईश्वर है या नहीं?, या 

ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं? 

और इस प्रकार 'ईश्वर' के अस्तित्व को माननेवाले और न माननेवाले, इस प्रकार के दो मत बाद प्रचलित हो गए। इन दोनों मतों के माननेवालों को क्रमशः आस्तिक और नास्तिक कहा जाने लगा। 

आस्तिक अर्थात् ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करनेवालों में पुनः यह प्रश्न पूछा गया :

'ईश्वर' एक है या अनेक?

इस प्रश्न के उत्तर में आस्तिकों में पुनः दो प्रकार के मत, और उनके मतावलम्बी दो वर्गों में बँट गए।

इस प्रकार आस्तिक एकेश्वरवाद और वैदिक एकेश्वरवाद  को भ्रमवश भिन्न भिन्न मान लिया गया, जबकि वस्तुतः वे दोनों एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं।

वैदिक एकेश्वरवाद में उसी एवमेव अद्वितीय पारमार्थिक सत्ता को आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक इन तीन रूपों में ग्रहण किया जाने पर वैदिक देवताओं के अस्तित्व की मान्यता स्थापित हुई, जिसका प्रयोजन और अर्थ है उस एकमेव अद्वितीय परमेश्वर की उपासना इन तीनों ही स्तरों पर की जा सकना।

चूँकि यज्ञ के माध्यम से ही उन देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है जिससे संतुष्ट होने पर वे मनुष्यों को उनके इष्टभोगों की प्राप्ति करने में सहायक होते हैं और जो भी उन्हें, उन देवताओं को प्रसन्न किए बिना उनकी सहायता से प्राप्त हुए उन इष्टभोगों का अनधिकृत रूप से उपभोग करता है, वह ईश्वरीय विधान का उल्लंघन करता है, पाप का भागी होता है और नियत समय तक नरक में रहने के लिए बाध्य होता है। वेदसम्मत ईश्वरीय विधान का पालन करना सभी का स्वाभाविक परम आवश्यक कर्तव्य है।

इस प्रकार :

ईश्वर क्या है? 

इस मौलिक प्रश्न की उपेक्षा कर 

ईश्वर है या नहीं?

ईश्वर एक है अनेक? 

जैसे कृत्रिम प्रश्नों को अधिक और अनावश्यक महत्व दिया गया जिससे मनुष्यमात्र का न केवल बहुत अहित ही हुआ बल्कि मनुष्यों के बीच परस्पर मतभेद, ईर्ष्या द्वेष और वैमनस्य भी पैदा हुआ। मताग्रह विशेष के प्रति कट्टरता और दूसरे मतावलम्बियों के प्रति असहिष्णुता का ही परिणाम है आज के संसार की अराजकता और अशान्ति, हिंसात्मक उपद्रव और बढ़ता असन्तोष। 

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April 19, 2025

The Alternative.

विकल्पवाद 

सोचना / न-सोचना

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जब मैं बैंक में कार्य किया करता था, तब मेरे एक सहकर्मी थे, जिनसे मेरा जुड़ाव हो गया था। 'जुड़ाव' इसलिए, कि बाकी सारे लोगों से मेरा बस औपचारिक परिचय भर था। जबकि उनसे किसी हद तक सगे छोटे भाई जैसी आत्मीयता थी। वे उम्र में मुझसे पाँच वर्ष छोटे थे किन्तु 'अधिकार' में वे मुझसे बराबर ही थे। इसलिए कभी कभी अपनी हद से बाहर जाकर भी मुझे कुछ ऐसा कह देते थे, जो मुझे अच्छा तो नहीं लगता था पर जिसे मैं हँसकर टाल दिया करता था। 

ऐसे ही एक दिन अचानक बोल पड़े :

"विनय! तुम सोचते क्यों नहीं!"

और फिर उन्हें अहसास हुआ मानों कि उन्होंने मुझ पर ऐसा कुछ अद्भुत् प्रहार किया है, जिसका कोई जवाब ही मेरे पास नहीं हो! जवाब, मैंने दिया भी नहीं।

उनका आशय यह था कि मुझमें सोचने की शक्ति का ही अभाव है। या शायद यह भी कि मैं अत्यन्त मूर्ख व्यक्ति हूँ।

उनकी इस बात का तत्काल कोई जवाब मुझे सूझा भी नहीं, तो वे विजयी भाव से मुस्कुरा रहे थे। 

उस दिन चूँकि शनिवार था, बैंक का कार्य आधे समय तक ही हुआ और मैं और वह, हम दोनों साथ साथ बैंक से बाहर निकले।

पैदल घर तक लौटने में हमें करीब दस से पन्द्रह मिनट लगते थे।

"तुम क्या सोचते हो?"

