June 22, 2023

कुछ लकड़ियाँ!

कविता / 22-06-2023

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कुछ तो ऐसी नाजु़क, नाज़नीन होती हैं, 

जिनके नाज उठाना, अच्छा भी लगता है, 

यूँ तो आसान, फिर भी मगर मुश्किल भी! 

कुछ लकड़ियाँ कच्ची, पतली होती हैं,

कुछ आर्द्र सी, कुछ सूखी सी, कुछ नम,

जैसे पल पल, कभी खुशी कभी ग़म!

और बीच बीच में उठा करता है धुँआ,

ये पता नहीं, धुँए से आते हैं आँसू,

या कि आँसुओं से उठता है धुँआ! 

कुछ लकड़ियाँ मृदु, कोमल,

तो कुछ कँटीली रूखी कठोर, 

अगर जो पकड़ लेती हैं दामन,

तो फिर कभी छोड़ती ही नहीं, 

और कुछ मसृण चिकनी सपाट,

हाथों से इस तरह फिसलती हैं,

न तो जुड़ती हैं, जोड़ती भी नहीं!

और कुछ मंद मंद भीनी भीनी, 

खुशबू बिखेरती लकड़ियाँ होती हैं,

तो कुछ तीखी, कड़वी गंध से भरी,

कुछ कुछ नशीली, कुछ कुछ रसीली, 

कुछ कुछ मधुर, कुछ कुछ लसीली, 

लकड़ियाँ तो आखिर लकड़ियाँ हैं,

मद्धम मद्धम, धीमे धीमे जलती हैं,

और सुरमई रौशनी में ढलती हैं, 

जिसकी आँच में तप पिघलकर, 

लोहा भी शीशे में बदल जाता है!

सोना तो, और भी निखरकर,

अपने ही रूप से लजाता है!

तो बात हो रही थी बस लकड़ियों की,

कि लकड़ियाँ इस तरह से होती हैं!

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