June 15, 2023

Fission and Fusion

प्रश्न / Question  26.

आहत और अनाहत नाद क्या है? क्या वे दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं? 

Answer / उत्तर 

उन दिनों मैं ग्यारहवीं बोर्ड की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका था और कॉलेज में बी. एस-सी. प्रथम वर्ष में अध्ययनरत था। कॉलेज के प्रथम वर्ष में छात्रों के लिए एन. सी. सी. की गतिविधियों में भाग लेना अनिवार्य था। मुझे भी प्रति सप्ताह दो दिनों के लिए परेड में जाना होता था। किन्तु उत्साह और रुचि न होने से मैं कभी कभी ही जाता था। चूँकि उपस्थिति भी दर्ज नहीं होती थी, यह जानते हुए भी कि परेड में न जाने पर रिफ्रेशमेंट से भी वंचित हो जाना पड़ेगा, मैं कभी कभी जाता था।

परेड के समय हमारे हाथों में .22 की बन्दूक थमा दी जाती थी और हमें अलग अलग तरह की गतिविधियाँ सिखाई जाती थीं। परेड का सबसे रोचक हिस्सा वह था जब हमें क़तारबद्ध में कदम से कदम मिलाकर :

"लेफ्ट राइट लेफ्ट, लेफ्ट राइट लेफ्ट, लेफ्ट राइट लेफ्ट, ... ... लेफ्ट --- लेफ्ट --- लेफ्ट, लेफ्ट राइट लेफ्ट सुनते हुए परेड में चलना होता था।

एक दिन मेरा ध्यान इस पर गया कि कैसे 'राइट' शब्द का उच्चारण खो जाते हुए भी हम यंत्रवत उस आदेश (command) का पालन करते थे।

बहुत बाद में

"Learn Guitar In 30 minutes"

पढ़ते हुए यह  रहस्य खुला कि मौन या स्वर का अभाव भी एक स्वर ही है और नाद एक नित्य और अखंड तत्व है, जो सर्वत्र ही व्याप्त है और इसी तरह सब कुछ उसमें ही ओत-प्रोत है। "हारमोनियम गाइड", "तबला बजाना सीखें" और  "वायोलिन बजाना सीखें" जैसी किताबों से मुझे सुर-ताल का परस्पर संबंध और सामञ्जस्य समझ में आ गया। फिर नोकिया 3315 के  composer से मैंने "ताली" और "खाली" का संबंध भी समझ लिया। "ताली" का तात्पर्य होता है आहत नाद, जबकि "खाली" का तात्पर्य है वह समय-अन्तराल जब अनाहत नाद का वर्चस्व होता है। इसे ही शून्य-नाद भी कह सकते हैं, जो केवल मौन की ही प्रकट अभिव्यक्ति होता है। जब मन एकाएक ठिठक जाता है। मौन का वह शून्य, संगीत का आधारभूत अधिष्ठान है, किन्तु सहसा किसी का उस पर ध्यान शायद ही कभी जाता हो। वह वस्तुतः समस्त स्वरों / श्रुतिस्वरों को समाहित करता है किन्तु फिर भी अदृश्य ही रहता है। समस्त स्वरों से यद्यपि विभिन्न रागों की सृष्टि होती है, किन्तु उन्हें परस्पर जोड़ता भी यही स्वर है, जो कि अनाहत है।

उस मौन स्वर पर ध्यान जाते ही सभी स्वर उसमें विलीन हो गए। इसे आज के विज्ञान की भाषा में कहें तो मौन / अनाहत स्वर संलयन (Fusion) का, और आघातजन्य / आहत स्वर विखंडन (Fission) के रूप हैं। परमाणु से उत्पन्न ऊर्जा जैसे परमाणुओं के संलयन (Fusion) या विखंडन (Fission) दोनों ही तरीकों से प्राप्त की जा सकती है, आत्मज्ञान भी इसी तरह दो प्रकार से पाया जा सकता है। प्रथम में परमात्मा को अपने से भिन्न मानकर उसकी खोज, उपासना आदि की जाती है और अन्ततः वही उससे अपनी निजता, नित्यता, अनन्यता, अभिन्नता के बोध में परिणत हो जाती है। यह गीता में वर्णित कर्म / योग का तरीका है। इसके साथ या पश्चात, सांख्य ज्ञान उत्पन्न होता है, जिसे स्वतन्त्र रूप से भी आत्मानुसंधान के माध्यम से आत्मा / परमात्मा के स्वरूप की जिज्ञासा के समाधान की तरह पाया जा सकता है। दोनों निष्ठाएँ परस्पर स्वतंत्र होते हुए भी उनका फल एक ही होता है।

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।

फलश्रुति :

इसी प्रकार संगीत को परमात्मा की प्राप्ति की साधना के रूप में स्वीकार करनेवाले भी आहत और अनाहत दोनों ही स्वरों को जान लेने पर उस परमात्मा से अपनी निज अनन्यता और अभिन्नता को जान लेते हैं।

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