मैंने उनसे पूछा।

उन्हें आभास हो चुका था कि मेरा यह प्रश्न दोपहर में उनके द्वारा पूछे गए सवाल के प्रत्युत्तर में पूछा गया था।

"मेरा काम तो सोच विचार किए बिना चल ही नहीं सकता है!"

उन्होंने सपाट उत्तर दिया।

"क्या तुम सोचते हो!?"

मैंने एक प्रश्न और दाग दिया।

वे सतर्क हो गए। प्रकटतः बोले -

"मतलब?"

"तुम सोचते हो, या तुम्हारा मस्तिष्क?"

"मैं और मेरा मस्तिष्क एक ही चीज है!"

"यह तुम सोच रहे हो, या मस्तिष्क? क्या कभी कभी ऐसा भी नहीं हुआ करता, जब न चाहते हुए भी कुछ वैसा सोचने के लिए मजबूर हो जाते हो, या बहुत जरूरी होने पर भी तुम्हारे लिए कुछ सोच पाना तक संभव नहीं हो पाता है?"

"मतलब?"

"मतलब यह कि दर-असल न तो तुम कुछ सोचते हो, और न कुछ सोच ही सकते हो। यह सिर्फ तुम्हारा कोरा भ्रम ही है कि तुम सोचते हो!"

"और अपने बारे में क्या कहोगे?"

"वह तो तुम पूछ ही चुके हो!"

"क्या?"

"विनय! तुम सोचते क्यों नहीं?"

वे कुछ नहीं बोले। बस हैरत से मुझे देखते रहे। कुछ देर चुप रहकर बोले -

"हाँ तुम ठीक ही कह रहे हो! सचमुच कोई भी दर-असल कुछ नहीं सोचता, और न ही सोच सकता है। हर किसी के मस्तिष्क में केवल, बस विचार या खयाल ही आया जाया करते हैं और उसे -

"मैं सोचता हूँ / मैं नहीं सोचता / मुझे नहीं सोचना है / मुझे सोचना चाहिए / मैं सोच रहा हूँ / मैं सोच रहा था ..."

यह गलतफहमी हो जाया करती है।"

उसके बाद कुछ नहीं है।

बाद में बहुत समय तक हम एक ही बैंक में कार्य करते रहे। हालाँकि हमारे कार्यस्थल अब अलग अलग और बहुत दूर दूर हो गए थे। फिर उसने शादी कर ली। उसकी पत्नी भी इसी बैंक में कार्य करती थी।

तब से अब तक हमारी कभी मुलाकात ही न हुई। शायद उसने, और मैंने भी मिलने की कोई कोशिश भी कभी नहीं की।

शायद यही वह वजह थी जिसके कारण हमारे बीच एक ऐसा "जुड़ाव" था जो कि कभी किसी दूसरे से न हो सका। 

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Urge or Grace?

What Precedes What?

कृपा या भक्ति?

अध्यात्म के जिज्ञासुओं के लिए यह जानना आवश्यक है कि जब तक संसार अनित्य, अशाश्वत, और अस्थिर है, इसलिए वस्तुतः केवल दुःखरूप ही है ऐसा प्रतीत नहीं होता, तब तक इससे छूटने / मुक्त होने की कामना अर्थात् मुमुक्षा या मोक्ष होने की कल्पना भी मन में कैसे आ सकती है!

क्योंकि तब तक शरीर और शरीर के माध्यम से प्राप्त हो सकनेवाले विविध सुखद और दुःखद दोनों ही प्रकार के भोगों को प्राप्त करने की आशा एवं आशंका भी मन में सतत पैदा होते रहेंगे। यद्यपि किसी न किसी समय शरीर के नष्ट हो जाने पर अपनी मृत्यु हो जाने की संभावना से  भी सभी पूरी तरह से अवगत होते हैं फिर भी शायद ही कोई इस पर गंभीरता से ध्यान दे सकता है। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि मृत्यु आने के समय और उस घटना पर किसी का नियंत्रण भी नहीं होता। अनुमान भी हो, तो भी निश्चय नहीं होता। डॉक्टर भी केवल अनुमान ही लगाते हैं और कभी कभी वह अनुमान सत्य भी सिद्ध हो जाते हैं। इसका यह मतलब यह कि यद्यपि मृत्यु कब आएगी हम इसका आकलन तो नहीं कर सकते किन्तु इस बारे में कोई संभावित पूर्वानुमान शायद कर सकते हैं। उदाहरण के लिए वृद्धावस्था आने या किसी असाध्य रोग से ग्रस्त हो जाने जैसी परिस्थितियाँ आने पर। या, किसी आकस्मिक दुर्घटना में ऐसा हो जाने पर। यद्यपि यह भी देखा जाता है कि जितनी अधिक सुरक्षा की जरूरत प्रायः किसी को अनुभव होती है, वह उतना ही अधिक असुरक्षित भी होता है!

अधिकांश लोग मृत्यु की इस अनिश्चितता के ही कारण किसी न किसी देवता, ईश्वर (जिसे वे अपनी आस्था के अनुसार कोई नाम भी दे दिया करते हैं) आध्यात्मिक या धार्मिक "शक्ति" पर विश्वास भी करने लगते हैं। कभी तो उनका यह विश्वास बहुत दृढ, और कभी कभी डगमगाने भी लगता है। ऐसी स्थिति में तो वे शायद इतने परिपक्व तक नहीं होते हैं कि संसार और उसकी वस्तुओं, शरीर, अनुभवों और संबंधों की क्षणभंगुरता के बारे में सोच भी सकें। मृत्यु के बाद 'अपने' बारे में उनका विश्वास उनकी आस्था के ही अनुरूप होता है और वे इसके लिए उसी आस्था के अनुरूप उनके धार्मिक और पारंपरिक कार्यों का अनुष्ठान करते हैं। प्रायः तो इस प्रश्न से हर किसी की ही बुद्धि इतनी स्तब्ध और कुंठित हो जाती है कि वह इस बारे में कुछ सोच तक नहीं पाता।  दूसरी ओर, कुछ लोग जो 'नित्य-अनित्य' पर ध्यान देकर सावधानी से इस पर सोच विचार कर सकते हैं उन्हें शीघ्र ही संसार और उसकी समस्त ही वस्तुओं, भोगों, इन्द्रियो, इन्द्रियानुभवों, संबंधों और धन संपत्ति आदि यहाँ तक कि मान्यताओं  आस्थाओं, विश्वासों, 'स्मृति' और स्मृति पर आधारित  सभी संबंधों की अनित्यता का आभास होने लगता है।यह बोध स्पष्ट हो जाता है। तब संभवतः उनमें

"यह सब (संसार) क्या है? इस सबसे अंततः ऐसा क्या पाया जा सकता है जिससे कि मृत्यु का सदा के लिए समाप्त हो जाए,"

इस प्रकार की एक गहरी जिज्ञासा पैदा हो सकती है। मृत्यु का भय समाप्त होना एक बात है और मृत्यु के बाद क्या शेष रह जाता होगा, इसे जान या समझ पाना इससे बिलकुल ही भिन्न दूसरी बात। मृत्यु के भय के कारण किसी ईश्वर को बाध्यतावश स्वीकार कर लेना और ऐसी किसी एक दिव्य सत्ता के अस्तित्व पर दृढ और अविचल आस्था होना बिलकुल भिन्न दूसरी बात है। यह भी स्पष्ट ही है कि ऐसी कोई भी आस्था भी अन्ततः 'स्मृति' पर ही आश्रित होती है और अकाट्य सत्य की तरह, यह कभी भी नहीं जाना जा सकता है कि मृत्यु होने पर 'स्मृति' का क्या होता है!

किन्तु उस दिव्य सत्ता के अस्तित्व पर दृढ और अविचल विश्वास होने पर  और क्या उसकी 'कृपा' होने पर उसके प्रति 'भक्ति' पैदा हो सकती है या उसकी 'भक्ति' करने से उसकी कृपा होती है?,

यह प्रश्न तो उठेगा ही।

ऐसी 'भक्ति' के बारे में शास्त्र कहते हैं कि उसकी 'कृपा' के बिना उसकी 'भक्ति' हो पाना भी संभव नहीं है! और 'भक्ति' के अभाव में उसकी 'कृपा' कैसे होगी, यह भी वही जाने!

तो यह एक विचित्र स्थिति है।

क्या इसका कोई सुनिश्चित उत्तर है?

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April 17, 2025

The Conjugal Love.

In The SanAtana-Dharma Perspective.

सनातन-धर्म के परिप्रेक्ष्य में दाम्पत्य-प्रेम

सनातन वैदिक धर्म की परम्परा में विवाह का उद्देश्य है वंश और वर्ण परम्परा की शुद्धता बनाए रखना। तात्पर्य है कि सुयोग्य संतान की प्राप्ति के द्वारा कुल का संवर्धन करना तो इसका प्रमुख उद्देश्य है जबकि वैवाहिक-सुख का महत्व गौण है।

वैवाहिक जीवन का प्रारंभ ब्रह्मचर्य आश्रम में 25 वर्षों तक विद्याध्ययन करते हुए बल, बुद्धि तथा आजीविका के लिए उचित व्यावसायिक दक्षता प्राप्त करने के बाद ही होना चाहिए। यह 25 वर्षों का समय केवल ब्राह्मण वर्ण के लिए निर्धारित किया गया है और अन्य वर्णों के लिए स्वैच्छिक होता है। यदि अन्य वर्ण का कोई व्यक्ति  इसके पूर्व ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहे तो यह उसकी स्वतंत्रता है। वैसे यह नियम कठोर नहीं है फिर भी एक सामान्य निर्देश के रूप में अलग अलग व्यक्तियों पर उनकी रुचि, परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार इसे स्वीकार किया जा सकता है। 

जैसा पहले कहा जा चुका है, गृहस्थ आश्रम का प्रमुख उद्देश्य तो अच्छी और सुयोग्य संतति की उत्पत्ति करने के माध्यम से कुल, वंश और समुदाय का संवर्धन करना ही है और गौण उद्देश्य यह भी है कि एक सुखी वैवाहिक जीवन का उपभोग भी संभव हो। और समाजिक जीवन में भी यह महत्वपूर्ण तो है ही क्योंकि गृहस्थ आश्रम और सामाजिक जीवन की परस्पर निर्भरता है।

एक महत्वपूर्ण प्रश्न वैवाहिक जीवन में काम-भावना के साथ साथ प्रेम के स्थान और व्यवहार का भी है ही। वह' मर्यादा क्या और कितनी है जिससे कि काम-संबंध और व्यवहार तथा प्रेम के बीच स्वस्थ संतुलन संभव हो। वैसे तो आदर्श सनातन धर्म की परम्परा में सामान्य मनुष्य के लिए एकनिष्ठता पर बल दिया जाता है जिसका अर्थ है कि किसी भी पुरुष के साथ एक ही स्त्री का विवाह हो। यही नियम स्त्री के लिए भी है कि स्त्री का एक ही पति हो। चूँकि विवाह की व्यवस्था प्रमुख रूप से अपने कुल, वंश और समाज के संवर्धन के उद्देश्य से स्थापित की गई है और यौन-सुख उससे जुड़ा हुआ गौण महत्व का तत्व है इसलिए विवाहेतर यौन-संबंध निन्दित और निषिद्ध भी है। इसी प्रकार वैवाहिक और विवाहेतर प्रेम के संबंध में भी मर्यादा सुनिश्चित की जाती है। वैवाहिक प्रेम में यौन-सुख -विचार के रूप में मानसिक चिन्तन का विषय नहीं होना चाहिए, जबकि विवाहेतर पारस्परिक संबंधों में तो  यौन-सुख पूर्णतः निषिद्ध और अकल्पनीय समझा जाना चाहिए। वस्तुतः यौन क्रियाकलाप का विषय न तो हँसी मजाक, और न निन्दा भय या घृणा के साथ देखा जाना चाहिए। हमारे समय की सबसे बड़ी विडम्बना यही तो है! बलात्कार के समाचारों पर जितना ही अधिक ध्यान दिया जाता है उतना ही परस्पर वाद-विवाद बढ़ने लगता है। किशोर आयु वर्ग के बालक बालिकाओं के मन में यौन व्यवहार के बारे में उत्सुकता होना स्वाभाविक ही है और यदि उन्हें धीरे धीरे इस प्राकृतिक प्रवृत्ति के महत्व और इससे सामञ्जस्य कैसे करें, इस संबंध में कल्पना और स्मृति के माध्यम से काम-भावना को अवांछित रीति से उद्दीप्त करने के खतरों से कैसे बचें, समय रहते इस बारे में उन्हें सतर्क और सावधान रहने के महत्व को स्पष्ट किया जाए, तो इस बारे में स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित हो सकता है। यह जानना जरूरी है कि काम-व्यवहार और परस्पर प्रेम दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न दो प्रकार की क्रमशः शारीरिक और मानसिक गतिविधियाँ हैं और उन्हें भूल से भी एक दूसरे से मिला दिया जाना अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण और अनिष्टप्रद है। 

याद आता है श्री जे कृष्णमूर्ति के  Second Penguin Krishnamurti Reader  के आखिरी दो पृष्ठ, जहाँ उन्होंने  engender  शब्द का प्रयोग किया है।मानसिक काम-चिन्तन किसी भी रूप में क्यों न हो, ऐसा दुष्चक्र बन जाता है जिससे निकलना असंभव ही होता है। 

गीता में इसे "मिथ्याचारः स उच्यते" के माध्यम से कहा गया है। समय रहते ही इस दुविधा से मुक्ति हो जाए तो ही अच्छा है। प्रायः तो होता यही है कि मनुष्य निरन्तर कल्पनाओं में तो काम-चिन्तन करता रहता है, अपराध-बोध से ग्रस्त रहने लगता है, दुराचार या अप्राकृतिक यौन संबंध में संलग्न होने लगता है और कभी कभी तो अबोध बच्चों के माध्यम से भी paedeofile बनकर भी अपनी उत्तेजनाओं को शान्त करने की चेष्टा करने लगता है। स्वयं तो विक्षिप्त, मूढ और अपराध की प्रवृत्ति का गुलाम हो जाता है, और समाज में दूसरों को भी इस जाल में फँसाने लगता है। समाज के लिए तो यह अत्यन्त ही चिन्ताजनक है। तमाम सूचना-साधन-तंत्र प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हर किशोर, अवयस्क और वयस्कों के मन में भी यह विष फैला रहे हैं। मनोरंजन के बहाने कुत्सित और वीभत्स जानकारियाँ हर किसी के ही लिए आसानी से उपलब्ध हैं। यहाँ तक कि वयोवृद्ध भी इस सबमें रस लेते रहते हैं। पढ़े लिखे, अनपढ़, सुशिक्षित और प्रसिद्धि के किसी भी क्षेत्र में बहुत ऊँचाई पर पहुँचे हुए लोग, टी वी और फिल्मों से जुड़े, आसानी से बहुत पैसा कमाने की लालसा से व्याकुल लोग, प्रसिद्धि पाने के लिए कुछ भी करने और किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार लोग। समाज इतना सड़ चुका है और पाखंड इतना स्वाभाविक हो चुका है जैसे हमारे शरीर में बहता हुआ खून। और, तथाकथित धर्मगुरु भी इसका अपवाद नहीं हैं। जो इने-गिने इस पूरे दुष्चक्र को समझ पाते हैं वे समय रहते ही इस पूरे प्रचार तंत्र से दूर हो जाते हैं।

बिरला ही कोई इससे बाहर निकल पाता है।

और चूँकि मैं भी भुक्तभोगी हूँ, तो स्वयं के दूध का धुला होने का दावा कैसे कर सकता हूँ!

और फिर दाग लगने से कोई बच भी कैसे सकता है!

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April 14, 2025

The System-Analyst.

The Anatomy, The Physiology and The Metabolism of an Organism / Organic System.

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यह पोस्ट इस ब्लॉग में लिखने का एक उद्देश्य यह भी है कि इसके पेज-व्यूज़ 199000 प्लस हो चुके हैं। जल्दी ही 200000 हो सकें।

अंग्रेजी या हिन्दी में ब्लॉगपोस्ट लिखने के अपने अपने फायदे और खामियाँ भी होती हैं, इसलिए दोनों का एक साथ प्रयोग करने से  optimization  का लाभ भी हो सकता है।

कोई व्यवस्था नॉमिनल, पर्सनल या मैटीरियल इन तीनों में से किसी एक प्रकार की हो सकती है। जैसे बही खाते लिखने के लिए खाते / account को इन तीनों में बाँट देने से मुद्रा / पैसे के एक से दूसरे में होनेवाले प्रवाह को सुनियोजित किया जा सकता है, वैसे ही व्यक्तिगत और सामूहिक संपत्ति (मुद्रा) के हस्तान्तरण को भी इस प्रकार से सुनियोजित किया जा सकता है।

किसी भी शुद्धतः भौतिक या यांत्रिक प्रणाली / व्यवस्था / System को संचालित करनेवाला उससे भिन्न ही कोई और ही होता है। दूसरी ओर, किसी जैव-प्रणाली / जैव- इकाई / organism के भीतर निहित सीमित जीवन ही उस जैव-इकाई को स्वयं ही किसी हद तक स्वतंत्र रूप से संचालित करता है, ऐसा प्रतीत होता है। जैसे अनेक छोटे-बड़े यंत्रों को सुनियोजित रीति से परस्पर संबद्ध कर एक यांत्रिक प्रणाली बनाई जाती है जिसे बनानेवाला उस प्रणाली से अलग होते हुए भी उसका संचालन करता है। किसी भी जैव-प्रणाली में उसको नियंत्रित और संचालित करनेवाला नियामक वस्तुतः उसके भीतर या बाहर होता है  कौन और कहाँ होता है इस बारे में शायद विज्ञान भी अभी ठीक ठीक कुछ नहीं कह सकता। और अगर कहें कि विज्ञान के नियम ही यह कार्य करते हैं तो यह भी तय है कि वैज्ञानिक प्रकृति के कार्यों का अवलोकन करने के  माध्यम से उन नियमों के बीच कोई सुसंगति खोजता है और उसे शाब्दिक रूप प्रदान करता है उसे 'नियम' कहा जाता है। ये नियम सार्वत्रिक और वैश्विक / universal and ubiquitous होते हैं, न कि किसी जैव-प्रणाली के अन्तर्गत सीमित, नियंत्रित और संचालित होते हैं।

इस प्रकार, ये नियम ही जैव-प्रणाली की दृष्टि से उसमें निहित और व्याप्त चेतना / consciousness होते हैं, जबकि ऐसी सभी जैव-प्रणालियों को उनमें स्थित भिन्न भिन्न प्रवृत्तियों के माध्यम से प्रेरित करनेवाला भी कोई नियम अवश्य और अपरिहार्यतः है जो उन सबमें भीतर और बाहर भी अस्तित्व में है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि

समष्टि और वैश्विक चेतना अर्थात्- Universal and collective consciousness.

ही वह एकमात्र नियम है जो चेतन / conscious  भी है, किन्तु यह नहीं कहा जा सकता है कि उसकी चेतनता / चेतना / consciousness  किसी एक जैव-प्रणाली या कुछ जैव-प्रणालियों तक ही सीमित है। वह चेतनता / चेतना अबाध और सर्वत्र व्याप्त है। चूँकि किसी एक या कुछ जैव-प्रणालियों के बनने और मिटने से उस चेतनता / चेतना की स्थिति और कार्य-क्षमता प्रभावित नहीं होती इसलिए उसे ईश्वर-चेतना या ईश्वरीय चेतना कहना गलत नहीं होगा। इस प्रकार हम ऐसे "ईश्वर" के अस्तित्व की कल्पना और अनुमान कर सकते हैं जो संपूर्ण अस्तित्व का संचालन तथा नियंत्रण भी करता है जो विभिन्न जड चेतन वस्तुओं को निर्वैयक्तिक या वैयक्तिक स्वरूप देता है और उसके ही द्वारा तय किए गए मानदण्डों के आधार पर किसी तय समय तक के लिए जीवन भी देता है। वह समय बीत जाने पर बाद में उसमें स्थित प्राण और चेतना विलीन हो जाते हैं, यद्यपि वे द्रव्य, जिनसे भौतिक शरीर और भौतिक संसार बनता है केवल रूपान्तरित भर होते हैं, नष्ट तो वे भी नहीं होते हैं। ऐसी ही किसी दूसरी, और  अन्य जैव-प्रणाली के बनने पर पुनः उसमें भी प्राण और चेतना का आविर्भाव होता है, लेकिन यह नहीं पता है कि क्या यह किसी जैव-प्रणाली के पुनर्जन्म हो सकता है या नहीं।

ऐसी ही असंख्य जैव-प्रणालियों के सामूहिक जीवन पर, और उनके बीच की आपसी क्रिया-प्रतिक्रिया पर ध्यान दें तो यह संपूर्ण संसार भी इसी तरह से, अपने-आपमें एक विराट और अत्यन्त जटिल किन्तु सुगठित / compact, connected, synchronized इकाई प्रतीत होगा, जिसका नियन्ता / ईश्वर भी सर्वत्र व्याप्त नियामक और एकमात्र समष्टिगत, सामूहिक और वैयक्तिक नियम भी स्वयं वही होगा।

श्री रमण महर्षि कृत 

உள்ளது நாற்பது  ग्रन्थ के रचयिता वासिष्ठ गणपति ने इसके संस्कृत काव्यानुवाद 

सद्दर्शनम् 

में इसी सत्य को इस प्रकार से श्लोकबद्ध किया है --

सर्वैर्निदानं जगतोऽहमश्च

वाच्यः प्रभुः कश्चिदपारशक्तिः।

चित्रेऽत्र लोक्यं च विलोकिता च

पटः प्रकाशोऽभवत्स एकः।। 

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April 10, 2025

The Primal Language.

द्राविडार्पितम् संस्कृतञ्च

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उन लोगों के आगमन के बाद ही उसे यह पता चला कि वाणी का प्रयोग कैसे किया जा सकता है।

वे वाणी को ईश्वरीय उपहार मानते थे और इसका प्रयोग कैसे किया जाए यह जानने का सौभाग्य इने गिने और केवल उन मानवों को ही प्राप्त होता था जो कि श्री गुरु से विधिवत् इसकी शिक्षा लेते थे। फिर भी कुछ शब्दों को उच्चारण में प्रयोग करना सभी के लिए स्वीकार्य था। जैसे कि अम्मा और अप्पा जिनका प्रयोग क्रमशः माता और पिता को संबोधित करने के लिए किया जाता था। इसी प्रकार गुरु शब्द भी पिता के अर्थ में प्रयुक्त किया जा सकता था। श्री शब्द भी सम्मान सूचक होता था।  रोचक तथ्य यह भी था कि भाषा केतझ लिखित स्वरूप का आविष्कार उसके वाचिक स्वरूप से बहुत बाद में हुआ। 

அப்பா,  அம்மா, அன்பு, அம்பு, தண்ணீர, திரு, 

जिनके लिए हिन्दी में क्रमशः अप्पा, अम्मा, प्रेम, तीर, जल और श्री / श्रीमान् शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इन सभी शब्दों का प्रयोग इसलिए अत्यन्त आदरपूर्वक किया जाता था। 

திருக்குறள் 

तिरुक्कुऱऴ

ऐसा ही एक शब्द था जो श्री और गुरु के साथ  ள்  प्रत्यय / suffix को संयुक्त करने से बना था।

केवल कुछ ही मेधावी द्विज वर्ण के बालक गुरुकुल में वाचिक शिक्षा प्राप्त कर सकते थे और वे भी इस शिक्षा को उच्चारण की तकनीक में निष्णात होने पर ही प्राप्त कर सकते थे। वाणी को वैसा ही आदर दिया जाता था जैसा कि माता, पिता और गुरु को, अर्थात् अपने स्वयं से अधिक आयु के किसी व्यक्ति को दिया जाता था।

इन शब्दों को इसलिए भी विशेष आदर दिया जाता था क्योंकि उनका उद्भव ईश्वरीय दिव्य स्रोत से हुआ है ऐसा उन्हें अपरोक्षतः ज्ञात हो जाता था। तात्पर्य यह कि सभी ऐसे शब्द मनुष्य की वाणी से नहीं बल्कि उस अपौरुषेय अविकारी सत्ता से व्यक्त होनेवाले शब्द या नित्य वाणी की प्रकट अभिव्यक्ति थे।

गुरुकुल की शिक्षा वैसे तो सभी विद्यार्थियों और छात्रों को दी जाती थी किन्तु इसमें वाचिक भाषा का प्रयोग न के बराबर होता था। सभी विद्याएँ केवल अनुकरण की कला का अलग अलग प्रकार होती थीं और सभी छात्र इसी उपाय से सभी कलाओं को सीख लेते थे। इसी तरह से विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करने की शिक्षा दी और ग्रहण की जाती थी। यहाँ तक कि विशेष प्रकार के छात्रों को भी केवल वेदपाठ को शुद्ध उच्चारण सहित करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। वेदपाठी छात्र उन शब्दों और वर्णों की, उनके क्रम, और उतार-चढ़ाव की उनके शुद्ध रूप में आवृत्ति तो कर सकता था किन्तु वह इसके प्रयोजन से तब तक अनभिज्ञ ही रहता था जब तक कि यज्ञ आदि के अनुष्ठान करते समय इनके माध्यम से जिन देवताओं का आवाहन किया जाता है, उनका आगमन नहीं हो जाता था। तब उसे वाणी और देवता के बीच का संबंध स्पष्ट हो जाता था। इसके पश्चात् उसे यह ज्ञात हो जाता था कि एकमेव परमेश्वर का ही आह्वान भिन्न भिन्न देवताओं के रूप में किया जाता है। इस प्रकार वाणी के स्वरूप को जान लेने पर मनुष्य की वैखरी नामक भाषा से उसका परिचय होता है।

मंत्रों के शुद्ध और स्पष्ट उच्चारण से उसका तंत्रिका तंत्र (neural network) भी सामञ्जस्यपूर्ण हो जाता है।

यह सब कुछ केवल अनुकरण मात्र से सीख लिया जाता है। इसके लिए किसी वाचिक, वैचारिक और लिपिबद्ध भाषा का प्रयोग करना तो दूर, परस्पर व्यवहार करना तक संभव नहीं होता है।

आज के युग में भी शिक्षा का यही सिद्धान्त सर्वत्र काम में आता है किन्तु "भाषा" में किसी सिद्धान्त को व्यक्त करने और उसे किसी सैद्धान्तिक रूप देने के क्रम में वह मूल सिद्धान्त हमें पूरी तरह से विस्मृत हो चुका है।

उसने इसी प्रणाली से बहुत सा ज्ञान प्राप्त किया जिसे वह प्रयोग तो कर सकती थी और आवश्यकता होने पर  करती भी थी किन्तु उस ज्ञान को लिपिबद्ध कैसे किया जा सकता है, उसे यह ज्ञात नहीं था। 

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April 06, 2025

The Year 2025 / 2082

श्रीराम जन्मोत्सव रामनवमी 2025 / 2082.

हिन्दू विक्रम संवत् का प्रारंभ शक या ईस्वी संवत् से 57 वर्ष पहले उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने किया था। हिन्दू विक्रम संवत् के 2000 वर्ष, ईस्वी सन् 1943 में पूर्ण हुए थे। और यह विवादास्पद र विचारणीय भी है कि स्वतंत्र भारतवर्ष का राष्ट्रीय संवत् विक्रम संवत् के बजाय शक संवत् क्यों सुनिश्चित किया गया!

जो भी हो, इस श्रीरामनवमी पर राष्ट्रीय विक्रम संवत् के राजा और मंत्री दोनों ही सूर्य हैं और भगवान् श्री राम के आज के जन्म का दिन रविवार भी इसका ही सूचक है कि यह वर्ष विक्रम संवत् 2082 इसलिए सनातन वैदिक धर्म के उत्थान का द्योतक होगा। 

जय श्री राम !

सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ!

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April 02, 2025

The Ignorance.

आचार्य शङ्कर कृत भवान्याष्टकम्

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नाहं जाने तव महिमानम् ।

पाहि कृपामयि मामज्ञानम्।।

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रोगं शोक पापं तापम्, हर मे भगवति कुमति-कलापम्। 

नाहं जाने तव महिमानं, पाहि कृपामयि मामज्ञानम्।।

इस भवान्याष्टकम् नामक स्तोत्र का प्रारंभ इस प्रकार से होता है -

न तातो न माता न बन्धुर्न भ्राता

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी।।

और इसी स्तोत्र में "मामज्ञानम्" के माध्यम से यह प्रार्थना भी की गई है -

हे कृपामयि भगवति! तुम "मुझ अज्ञान" की रक्षा करो।

स्तोत्रकार भगवान् आचार्य शङ्कर यहाँ पर ऐसा नहीं कहते कि मुझ ज्ञानी / अज्ञानी की रक्षा करो। 

यहाँ आशय - 

मेरे "अज्ञान" की रक्षा करो, 

यह भी नहीं है।

इसका तात्पर्य यह है कि "अहंकार" ही ज्ञान और अज्ञान के रूप में "मैं" है, तथा "मैं" ही शिव / भवानी के रूप में परमात्मा भी है।

यह "मैं", जो कि शिव / भवानी कहकर संबोधित किए जानेवाले परमात्मा के स्वरूप से अनभिज्ञ होकर अपने आपको ज्ञान के दंभ से ज्ञानी, और प्रमादवश ही अपने को अज्ञानी भी मान लिया करता है।

जबकि परमात्मा तो दंभ और अज्ञान से सर्वथा रहित है, वही शिव / भवानी है। - दंभरूपी ज्ञान और अज्ञानी होने की कल्पना से रहित वह एवमेव और अद्वितीय, सत् चित् आनन्द रूपी परब्रह्म परमात्मा, वह प्रभु हैं जो -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५)

"मैं करता हूँ" इस प्रकार की कर्तृत्व की मिथ्या भावना से प्रदूषित मन ही स्वयं को मोहित बुद्धि से उत्पन्न अज्ञान से ग्रस्त होकर अपने आपको पुण्य-कर्मों या पाप-कर्मों का करनेवाला मान बैठता है और सुखी दुःखी भी होता है।

उस परमात्मा शिव / भवानी से हमारा वैसा क्या संबंध हो सकता है, जैसा अपने सांसारिक माता, पिता, बन्धु या भाई आदि से हुआ करता है? मोहित बुद्धि के कारण ही, अहंकार ही "मैं" के रूप में ज्ञान और अज्ञान के रूप में बुद्धि को आवरित कर लेता है और इस प्रकार से "मैं" ही ज्ञान / अज्ञान होकर सदैव स्वयं के ज्ञानी होने के दंभ से या अज्ञानी होने की कल्पना से ग्रस्त और त्रस्त हुआ करता है।

जब "मैं" परमात्मा शिव / भवानी की महिमा को और अपनी अल्पज्ञता को जान लेता है तब यही तथाकथित "मैं", ज्ञान और अज्ञान दोनों ही से रहित होकर विशुद्ध ज्ञानमात्र के रूप में अपने स्वरूप से अवगत हो जाता है, और वहीं अवस्थित रहने लगता है।

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